डॉ. महेश परिमल
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बहुत ही अधिक क्रियाशील होते हैं। अपने काम में महारत हासिल करते हैं। पर कुछ बयानों एवं पहनावे के कारण इतने अधिक चर्चित हो जाते हैं कि उनकी क्रियाशीलता दिखाई नहीं देती। ऐसे लोगों का नाम लेते ही जेहन पर पहले उनके बयान आदि सामने आते हैं, उसके बाद उनकी क्रियाशीलता। कई बार उनकी क्रियाशीलता इतने पीछे हो जाती है कि लोग उन्हें उनकी क्रियाशीलता से पहचानना ही बंद कर देते हैं। कुछ यही हाल तेजस्वी फिल्मकार रितुपर्णो घोष के साथ भी हुआ। उन्होंने कई फिल्मों में अपनी क्रियाशीलता का परिचय दिया। उनकी क्रियाशीलता के कारण उनकी देश-विदेश में पहचान बनी। जिसकी झोली में 12 राष्ट्रीय पुरस्कार हों, उसे हम भारतीय सिनेमा का वरदान ही मानेंगे। यह सच है कि कलात्मक फिल् ों का सर्जक आज हमारे बीच नहीं है। लेकिन अपनी फिल्मों को लेकर वे हमेशा हमारे बीच रहेंगे और प्रेरित करते रहेंगे। रितुपर्णो उन लोगों में से थे, जो फिल्मों को अपने भीतर महसूस करते थे। फिल्में उनके भीतर उगती थी, जिसे वे पूरी शिद्दत के साथ महसूस करते और परदे पर उतारते थे। सिनेमा से इतने गहरे तक जुड़ा कलाकार आज अपना स्थान खाली छोड़ गया है। जिसे भरना मुश्किल है। एक हद तक उन्होंने सत्यजीत राय की कमी को पूरा करने की कोशिश की, पर अब उनकी कमी को कौन पूरी करेगा, यह प्रश्न स्वाभाविक है।
कर्द लोग हमेशा पुरानी चीजों को ही अच्छा बताते हैं। नई चीजों की ओर वे देखना ही नहीं चाहते। वे तो अभी तक यही मान रहे थे कि सत्यजीत राय के बाद उन जैसा निर्देशक भारत की भूमि पर आया ही नहीं। उनकी नजर रितुपर्णो की तरफ गई ही नहीं। आज जब वे हमारे बीच नहीं है, तब लग रहा है कि सचमुच उन्होंने सत्यजीत राय की जगह संभाल ली थी। पर अब क्या होता है यह कहने से। समय रहते ही उन्हें पहचान लिया होता, तो शायद वे कुछ और फिल्में हमें दे जाते। अपने बीस वर्ष के कैरियर में उन्होंने करीब 20 फिल्में बनाई। श्रेष्ठ निर्देशन के लिए 8 पुरस्कार और श्रेष्ठ दिग्दर्शन के लिए 3 और श्रेष्ठ कथा के लिए एक पुरस्कार उन्हें मिला। बंगला-हिंदी सिनेमा को उन्होंने नया आयाम दिया। दृश्यावलि की रचना से लेकर कैमरे के फ्रेम के किसी कोने में कहीं दूर नल से टपकते पानी की आवाज को वे एक पात्र की तरह अपनी फिल्मों में प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने बंगला में जो फिल्में बनाई हैं, वे भाषा के कारण हम तक नहीं पहुंच पाई हो, पर इतना तो तय है कि चोखेर बाली और रेनकोट को हम सबने देखा और सराहा। इन दो फिल्मों का एक-एक दृश्य आज भी हमें भावनाओं से भर देते हैं। कई जगह तो ऐसा लगा कि वे फिल्म नहीं बल्कि कविता पढ़ रहे हों। अजय देवगन ने स्वीकारा कि मुझसे इतना बढ़िया अभिनय केवल रितुपर्णो घोष ही करवा सकते थे। रेनकोट देखकर तो मुझे भी ताज्जुब होता है।
रितुपर्णो पुरुष थे या नारी? नाम तो नारी का लगता है। उनका पहनावा भी आम महिलाओं जैसा ही रहता था। सच क्या है? इन सबका जवाब आज की पीढ़ी को देने की कतई आवश्यकता नहीं है। उनके लिए तो यही कहा जा सकता है कि रितुपर्णो ारतीय सिनेमा को मिले किसी वरदान से कम नहीं थे। रितुपर्णो यूं तो अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे। पर भीतर का कवि उन्हें कभी चैन से बैठने नहीं देता। दिल को हिला देने वाली कविताएं पढ़कर यही लगता है कि यदि उन्होंने केवल कविताएं ही लिखी होती, तो वे साहित्य के क्षेत्र में बहुत ही आगे होते। कविता की तरह फिल्मों से उनका गहरा लगाव था। अपने प्रारंभिक दिनों में उन्होंने कॉलेज में पढ़ते हुए एक फिल्म बनाई। जब फिल्म का प्रदर्शन कॉलेज में हुआ, तो वहां असम के कवि और संगीतकार भूपेन हजारिका मु य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। फिल्म खतम हुई, तो उन्होंने फिल्म के डायरेक्टर से मिलने की इच्छा जताई। इसके बाद उनकेसामने जो व्यक्ति आया, उसे देखकर भूपेन दा हतप्रभ रह गए। वे निर्निमेष उन्हें देखते रहे। आनंद बाजार पत्रिका के सित बर 2008 के अंक में रितुपर्णो ने अपने इस अनुभव के बारे में लिखा है कि हालांकि उस ममय भी मैं उतना ही बोल्ड था, पर तब तक मैंने महिलाओं का पहनावा छोड़ा नहीं था।
भूपेन दा से हुई अपनी इस मुलाकात के बाद रितुपर्णो के भावविश्व को फिल्मों की उड़ान मिली। भूपेन दा के कहने पर उन्होंने महिला निर्देशक कल्पना लाजमी की वर्कशॉप में कुछ समय तक काम किया। एक बार आधी रात को रितुपर्णो ने कल्पना लाजमी को फोन किया और कहा-‘ए फिल्म राहजिंग विदीन’ यानी मेरे भीतर एक फिल्म ऊग रही है। मेरे भीतर एक आंधी चल रही है। ऐसा लग रहा है, जैसे मेरे भीतर एक फिल्म का उदय हो रहा है, जिसे मैं महसूस कर रहा हूं। एक सच्चे कलाकार के साथ ऐसा ही होता है, जब वह अपनी फिल्म के लिए पूरी तरह से डूब जाता है। वह फिल्म की धड़कन को अपने भीतर महसूस करता है। उसके रोम-रोम में फिल्म बस गई थी। कल्पना लाजमी को लग गया था कि यह आदमी अब फिल्म बनाए बिना कुछ नहीं करेगा। फिल्म तो वह बनाएगा ही। पर कैसे? यह प्रश्न विचारणीय था। तब भूपेन दा और कल्पना लाजमी ने कुछ आíथक सहायता की। फिल्म बनी, जिसका नाम था हीरेर आंग्टि यानी हीरे की अंगूठी। अपनी इस पहली ही फिल्म में उन्होंने कैमरा वर्क से लेकर निर्देशन में अपनी मौलिक भाषा का स्पर्श दिया। उनका यह विचार था कि मेरी फिल्म में पात्र कम बोलें, पर बैकग्राउंड स्कोर अवश्य अधिक हों। इसलिए उनकी फिल्मों में बैकग्राउंड की ध्वनि भी कुछ न कुछ कहती दिखाई देती है। आंगिक अभिनय उनकी फिल्मों की विशेषता रही है। जब रितुपर्णो ने कल्पना जी को फोन किया, तो उनके भीतर दो फिल्में उमड़-घुमड़ रही थी। जिस फिल्म पर वे ज्यादा जोर दे रहे थे, उसका विषय बहुत ही गुम्फित था। इसलिए पहली फिल्म करने के बाद दूसरी फिल्म में रितुपर्णो ने अपने कुछ हाथ आजमाए। दूसरी फिल्म उनके मनपसंद विषय पर थी। इस फिल्म का विषय था कला के प्रति गहरे लगावा के कारण पारिवारिक जिंदगी के साथ तालमेल न कर पाने वाली एक अकेली नारी और उसका अकेलापन। बेटी के साथ संघर्ष और कला के प्रति अपार समर्पण। इस तरह के विषय के साथ यदि वे बॉलीवुड में आते, तो उन्हें तुरंत ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया होता। उनकी मनपसंद विषय पर यह फिल्म थी-19 अप्रैल। एकदम ही मौलिक फिल्म। इसी ने रितुपर्णो को पहला राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाया। इससे उनकी पहचान भी कायम हुई।
रितुपर्णो की हर फिल्म में विषयों का अद्भुत वैविध्य रहा है। तीसरी फिल्म दहन सड़क पर हुए एक हादसे पर एक महिला के संघर्ष पर केंद्रित है। चौथी फिल्म शादी के दूसरे ही दिन पति को खोने वाली महिला के संघर्ष को लेकर है। पांचवीं फिल्म बेटी की कमाई पर जीते एक संवेदनशील कलाकार पर केंद्रित है। ये सभी फिल्में रितुपर्णो को राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाती रहीं। आज क्षेत्रीय फिल्मों की जो स्थिति है, उससे ऐसा नहीं लगता कि कोई ऐसी फिल्में बनाए और लगातार राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करता रहे। फिल्मों से गहरा जुड़ाव और उनकी सूझबूझ ही उनकी फिल्मों की विशेषता रही है। जो उन्हें अव्वल दर्जे का निर्देशक साबित करती है। उनकी फिल्मों में मानवीय संवेदना विशेषकर नारी पात्र को बहुत ही कलात्मक और सुंदर रूप में प्रस्तुत किया गया है। फिर बारीवाली की किरण खेर हो या अबोहमन की ममता शंकर हो, चोखेरबाली एवं रेनकोट की ऐश्वर्या राय हो, सभी में नारी पात्र सरल एवं संवेदनशील के अलावा आक्रामक रूप से हमारे सामने आती हैं। कला सौंदर्य से लेकर संवेदनशील कलम से रितुपर्णो ने नारी पात्र को इतने सहज ढंग से प्रस्तुत किया है कि एक एक पात्र का एक-एक आलेख के रूप में वर्णन किया जा सकता है। उनकी फिल्मों में नारी का प्रचुर मानवीय भाव हमेशा छलकता रहा है।
ओ. हेनरी की लोकप्रिय कहानी गिफ्ट ऑफ मेगी पर आधारित हिंदी फिल्म रेनकोट में अजय देवगन और ऐश्वर्या राय से रितुपर्णो ने जो अभिनय कराया है, उससे उनके अभिनय करा ले जाने की क्षमता का पता चलता है। दोनों का अभिनय देखकर लोग वाह-वाह कर उठे। यह सच है कि रेनकोट की कहानी से हर कोई वाकिफ था। अब क्या होगा, यह सभी को पता था। पर घटना किस तरह से घटित होगी, यह उत्कंठा आखिर तक बनी रही। एक-एक दृश्य के बाद यही लगता है कि अगला दृश्य कितना संवेदनशील होगा। सभी दृश्य हृदयस्पर्शी हैं। एक एक फ्रेम कसी हुई। संवेदनाओं से भरपूर। ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि घटना की जानकारी सभी को है, पर घटना किस तरह से घटित होगी, यह जिज्ञासा ही दर्शकों को बांधे रखती है।
समलैंगिकता पर अपने विचार के कारण चर्चित रितुपर्णो इतने अधिक राष्ट्रीय पुरस्कारों को प्राप्त करने के बाद लोकप्रियता के जिस मुकाम पर उन्हें होना था, वहां तक नहीं पहुंच पाए। उनकी कदर उतनी नहीं हो पाई, जिसके वे वास्तव में हकदार थे। अभी उनकी उम्र की क्या थी। मात्र 49 वर्ष। यह भी भला कोई उम्र होती है बिदा लेने की। पर क्या करें, वे चले गए अपनी कुछ फिल्मों को छोड़कर। एक कलाकार को जो पहचान अपनी फिल्मों से मिलती है, वैसी ही फिल्मों को हमारे बीच छोड़कर वे चिरंजीवी हो गए। आप जब भी उनकी फिल्मों को देखेंगे, तो ऐसा नहीं लगेगा कि वे हमारे बीच नहीं हैं, क्योंकि उनकी फिल्में हमसे बात करती रहेंगी। उन्हें समझने के लिए उनकी फिल्में देखना और उसे समझने के अलावा उसमें डूबना होगा, तभी हम समझ पाएंगे कि रितुपर्णो कैसे निर्देशक थे, उनके विचार किस तरह से कलाकारों के भीतर से आते थे। जो अपनी देह पर फिल्म को ऊगता महसूस करे, उससे बड़ा कलाकार और कौन हो सकता है भला?
डॉ. महेश परिमल
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बहुत ही अधिक क्रियाशील होते हैं। अपने काम में महारत हासिल करते हैं। पर कुछ बयानों एवं पहनावे के कारण इतने अधिक चर्चित हो जाते हैं कि उनकी क्रियाशीलता दिखाई नहीं देती। ऐसे लोगों का नाम लेते ही जेहन पर पहले उनके बयान आदि सामने आते हैं, उसके बाद उनकी क्रियाशीलता। कई बार उनकी क्रियाशीलता इतने पीछे हो जाती है कि लोग उन्हें उनकी क्रियाशीलता से पहचानना ही बंद कर देते हैं। कुछ यही हाल तेजस्वी फिल्मकार रितुपर्णो घोष के साथ भी हुआ। उन्होंने कई फिल्मों में अपनी क्रियाशीलता का परिचय दिया। उनकी क्रियाशीलता के कारण उनकी देश-विदेश में पहचान बनी। जिसकी झोली में 12 राष्ट्रीय पुरस्कार हों, उसे हम भारतीय सिनेमा का वरदान ही मानेंगे। यह सच है कि कलात्मक फिल् ों का सर्जक आज हमारे बीच नहीं है। लेकिन अपनी फिल्मों को लेकर वे हमेशा हमारे बीच रहेंगे और प्रेरित करते रहेंगे। रितुपर्णो उन लोगों में से थे, जो फिल्मों को अपने भीतर महसूस करते थे। फिल्में उनके भीतर उगती थी, जिसे वे पूरी शिद्दत के साथ महसूस करते और परदे पर उतारते थे। सिनेमा से इतने गहरे तक जुड़ा कलाकार आज अपना स्थान खाली छोड़ गया है। जिसे भरना मुश्किल है। एक हद तक उन्होंने सत्यजीत राय की कमी को पूरा करने की कोशिश की, पर अब उनकी कमी को कौन पूरी करेगा, यह प्रश्न स्वाभाविक है।
कर्द लोग हमेशा पुरानी चीजों को ही अच्छा बताते हैं। नई चीजों की ओर वे देखना ही नहीं चाहते। वे तो अभी तक यही मान रहे थे कि सत्यजीत राय के बाद उन जैसा निर्देशक भारत की भूमि पर आया ही नहीं। उनकी नजर रितुपर्णो की तरफ गई ही नहीं। आज जब वे हमारे बीच नहीं है, तब लग रहा है कि सचमुच उन्होंने सत्यजीत राय की जगह संभाल ली थी। पर अब क्या होता है यह कहने से। समय रहते ही उन्हें पहचान लिया होता, तो शायद वे कुछ और फिल्में हमें दे जाते। अपने बीस वर्ष के कैरियर में उन्होंने करीब 20 फिल्में बनाई। श्रेष्ठ निर्देशन के लिए 8 पुरस्कार और श्रेष्ठ दिग्दर्शन के लिए 3 और श्रेष्ठ कथा के लिए एक पुरस्कार उन्हें मिला। बंगला-हिंदी सिनेमा को उन्होंने नया आयाम दिया। दृश्यावलि की रचना से लेकर कैमरे के फ्रेम के किसी कोने में कहीं दूर नल से टपकते पानी की आवाज को वे एक पात्र की तरह अपनी फिल्मों में प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने बंगला में जो फिल्में बनाई हैं, वे भाषा के कारण हम तक नहीं पहुंच पाई हो, पर इतना तो तय है कि चोखेर बाली और रेनकोट को हम सबने देखा और सराहा। इन दो फिल्मों का एक-एक दृश्य आज भी हमें भावनाओं से भर देते हैं। कई जगह तो ऐसा लगा कि वे फिल्म नहीं बल्कि कविता पढ़ रहे हों। अजय देवगन ने स्वीकारा कि मुझसे इतना बढ़िया अभिनय केवल रितुपर्णो घोष ही करवा सकते थे। रेनकोट देखकर तो मुझे भी ताज्जुब होता है।
रितुपर्णो पुरुष थे या नारी? नाम तो नारी का लगता है। उनका पहनावा भी आम महिलाओं जैसा ही रहता था। सच क्या है? इन सबका जवाब आज की पीढ़ी को देने की कतई आवश्यकता नहीं है। उनके लिए तो यही कहा जा सकता है कि रितुपर्णो ारतीय सिनेमा को मिले किसी वरदान से कम नहीं थे। रितुपर्णो यूं तो अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे। पर भीतर का कवि उन्हें कभी चैन से बैठने नहीं देता। दिल को हिला देने वाली कविताएं पढ़कर यही लगता है कि यदि उन्होंने केवल कविताएं ही लिखी होती, तो वे साहित्य के क्षेत्र में बहुत ही आगे होते। कविता की तरह फिल्मों से उनका गहरा लगाव था। अपने प्रारंभिक दिनों में उन्होंने कॉलेज में पढ़ते हुए एक फिल्म बनाई। जब फिल्म का प्रदर्शन कॉलेज में हुआ, तो वहां असम के कवि और संगीतकार भूपेन हजारिका मु य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। फिल्म खतम हुई, तो उन्होंने फिल्म के डायरेक्टर से मिलने की इच्छा जताई। इसके बाद उनकेसामने जो व्यक्ति आया, उसे देखकर भूपेन दा हतप्रभ रह गए। वे निर्निमेष उन्हें देखते रहे। आनंद बाजार पत्रिका के सित बर 2008 के अंक में रितुपर्णो ने अपने इस अनुभव के बारे में लिखा है कि हालांकि उस ममय भी मैं उतना ही बोल्ड था, पर तब तक मैंने महिलाओं का पहनावा छोड़ा नहीं था।
भूपेन दा से हुई अपनी इस मुलाकात के बाद रितुपर्णो के भावविश्व को फिल्मों की उड़ान मिली। भूपेन दा के कहने पर उन्होंने महिला निर्देशक कल्पना लाजमी की वर्कशॉप में कुछ समय तक काम किया। एक बार आधी रात को रितुपर्णो ने कल्पना लाजमी को फोन किया और कहा-‘ए फिल्म राहजिंग विदीन’ यानी मेरे भीतर एक फिल्म ऊग रही है। मेरे भीतर एक आंधी चल रही है। ऐसा लग रहा है, जैसे मेरे भीतर एक फिल्म का उदय हो रहा है, जिसे मैं महसूस कर रहा हूं। एक सच्चे कलाकार के साथ ऐसा ही होता है, जब वह अपनी फिल्म के लिए पूरी तरह से डूब जाता है। वह फिल्म की धड़कन को अपने भीतर महसूस करता है। उसके रोम-रोम में फिल्म बस गई थी। कल्पना लाजमी को लग गया था कि यह आदमी अब फिल्म बनाए बिना कुछ नहीं करेगा। फिल्म तो वह बनाएगा ही। पर कैसे? यह प्रश्न विचारणीय था। तब भूपेन दा और कल्पना लाजमी ने कुछ आíथक सहायता की। फिल्म बनी, जिसका नाम था हीरेर आंग्टि यानी हीरे की अंगूठी। अपनी इस पहली ही फिल्म में उन्होंने कैमरा वर्क से लेकर निर्देशन में अपनी मौलिक भाषा का स्पर्श दिया। उनका यह विचार था कि मेरी फिल्म में पात्र कम बोलें, पर बैकग्राउंड स्कोर अवश्य अधिक हों। इसलिए उनकी फिल्मों में बैकग्राउंड की ध्वनि भी कुछ न कुछ कहती दिखाई देती है। आंगिक अभिनय उनकी फिल्मों की विशेषता रही है। जब रितुपर्णो ने कल्पना जी को फोन किया, तो उनके भीतर दो फिल्में उमड़-घुमड़ रही थी। जिस फिल्म पर वे ज्यादा जोर दे रहे थे, उसका विषय बहुत ही गुम्फित था। इसलिए पहली फिल्म करने के बाद दूसरी फिल्म में रितुपर्णो ने अपने कुछ हाथ आजमाए। दूसरी फिल्म उनके मनपसंद विषय पर थी। इस फिल्म का विषय था कला के प्रति गहरे लगावा के कारण पारिवारिक जिंदगी के साथ तालमेल न कर पाने वाली एक अकेली नारी और उसका अकेलापन। बेटी के साथ संघर्ष और कला के प्रति अपार समर्पण। इस तरह के विषय के साथ यदि वे बॉलीवुड में आते, तो उन्हें तुरंत ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया होता। उनकी मनपसंद विषय पर यह फिल्म थी-19 अप्रैल। एकदम ही मौलिक फिल्म। इसी ने रितुपर्णो को पहला राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाया। इससे उनकी पहचान भी कायम हुई।
रितुपर्णो की हर फिल्म में विषयों का अद्भुत वैविध्य रहा है। तीसरी फिल्म दहन सड़क पर हुए एक हादसे पर एक महिला के संघर्ष पर केंद्रित है। चौथी फिल्म शादी के दूसरे ही दिन पति को खोने वाली महिला के संघर्ष को लेकर है। पांचवीं फिल्म बेटी की कमाई पर जीते एक संवेदनशील कलाकार पर केंद्रित है। ये सभी फिल्में रितुपर्णो को राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाती रहीं। आज क्षेत्रीय फिल्मों की जो स्थिति है, उससे ऐसा नहीं लगता कि कोई ऐसी फिल्में बनाए और लगातार राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करता रहे। फिल्मों से गहरा जुड़ाव और उनकी सूझबूझ ही उनकी फिल्मों की विशेषता रही है। जो उन्हें अव्वल दर्जे का निर्देशक साबित करती है। उनकी फिल्मों में मानवीय संवेदना विशेषकर नारी पात्र को बहुत ही कलात्मक और सुंदर रूप में प्रस्तुत किया गया है। फिर बारीवाली की किरण खेर हो या अबोहमन की ममता शंकर हो, चोखेरबाली एवं रेनकोट की ऐश्वर्या राय हो, सभी में नारी पात्र सरल एवं संवेदनशील के अलावा आक्रामक रूप से हमारे सामने आती हैं। कला सौंदर्य से लेकर संवेदनशील कलम से रितुपर्णो ने नारी पात्र को इतने सहज ढंग से प्रस्तुत किया है कि एक एक पात्र का एक-एक आलेख के रूप में वर्णन किया जा सकता है। उनकी फिल्मों में नारी का प्रचुर मानवीय भाव हमेशा छलकता रहा है।
ओ. हेनरी की लोकप्रिय कहानी गिफ्ट ऑफ मेगी पर आधारित हिंदी फिल्म रेनकोट में अजय देवगन और ऐश्वर्या राय से रितुपर्णो ने जो अभिनय कराया है, उससे उनके अभिनय करा ले जाने की क्षमता का पता चलता है। दोनों का अभिनय देखकर लोग वाह-वाह कर उठे। यह सच है कि रेनकोट की कहानी से हर कोई वाकिफ था। अब क्या होगा, यह सभी को पता था। पर घटना किस तरह से घटित होगी, यह उत्कंठा आखिर तक बनी रही। एक-एक दृश्य के बाद यही लगता है कि अगला दृश्य कितना संवेदनशील होगा। सभी दृश्य हृदयस्पर्शी हैं। एक एक फ्रेम कसी हुई। संवेदनाओं से भरपूर। ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि घटना की जानकारी सभी को है, पर घटना किस तरह से घटित होगी, यह जिज्ञासा ही दर्शकों को बांधे रखती है।
समलैंगिकता पर अपने विचार के कारण चर्चित रितुपर्णो इतने अधिक राष्ट्रीय पुरस्कारों को प्राप्त करने के बाद लोकप्रियता के जिस मुकाम पर उन्हें होना था, वहां तक नहीं पहुंच पाए। उनकी कदर उतनी नहीं हो पाई, जिसके वे वास्तव में हकदार थे। अभी उनकी उम्र की क्या थी। मात्र 49 वर्ष। यह भी भला कोई उम्र होती है बिदा लेने की। पर क्या करें, वे चले गए अपनी कुछ फिल्मों को छोड़कर। एक कलाकार को जो पहचान अपनी फिल्मों से मिलती है, वैसी ही फिल्मों को हमारे बीच छोड़कर वे चिरंजीवी हो गए। आप जब भी उनकी फिल्मों को देखेंगे, तो ऐसा नहीं लगेगा कि वे हमारे बीच नहीं हैं, क्योंकि उनकी फिल्में हमसे बात करती रहेंगी। उन्हें समझने के लिए उनकी फिल्में देखना और उसे समझने के अलावा उसमें डूबना होगा, तभी हम समझ पाएंगे कि रितुपर्णो कैसे निर्देशक थे, उनके विचार किस तरह से कलाकारों के भीतर से आते थे। जो अपनी देह पर फिल्म को ऊगता महसूस करे, उससे बड़ा कलाकार और कौन हो सकता है भला?
डॉ. महेश परिमल