डॉ. महेश परिमल
लादेन के मारे जाने के बाद अब लोग प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कुछ ऐसी ही अपेक्षा रख रहे हैं कि उन्हें भी दाऊद इब्राहिम और अजहर मसूद जैसे आतंकवादियों के लिए ओबामा जैसा रास्ता अख्तियार करना चाहिए। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना संभव नहीं दिखता, क्योंकि कोई भी चीज अचानक नहीं होती। उसके पीछे एक लंबी और गहरी सोच होती है। वही सोच मनुष्य, समाज और देश को आगे बढ़ाती है। हमारी लोकता¨त्रक व्यवस्था अचानक कुछ हो जाने पर विश्वास नहीं करती। भले ही हमारे सेनाध्यक्ष यह कहते रहें कि हम भी दाऊद को उसी तरह से पकड़् सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें कभी इजाजत नहीं मिलेगी, यह तय है।
चीन आज कई मामलों में हमसे आगे है। इसके पीछे उसकी सोच है। आगे बढ़ने की प्रवृत्ति है। इसी प्रवृत्ति के अंतर्गत ही उसने आज से डेढ़ हजार साल ऐसी दीवार बनाई, जिससे चंद्रमा से भी देखा जा सकता है। निश्चित रूप से तीन हजार वर्ष पूर्व भी वहाँ ऐसा कुछ हुआ होगा, जिससे उस समय की पीढ़ी ने कुछ सीखा होगा, संकल्प लिया होगा। सब कुछ अचानक नहीं हो जाता। एक व्यक्ति यदि बलवान है, तो उसके पीछे उसकी बरसों की मेहनत और कसरत है। अचानक हासिल होने वाली चीज से कुछ नया होने का सोचा भी नहीं जा सकता। सब कुछ एक ठोस धरातल पर एक विचार की तरह ऊगता है। पुष्पित और पल्लवित होता है। तब कहीं जाकर वह एक विचारवान पेड़ बनता है।
दूसरी ओर हमारे देश ने लोकतांत्रिकता का कम्बल भी ओढ़ रखा है। लोकतंत्र में अपराध तो तेजी से बढ़ सकते हैं, पर उस पर अंकुश धीरे-धीरे ही लगाया जा सकता है। लोकतंत्र कड़े कानून की चाह नहीं रखता। सत्ताधीश इस लोकतंत्र को अपने तरीके से चलाते हैं। जब भी सत्ता बदल होता है, तब संविधान में संशोधन की प्रक्रिया लागू की जाती है। संशोधन होते ही इसलिए हैं कि जनप्रतिनिधियों को अधिक से अधिक कानून के दायरे से बाहर रखा जाए। अभी तक देश में जितने भी भ्रष्टाचार हुए हैं, सबमें जनप्रतिनिधियों का हाथ रहा है, पर आज तक किसी भी जनप्रतिनिधि को कुछ नहीं हुआ। भारतीय पाठक यह शायद ही कभी पढ़ पाएगा कि भ्रष्टाचार के मामले में अमुक मंत्री की सम्पत्ति राजसात हुई। यह संभव ही नहीं है। एक तरह से सरकार ही इस प्रवृत्ति को संरक्षण दे रही है।
ऐसी बात नहीं है कि हमारे देश में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसे रेखांकित किया जा सके। महाराणा प्रताप, शिवाजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाषचंद्र बोस आदि ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने अपने तेवर से देश के नौजवानों के लिए एक इबारत लिखी। उनके वचनों में ओज था, जोश था। आज ऐसी ओजस्वी वाणी सुनने को ही नहीं मिलती। अन्ना हजारे जैसी वाणी यदि सुनने को मिल जाए, तो उसे दबाने के लिए कई शक्तियाँ एक साथ काम करने लगती हैं। ईमानदार हर जगह मारा ही जाता है। फजीहत हमेशा आम आदमी की ही होती है। इसे आम आदमी को ध्यान में रखकर चुनाव के समीकरण तैयार होते हैं। चुनाव के बाद यही आम आदमी सत्ताधीशों से दूर हो जाता है। सत्ताधीशों को आम आदमी की तकलीफों से कोई लेना-देना नहीं होता। हाँ सत्ता प्राप्त करने के लिए इसी आम आदमी की जी-हुजूरी उन्हें पसंद है। क्योंकि यह एक नाटक होता है, उनका वोट पाने के लिए। उसके बाद तो आम आदमी को न पहचानना उनकी विवशता बन जाती है। सत्ता का नशा बहुत ही मादक होता है। इसे छोड़ना मुश्किल है। इसीलिए सत्ताधीश कभी रिटायर नहीं होते। हाँ वे यह अवश्य तय करते हैं कि सरकारी कर्मचारी को कितने वर्ष में रिटायर होना चाहिए। खुद 70-80 के हैं, रिटायर होना नहीं चाहते, पर सरकारी कर्मचारी के लिए कानून बनाएँगे कि वे कितने साल में रिटायर हों। ये तो हमारे देश का हाल है। इन हालात में किसी बड़ी क्रांति की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। सब कुछ अपनी चाल से चलता रहता है।
इस देश में जब तक आम आदमी का प्रतिनिधि वीआईपी है, तब तक देश की दशा और दिशा सुधरने वाली नहीं है। बरसों से छला जा रहा है यह आम आदमी। सरकार इन प्रतिनिधियों पर करोड़ों खर्च करती है, तब कहीं जाकर आम आदमी के लिए हजारों बच पाते हैं। इसी आम आदमी में यह ताकत है कि वह अपने किसी साथी को खास बनाए। साथी तो खास बन जाता है, पर आम हमेशा आम ही रहता है। आश्चर्य इस बात का है कि खास कभी आम नहीं होना चाहता। खास बने रहने के लिए वह ऐसे तमाम उपक्रम करता है, जिससे उसकी छवि बिगड़ती है। पर उसे इसकी परवाह नहीं रहती। ऐसे लोगों की संतान भी अपने को खास मानती है। उनसे भी किसी नई क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। आज देश में आम आदमी के लिए बनने वाली योजनाएँ उन खास लोगों की सुविधाओं से कहीं छोटी होती हैं। खास लोगों की सुरक्षा में हर वर्ष जितना खर्च होता है, उतना तो आम लोगों की कई योजनाओं को भरपूर धन मिल जाए। इन खास लोगों की हरकतें बताती हैं कि राजनीति में लोग सेवा करने नहीं, बल्कि सरकार से सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए आते हैं। आम और खास के बीच की इस खाई को जब तक नहीं पाटा जाएगा, तब तक देश में यह ताकत नहीं आएगी कि वह अमेरिका जैसी पहल कर सके।
डॉ. महेश परिमल