डॉ. महेश परिमल
आजकल मीडिया में भारत निर्माण के बड़े-बड़े विज्ञापन आ रहे हैं। इन विज्ञापनों को देखकर यही लगता है कि भारत ने अभी-अभी ही प्रगति की दौड़ में आगे बढ़ना शुरू किया है। भारत निर्माण के लिए यदि यूपीए सरकार को श्रेय जाता है, तो नक्सल निर्माण का श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? कोई बता सकता है? यह देश की विडम्बना है कि एक तरफ आईपीएल में करोड़ों का सट्टा खेला जा रहा है, तो दूसरी तरफ उन आदिवासियों का जीवन है, जो एकदम नारकीय हो गया है। उन्हें अपनी ही माटी से दूर जाना पड़ रहा है। ठीक कश्मीरी ब्राह्मणों की तरह! देश की इन दो तस्वीरों से ही स्पष्ट हो जाता है कि हमारे देश की नीतियां ही ऐसी नहीं है कि वह आतंकवाद का मुकाबला डटकर कर सके। कब आएगी हममें, श्रीलंका सरकार जैसी इच्छा शक्ति? जिसने लिट्टे को खत्म करने में कोई कसर बाकी न रखी। अब कोई राज्य ऐसा नहीं बचा, जो नक्सलवाद से अछूता हो। नक्सलवाद अब पूरे देश की समस्या बन गया है, पर इस पर काबू पाने में अभी भी देश की नीतियां कमजोर साबित हो रही हैं।
सुकमा में गत 25 मई कों हुई नक्सलवादी घटना से पूरा देश आहत है। इस घटना ने यूपीए सरकार के भारत निर्माण का असली चेहरा सामने ला दिया है। देश में आजादी के साढ़े 6 दशक के बाद देश का एक वर्ग इतना अधिक नाराज है कि उसने अपने हाथ में शस्त्र उठा लिए हैं। नक्सलवाद कोई एकदम से आई समस्या नहीं है, यह समस्या 1960 से शुरू हो गई थी। अभी तक सैकड़ों पुलिसकर्मियों एंव अधिकारियों ने अपनी आहुति दी है। पर सत्ता पर बैठे नेताओं ने इस समस्या को कभी इतनी गंभीरता से नहीं लिया। अब जब यह नक्सलवाद से कुछ नेताओं का बलिदान हुआ है, तो उन्हें यह समझ में आ रहा है कि इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए। जब भी नक्सलवाद के खिलफ कड़े कदम उठाए गए है, तो उसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ा है। देश का एक वर्ग ऐसा भी है, जो नक्सलवाद का समर्थन करता है। यह वर्ग स्वयं को अतिबुद्धिवादी मानता है। नक्सलवाद ने जब भी पुलिसकर्मियों की हत्या की, तब तक राजनीतिक दल केवल बयानबाजी करके रह जाते थे। अब जब वे नेताओं की हत्या करने लगे, तो उन्हें यह समस्या विकट दिखने लगी है।
बस्तर जिले की घटना ने यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या अब आम आदमी के बाद देश में नेता भी सुरक्षित नहीं है? पिछले एक दशक में जिस तरह से देश में नेताओं की छबि बिगड़ी है, उतनी किसी की नहीं। देश आज यदि बरबादी के कगार पर है, तो लोग इसके लिए देश के नेताओं को ही दोषी मानते हैं। इसके लिए आम आदमी को अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए, आखिर ऐसे नेताओं को चुनकर विधानसभा और संसद में भेजा किसने? कुछ लोग केवल इसलिए ही वोट नहीं देते कि जब सांपनाथ और नागनाथ में से एक को चुनना ही है, तो किसी को वोट न दिया जाए, इसी गफलत में ऐसे नेता जीत जाते हैं, जिनके जीतने की थोड़ी भी गुंजाइश नहीं होती। अगर देश का आम आदमी सजग होकर अपने वोट का सही इस्तेमाल करे, तो देश की जो स्थिति आज है, वह कदापि न होती। नक्सलियों द्वारा नेताओं को मारे जाने की घटना के बाद कई तरह के बयान सामने आए, पर किसी कांग्रेसी नेता ने यह नहीं कहा कि नक्सलवाद को पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देना चाहिए। नक्सलवाद का पूरी तरह से सफाया कोई दल नहीं चाहता। क्योंकि हर दल का स्वार्थ किसी न किसी तरह से नक्सलवाद से जुड़ा है। यह सच है कि यदि नक्सलियों को नेताओं, व्यापारियों, उद्योगपतियों का समर्थन न मिले, तो इनका विस्तार हो ही नहीं सकता। व्यापारी नक्सलियों को केवल इसलिए आर्थिक सहायता करते हैं कि वे उन्हें पुलिस के प्रकोप से बचाएंगे। उद्योगपति उन्हें इसलिए धन देते हैं कि वे आसानी से अपना उद्योग चला सके। उनके संस्थान में किसी तरह का अवरोध न आने पाए, मजदूरों की हड़ताल आदि से उन्हें मुक्ति मिल जाए। नेता उनका समर्थन केवल और केवल वोट के लिए ही करते हैं।
सामान्य प्रजा यह मानती है कि जो व्यवहार नक्सली आम आदमी के साथ कर रहे हैं, वही व्यवहार उनके साथ भी किया जाना चाहिए। ऐसा करने के लिए सरकार के पास दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए। जिस तरह से लिट्टे के खात्मे के लिए श्रीलंका सरकार ने कमर कसकर उससे लोहा लिया और उसे नेस्तनाबूद कर दिया, ठीक वैसा ही केंद्र और राज्य सरकार मिलकर करें, तो यह समस्या काफी हद तक कम हो सकती है। पर केंद्र इसे राज्य का मामला बताता हे और राज्य सरकारें कहती हैं कि बिना केंद्रीय सहायता के इस समस्या से मुक्ति नहीं मिल सकती। दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला बरसों से जारी है। अब जब नक्सलियों ने जिस तरह से नरसंहार किया है और नेताओं को निशाना बनाया है, उससे यह लगता है कि इस बात पर केंद्र और राज्य सरकार मिलकर कुछ करेंगे। नक्सलवाद पर नकेल कसने के लिए कई सुझाव दिए गए हैं, पर सबमें कहीं न कहीं राजनीति आ जाती है, इसलिए मामला आगे नहीं बढ़ पाता है। कई बार ऐसा होता है कि नक्सलवाद के खात्मे के लिए निकले पुलिस और सेना के जवान आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। इससे आदिवासियों का क्रांधित होना लाजिमी है। वैसे भी किसी देश के लिए नक्सलवादियों से निपटना ऐसा ही है, जैसे गृहयुद्ध हो। भारतीयों द्वारा ही भारतीयों की हत्या। एक तरफ मानवाधिकार वाले बार-बार पुलिस की बर्बरता पर सवाल उठाते रहते हैं, पर जब नक्सली उससे भी अधिक बर्बरता बरतते हैं, तब वे खामोश हो जाते हैं। श्रीलंका में तमिल उग्रवादियों के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी गई, उसमें एक सोची-समझी नीति के तहत लिट्टे का खात्मा किया गया। पहले तो उसके अड्डे को चारों तरफ से घेर लिया गया। फिर क्या था, पहले तो लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण का खात्मा किया, उसके बाद उनके साथियों का। इस काम में श्रीलंका ने किसी की परवाह नहीं की। उसने अपने सामने देश को रखा, वहां के नेताओं ने भी नेशन फस्र्ट थ्योरी का भरपूर समर्थन किया। मानवाधिकार वाले चिल्लाते रहे, पर सरकार ने उनकी नहीं सुनी। उसी समय भारत में तमिलनाड़ु में डीएमके अध्यक्ष करुणानिधि ने तमिलों पर अत्याचार का राग अलापा था, पर लोग समझ गए कि यह वोट बटोरने की राजनीति है, इसलिए उनके बयानों पर ध्यान ही नहीं दिया गया।
सवाल यह उठता है कि जब श्रीलंका सरकार ऐसा कर सकती है, तो भारत सरकार क्यों नहीं कर सकती? भारत में ऐसा इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि कदम-कदम पर राजनीति आड़े आती है। यदि सरकार नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई करती है, तो आदिवासी वोट उनके हाथ से चले जाएंगे, यही धारणा सरकार को विवश कर देती है कुछ न करने के लिए। इधर सरकार को अपने वोट की पड़ी है, उधर निर्दोष मारे जा रहे हैं। सरकार की स्थिति बड़ी विचित्र है। एक तरफ धन की वर्षा करने वाला आईपीएल का तमाशा है, तो दूसरी तरफ नक्सलवादी नेताओं को उड़ा देने की योजना बना रहे हैं। एक तरफ की दुनिया चकाचौंध भरी, दूसरी तरफ की दुनिया एकदम अंधकारमय। भारत निर्माण का सारा श्रेय यूपीए सरकार ले रही है, पर यह कोई बता सकता है कि नक्सलवाद को जन्म किसने दिया, किसकी शह पर ये फले-फूले, किसने इन्हें चलना और गोली चलाना सिखाया? बिना राजनैतिक संरक्षण के इतना बड़ा संगठन कभी इस देश में खड़ा होकर चल भी सकता है, इसका उत्तर किसके पास है?
डॉ. महेश परिमल
आजकल मीडिया में भारत निर्माण के बड़े-बड़े विज्ञापन आ रहे हैं। इन विज्ञापनों को देखकर यही लगता है कि भारत ने अभी-अभी ही प्रगति की दौड़ में आगे बढ़ना शुरू किया है। भारत निर्माण के लिए यदि यूपीए सरकार को श्रेय जाता है, तो नक्सल निर्माण का श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? कोई बता सकता है? यह देश की विडम्बना है कि एक तरफ आईपीएल में करोड़ों का सट्टा खेला जा रहा है, तो दूसरी तरफ उन आदिवासियों का जीवन है, जो एकदम नारकीय हो गया है। उन्हें अपनी ही माटी से दूर जाना पड़ रहा है। ठीक कश्मीरी ब्राह्मणों की तरह! देश की इन दो तस्वीरों से ही स्पष्ट हो जाता है कि हमारे देश की नीतियां ही ऐसी नहीं है कि वह आतंकवाद का मुकाबला डटकर कर सके। कब आएगी हममें, श्रीलंका सरकार जैसी इच्छा शक्ति? जिसने लिट्टे को खत्म करने में कोई कसर बाकी न रखी। अब कोई राज्य ऐसा नहीं बचा, जो नक्सलवाद से अछूता हो। नक्सलवाद अब पूरे देश की समस्या बन गया है, पर इस पर काबू पाने में अभी भी देश की नीतियां कमजोर साबित हो रही हैं।
सुकमा में गत 25 मई कों हुई नक्सलवादी घटना से पूरा देश आहत है। इस घटना ने यूपीए सरकार के भारत निर्माण का असली चेहरा सामने ला दिया है। देश में आजादी के साढ़े 6 दशक के बाद देश का एक वर्ग इतना अधिक नाराज है कि उसने अपने हाथ में शस्त्र उठा लिए हैं। नक्सलवाद कोई एकदम से आई समस्या नहीं है, यह समस्या 1960 से शुरू हो गई थी। अभी तक सैकड़ों पुलिसकर्मियों एंव अधिकारियों ने अपनी आहुति दी है। पर सत्ता पर बैठे नेताओं ने इस समस्या को कभी इतनी गंभीरता से नहीं लिया। अब जब यह नक्सलवाद से कुछ नेताओं का बलिदान हुआ है, तो उन्हें यह समझ में आ रहा है कि इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए। जब भी नक्सलवाद के खिलफ कड़े कदम उठाए गए है, तो उसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ा है। देश का एक वर्ग ऐसा भी है, जो नक्सलवाद का समर्थन करता है। यह वर्ग स्वयं को अतिबुद्धिवादी मानता है। नक्सलवाद ने जब भी पुलिसकर्मियों की हत्या की, तब तक राजनीतिक दल केवल बयानबाजी करके रह जाते थे। अब जब वे नेताओं की हत्या करने लगे, तो उन्हें यह समस्या विकट दिखने लगी है।
बस्तर जिले की घटना ने यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या अब आम आदमी के बाद देश में नेता भी सुरक्षित नहीं है? पिछले एक दशक में जिस तरह से देश में नेताओं की छबि बिगड़ी है, उतनी किसी की नहीं। देश आज यदि बरबादी के कगार पर है, तो लोग इसके लिए देश के नेताओं को ही दोषी मानते हैं। इसके लिए आम आदमी को अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए, आखिर ऐसे नेताओं को चुनकर विधानसभा और संसद में भेजा किसने? कुछ लोग केवल इसलिए ही वोट नहीं देते कि जब सांपनाथ और नागनाथ में से एक को चुनना ही है, तो किसी को वोट न दिया जाए, इसी गफलत में ऐसे नेता जीत जाते हैं, जिनके जीतने की थोड़ी भी गुंजाइश नहीं होती। अगर देश का आम आदमी सजग होकर अपने वोट का सही इस्तेमाल करे, तो देश की जो स्थिति आज है, वह कदापि न होती। नक्सलियों द्वारा नेताओं को मारे जाने की घटना के बाद कई तरह के बयान सामने आए, पर किसी कांग्रेसी नेता ने यह नहीं कहा कि नक्सलवाद को पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देना चाहिए। नक्सलवाद का पूरी तरह से सफाया कोई दल नहीं चाहता। क्योंकि हर दल का स्वार्थ किसी न किसी तरह से नक्सलवाद से जुड़ा है। यह सच है कि यदि नक्सलियों को नेताओं, व्यापारियों, उद्योगपतियों का समर्थन न मिले, तो इनका विस्तार हो ही नहीं सकता। व्यापारी नक्सलियों को केवल इसलिए आर्थिक सहायता करते हैं कि वे उन्हें पुलिस के प्रकोप से बचाएंगे। उद्योगपति उन्हें इसलिए धन देते हैं कि वे आसानी से अपना उद्योग चला सके। उनके संस्थान में किसी तरह का अवरोध न आने पाए, मजदूरों की हड़ताल आदि से उन्हें मुक्ति मिल जाए। नेता उनका समर्थन केवल और केवल वोट के लिए ही करते हैं।
सामान्य प्रजा यह मानती है कि जो व्यवहार नक्सली आम आदमी के साथ कर रहे हैं, वही व्यवहार उनके साथ भी किया जाना चाहिए। ऐसा करने के लिए सरकार के पास दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए। जिस तरह से लिट्टे के खात्मे के लिए श्रीलंका सरकार ने कमर कसकर उससे लोहा लिया और उसे नेस्तनाबूद कर दिया, ठीक वैसा ही केंद्र और राज्य सरकार मिलकर करें, तो यह समस्या काफी हद तक कम हो सकती है। पर केंद्र इसे राज्य का मामला बताता हे और राज्य सरकारें कहती हैं कि बिना केंद्रीय सहायता के इस समस्या से मुक्ति नहीं मिल सकती। दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला बरसों से जारी है। अब जब नक्सलियों ने जिस तरह से नरसंहार किया है और नेताओं को निशाना बनाया है, उससे यह लगता है कि इस बात पर केंद्र और राज्य सरकार मिलकर कुछ करेंगे। नक्सलवाद पर नकेल कसने के लिए कई सुझाव दिए गए हैं, पर सबमें कहीं न कहीं राजनीति आ जाती है, इसलिए मामला आगे नहीं बढ़ पाता है। कई बार ऐसा होता है कि नक्सलवाद के खात्मे के लिए निकले पुलिस और सेना के जवान आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। इससे आदिवासियों का क्रांधित होना लाजिमी है। वैसे भी किसी देश के लिए नक्सलवादियों से निपटना ऐसा ही है, जैसे गृहयुद्ध हो। भारतीयों द्वारा ही भारतीयों की हत्या। एक तरफ मानवाधिकार वाले बार-बार पुलिस की बर्बरता पर सवाल उठाते रहते हैं, पर जब नक्सली उससे भी अधिक बर्बरता बरतते हैं, तब वे खामोश हो जाते हैं। श्रीलंका में तमिल उग्रवादियों के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी गई, उसमें एक सोची-समझी नीति के तहत लिट्टे का खात्मा किया गया। पहले तो उसके अड्डे को चारों तरफ से घेर लिया गया। फिर क्या था, पहले तो लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण का खात्मा किया, उसके बाद उनके साथियों का। इस काम में श्रीलंका ने किसी की परवाह नहीं की। उसने अपने सामने देश को रखा, वहां के नेताओं ने भी नेशन फस्र्ट थ्योरी का भरपूर समर्थन किया। मानवाधिकार वाले चिल्लाते रहे, पर सरकार ने उनकी नहीं सुनी। उसी समय भारत में तमिलनाड़ु में डीएमके अध्यक्ष करुणानिधि ने तमिलों पर अत्याचार का राग अलापा था, पर लोग समझ गए कि यह वोट बटोरने की राजनीति है, इसलिए उनके बयानों पर ध्यान ही नहीं दिया गया।
सवाल यह उठता है कि जब श्रीलंका सरकार ऐसा कर सकती है, तो भारत सरकार क्यों नहीं कर सकती? भारत में ऐसा इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि कदम-कदम पर राजनीति आड़े आती है। यदि सरकार नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई करती है, तो आदिवासी वोट उनके हाथ से चले जाएंगे, यही धारणा सरकार को विवश कर देती है कुछ न करने के लिए। इधर सरकार को अपने वोट की पड़ी है, उधर निर्दोष मारे जा रहे हैं। सरकार की स्थिति बड़ी विचित्र है। एक तरफ धन की वर्षा करने वाला आईपीएल का तमाशा है, तो दूसरी तरफ नक्सलवादी नेताओं को उड़ा देने की योजना बना रहे हैं। एक तरफ की दुनिया चकाचौंध भरी, दूसरी तरफ की दुनिया एकदम अंधकारमय। भारत निर्माण का सारा श्रेय यूपीए सरकार ले रही है, पर यह कोई बता सकता है कि नक्सलवाद को जन्म किसने दिया, किसकी शह पर ये फले-फूले, किसने इन्हें चलना और गोली चलाना सिखाया? बिना राजनैतिक संरक्षण के इतना बड़ा संगठन कभी इस देश में खड़ा होकर चल भी सकता है, इसका उत्तर किसके पास है?
डॉ. महेश परिमल