बुधवार, 12 जून 2013

उपभोक्ता समाज पर विज्ञापन का मायाजाल

 डॉ महेश परिमल
पिछले कुछ वर्षों में मीडिया का विस्तार इतनी तेजी से हुआ है कि संचार की दुनिया ही बदल गई है। मीडिया से जुड़े और भी कई माध्यम हैं जिनमें काफी परिष्कार और निखार आया है। जन सम्पर्क और विज्ञापन का माध्यम समाचार पत्रों के साथ-साथ बेहद प्रभावी व संप्रेषणशील स्रोत के रूप में उभरे हैं। यही नहीं बल्कि एक दूसरे पर परस्पर निर्भर भी हो गए हैं। सरकारों ने तो अनेक वर्षों से अपने-अपने जन सम्पर्क विभाग गठित कर रखे हैं जो उसके कार्य-कलापों को जनता तक पहुंचाते हैं। इसी प्रकार औद्योगिक प्रतिष्ठानों ने भी जनसंपर्क को आर्थिक उदारवाद के इस दौर में काफी महत्व दिया है। आज का समाज उपभोक्तावादी समाज कहा जाता है अतएव अपने उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा बेचना औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिए उच्च प्राथमिकता का विषय हो गया है। जीवन का कोई भी क्षेत्र अब विज्ञापन और जनसंपर्क की पहुंच से अछूता नहीं है। पिछले 50 वर्षों में भारतीय विज्ञापन विधा ने बहुत लंबी दूरी तय की है। उसका शिल्प इतना उन्नत हुआ है कि किसी भी विकसित देश से टक्कर ले सकता है। विज्ञापन और जन सम्पर्क एक प्रकार से जुड़वा विधाएं हैं। इन्होंने एक स्वतंत्र उद्योग की शक्ल अख्तियार कर ली है।
'प्राइम टाइम' जिस समय सबसे ज्यादा दर्शक टीवी देखते हैं, को भी विज्ञापनदाताओं ने खरीद रखा है। इस समय चंद बड़ी कंपनियों का एकाधिकार है और वे सतही मनोरंजन के साथ दर्शकों के आगे अपने उत्पादनों को भी सरका देती है। सवाल है कि क्या मुनाफाखोरी के लिए करोड़ों लोगों के हितों को ताक पर रख देना उचित है? फूहड़ किस्म के विज्ञापन भी बेदस्तूर जारी है जबकि पाठकों की अभिरुचियों का स्तर इस बीच काफी उठा है। ये विकृतियां अभी खत्म हो सकती है जब विज्ञापनों को लेकर स्पष्ट और सख्त नीति बनाई जाए तथा आवश्यक हो तो उसे कानूनी जामा पहनाया जाए। जनसम्पर्क कला एवं विज्ञापन के क्षेत्र में प्रबुद्ध रोजगार की विपुल संभावनाएं हैं। अतएव शासन, विश्वविद्यालयों, समाचार पत्र संगठनों व जनसम्पर्क प्रतिष्ठानों को आपस में विचार विमर्श कर एक ऐसा संयुक्त फोरम बनाना होगा ताकि इसे स्वतंत्र उद्योग स्वरूप देते हुए रोजगार के एक महती स्रोत के रूप में विकसित किया जा सके।

आज हमारे में चुपके-चुपके बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ रहा है। इसे हम अभी तो नहीं समझ पा रहे हैं, पर भविष्य में निश्चित रूप से यह हमारे सामने आएगा। इस बार इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारी मानसिकता पर हमला करने के लिए मासूमों का सहारा लिया है। हमारे मासूम याने वे बच्चे, जिन पर हम अपना भविष्य दांव पर लगाते हैं और उन्हें इस लायक बनाते हैं कि वे हमारा सहारा बनें। सहारा बनने की बात तो दूर, अब तो बच्चे अपने माता-पिता को बेवकूफ समझने लगे हैं और उनसे बार-बार यह कहते पाए गए हैं कि पापा, छोड़ दो, आप इसे नहीं समझ पाएंगे। इस पर हम भले ही गर्व कर लें कि हमारा बच्चा आज हमसे भी अधिक समझदार हो गया है, पर बात ऐसी नहीं है, उसकी मासूमियत पर जो परोक्ष रूप से हमला हो रहा है, हम उसे नहीं समझ पा रहे हैं। आज घर में नाश्ता क्या बनेगा, इसे तय करते हैं आज के बच्चे। तीन वर्ष का बच्चा यदि मैगी खाने या पेप्सी पीने की जिद पकड़ता है तो हमें समझ लेना चाहिए कि यह अनजाने में उसके मस्तिष्क में विज्ञापनों ने हमला किया है। मतलब नाश्ता क्या बनेगा, यह माता-पिता नहीं, बल्कि कहीं बहुत दूर से बहुराष्ट्रीय कंपनियां तय कर रही हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां बहुत ही धीरे से चुपके-चुपके हमारे निजी जीवन में प्रवेश कर रही है, इस बार उन्होंने निशाना तो हमें ही बनाया है, पर इस बार उन्होंने कांधे के रूप में बच्चों को माध्यम बनाया है। यह उसने कैसे किया, आइए उसकी एक बानगी देखें- इन दिनों टीवी पर नई कार का विज्ञापन आ रहा है। जिसमें एक बच्चा अपने पिता के साथ कार पर कहीं जा रहा है, थोड़ी देर बाद वह अपने गंतव्य पहुंचकर कार के सामने जाता है और अपने दोनों हाथ फैलाकर कहता है ''माय डैडीड बिग कार'' इस तरह से अपनी नई कार को बेचने के लिए बच्चों की आवश्यकता कंपनी को आखिर क्यों पड़ी? जानते हैं आप? शायद नहीं, शायद जानना भी नहीं चाहते। टीवी और प्रिंट मीडिया पर प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों में नारी देह के अधिक उपयोग या कह लें कि दुरुपयोग को देखते हुए कतिपय नारीवादी संस्थाओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। नारी देह अब पुरुषों को आकर्षित नहीं कर पा रही है, इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बच्चों का सहारा लिया है। अब यह स्थिति और भी भयावह होती जा रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब बच्चों में अपना बाजार देख रही हैं। आजकल टीवी पर आने वाले कई विज्ञापन ऐसे हैं, जिसमें उत्पाद तो बड़ों के लिए होते हैं, पर उसमें बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है। घर में नया टीवी कौन सा होगा, किस कंपनी का होगा, या फिर वाशिंग मशीन, मिक्सी किस कंपनी की होगी, यह बच्चे की जिद से तय होता है। सवाल यह उठता है कि जब बच्चों की जिद के आधार पर घर में चीजें आने लगें, तो फिर माता-पिता की आवश्यकता ही क्या है? जिस तरह से हॉलीवुड की फिल्में हिट करने में दस से पंद्रह वर्ष के बच्चों की भूमिका अहम् होती है, ठीक उसी तरह आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां बच्चों के माध्यम से अपने उत्पाद बेचने की कोशिश में लगी हुई हैं। क्या आप जानते हैं कि इन मल्टीनेशनल कंपनियों ने इन बच्चों को ही ध्यान में रखते हुए 74 करोड़ अमेरिकन डॉलर का बाजार खड़ा किया है। यह बाजार भी बच्चों के शरीर की तरह तेजी से बढ़ रहा है। इस बारे में मार्केटिंग गुरूओं का कहना है कि किसी भी वस्तु को खरीदनें में आज के माता-पिता अपने पुराने ब्रांडों से अपना लगाव नहीं तोड़ पाते हैं। दूसरी ओर बच्चे, जो अभी अपरिपक्व हैं, उन्हें अपनी ओर मोड़ने में इन कंपनियों को आसानी होती है। नई ब्रांड को बच्चे बहुत तेजी से अपनाते हैं। इसीलिए उन्हें सामने रखकर विज्ञापन बनाए जाने लगे हैं, आश्चर्य की बात यह है कि इसके तात्कालिक परिणाम भी सामने आए हैं। याने यह मासूमों पर एक ऐसा प्रहार है, जिसे हम अपनी आंखों से उन पर होता देख तो रहे हैं, पर कुछ भी नहीं कर सकते, क्योंकि आज हम टीवी के गुलाम जो हो गए हैं। आज टीवी हमारा नहीं, बल्कि हम टीवी के हो गए हैं।
हाल ही में एक किताब आई है, ''ब्रांड चाइल्ड''। इसमें यह बताया गया है कि 6 महीने का बच्चा कंपनियों का ''लोगो'' पहचान सकता है, 3 साल का बच्चा ब्रांड को उसके नाम से जान सकता है और 11 वर्ष का बालक किसी निश्चित ब्रांड पर अपने विचार रख सकता है। यही कारण है कि विज्ञापनों के निर्माता ''केच देम यंग'' का सूत्र अपनाते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के बच्चे सोमवार से शुक्रवार तक रोज आमतौर पर 3 घंटे और शनिवार और रविवार को औसतन 3-7 घंटे टीवी देखते हैं। अब तो कोई भी कार्यक्रम देख लो, हर 5 मिनट में कॉमर्शियल ब्रेक आता ही है और इस दौरान कम से कम 5 विज्ञापन तो आते ही हैं। इस पर यदि क्रिकेट मैच या फिर कोई लोकप्रिय कार्यक्रम चल रहा हो, तो विज्ञापनों की संख्या बहुत ही अधिक बढ़ जाती है। इस तरह से बच्चा रोज करीब 300 विज्ञापन तो देख ही लेता है, यही विज्ञापन ही तय करते हैं कि उसकी लाइफ स्टाइल कैसी होगी। इस तरह से टीवी से मिलने वाले इस आकाशीय मनोरंजन की हमें बड़ी कीमत चुकानी होगी, इसके लिए हमें अभी से तैयार होना ही पड़ेगा।
समय बदल रहा है, हमें भी बदलना होगा। इसका आशय यह तो कतई नहीं हो जाता कि हम अपने जीवन मूल्यों को ही पीछे छोड़ दें। पहले जब तक बच्चा 18 वर्ष का नहीं हो पाता था, तब तक वह अपने हस्ताक्षर से बैंक से धन नहीं निकाल पाता था। लेकिन अब तो कई ऐसी निजी बैंक सामने आ गई हैं, जिसमें 10 वर्ष के बच्चे के लिए के्रडिट कार्ड की योजना शुृरू की है। इसके अनुसार कोई भी बच्चा एटीएम जाकर अधिक से अधिक एक हजार रुपए निकालकर मनपसंद वस्तु खरीद सकता है। सभ्रांत घरों के बच्चों का पॉकेट खर्च आजकल दस हजार रुपए महीने हो गया है। इतनी रकम तो मध्यम वर्ग का एक परिवार का गुजारा हो जाता है। सभ्रांत परिवार के बच्चे क्या खर्च करेंगे, यह तय करते हैं, वे विज्ञापन, जिसे वे दिन में न जाने कितनी बार देखते हैं। चलो, आपने समझदारी दिखाते हुए घर में चलने वाले बुध्दू बक्से पर नियंत्रण रखा। बच्चों ने टीवी देखना कम कर दिया। पर क्या आपने कभी उसकी स्कूल की गतिविधियों पर नजर डाली? नहीं न...। यहीं गच्चा खा गए आप, क्योंकि आजकल स्कूलों के माध्यम से भी बच्चों की मानसिकता पर प्रहार किया जा रहा है। आजकल तो स्कूलें भी हाईफाई होने लगी हैं। इन स्कूलों में बच्चों को भेजना किसी जोखिम से कम नहीं है।
अब यह प्रश् उठता है कि क्या आजकल स्कूलें बच्चों का ब्रेन वॉश करने वाली संस्थाएं बनकर रह गई हैं? बच्चे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ग्राहक बनकर अनजाने में ही पश्चिमी संस्कृति के जीवन मूल्यों को अपनाने लगे हैं। यह चिंता का विषय है। पहले सादा जीवन उच्च विचार को प्राथमिकता दी जाती थी, पर अब यह हो गया है कि जो जितना अधिक मूल्यवान चीजों को उपयोग में लाता है वही आधुनिक है। वही सुखी और सम्पन्न है। ऐसे में माता-पिता यदि बच्चों से यह कहें कि आधुनिक बनने के चक्कर में वे कहीं भटक तो नहीं रहे हैं, तो बच्चों का यही उत्तर होगा कि आप लोग देहाती ही रहे, आप क्या जानते हैं इसके बारे में। ऐसे में इन तथाकथित आधुनिक बच्चों से यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करेंगे?

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