इस हमले से हमने आखिर क्या सीखा?
डॉ. महेश परिमल
मुम्बई नहीं यह देश पर हमला है। ऐसा कहने वाले आज हमारे बीच कई लोग हैं। अब तो रोज ही हमारी नाकामियों की खबरें पढ़ने को मिल रही हैं। कोई कहता है 'हाँ हमसे चूक हुई', तो कोई कहता है कि कमांडो भेजने में दो घंटे की देर हमारी अफसरशाही के कारण हुई। उधर तुकाराम आम्बोले ने हिम्मत दिखाकर आतंकवादी के ए के 47 की नाल ही पकड़कर अपने साथियों को बचा लिया, आज वही एकमात्र आतंकवादी जीवित आतंकवादी बचा है। दूसरी ओर पुलिस के उच्च अधिकारी हेमंत करकरे, विजय सालस्कर आदि शहीद हो गए। देखा जाए, तो इन सबको हमारी नाकामियों ने ही शहीद बनाया है।
कुछ समय पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर मुशीरुल हसन ने यह कहा था कि इतने वर्षों बाद भी क्या हमें देशप्रेम का सुबूत देना होगा? यह बात तब कही गई, जब दिल्ली के जामिया नगर के बटला हाउस एनकाउंटर में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों का हाथ होने की जानकारी मिली थी। जब ये विद्यार्थी पकड़े गए, तब इनका मुकदमा लड़ने का खर्च यूनिवर्सिटी करेगी, ऐसा श्री हसन ने कहा था। इसकी काफी आलोचना हुई थी। उसी समय एक ऍंगरेजी दैनिक को दिए एक साक्षात्कार में मुशीरुल हसन ने कहा था कि क्या इतने वर्षों बाद हमें अपने देशप्रेम का सुबूत देना होगा?
उनके इस सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि हाँ जनाब, आप अपने सीने पर हाथ रखकर खुदा को हाजिर-नाजिर मानकर यह कह दें कि मुम्बई पर हमले में आतंकवादियों की सहायता करने वाला स्थानीय नागरिक नहीं था। लानत है ऐसे गद्दारों पर, जो इस देश की माटी में जन्म लेकर उसी माटी के साथ गद्दारी कर रहे हैं। यह गददारी देश की माटी के साथ नहीं, बल्कि अपनी माँ के दूध के साथ कर रहे हैं। माँ के दूध को उन्होंने लजाया है। दुश्मन देश के आतंकवादियों से मिलकर उन्होंने बेगुनाहों के खून से होली खेली है, इससे यदि उन्हें जन्नत भी नसीब होती है, तो हम सब थूकते हैं, उस जन्नत पर। ऐसी जन्नत उन्हें और खून के प्यासे लोगों को ही मुबारक।
देश की आर्थिक राजधानी पर हुए आतंकवादी हमले से हमें बहुत कुछ सीखना है। सबसे पहले तो यही कि देश की सीमा खुली पड़ी है। विशेषकर समुद्री सीमा। गुजरात की 1600 किलोमीटर लम्बी समुद्री सीमा की हालत तो बहुत ही खराब है। इस समुद्री तट पर यदि बड़ी मात्रा में व्यापार हो रहा है, तो दूसरी तरफ आतंकवादियों की घुसपैठ की संभावना भी प्रबल है। इसे हमें नहीं भूलना चाहिए।
अभी मुम्बई के जिस स्थान पर आतंकवादी हमला हुआ, उसके आसपास भारतीय सेना की वेस्टर्न कमांड की बड़ी यूनिट है। वहीं पर भारतीय नौका दल का बहुत बड़ा अड्डा है। सेना का गुप्तचर विभाग, कोस्ट गार्ड, देश के केंद्रीय गुप्तचर विभाग, रॉ और सीबीआई, इन सभी का पानी एक झटके में आतंकवादियों ने उतार दिया। मुम्बई पुलिस और सीबीआई तो पूरी तरह से निष्फल ही साबित हुई है। इसका पूरा खामियाजा भी भुगतना पड़ा, हेमंत करकरे और विजय सालस्कर जैसे जाँबाज अफसरों को खोकर। मुम्बई पुलिस ने मछुआरों की बात पर भरोसा न कर अपना पुलिसियापन दिखा ही दिया। एक साधारण सा नागरिक भी यदि पुलिस में किसी प्रकार की शिकायत करता है, तो इसे गंभीरता से लेना चाहिए। पुलिस इस बात को कभी नहीं भूले, तो कुछ बेहतर की गुंजाइश हो सकती है।
यहाँ एक और बात समझने लायक है, वह यह कि विदेशी धरती पर दो-चार महीने प्रशिक्षण लेकर मुम्बई में पूरे 72 घंटे तक आतंक मचाकर सवा करोड़ की आबादी को बुरी तरह से भयभीत कर दिया, इसे निपटने में आतंकवाद को जड़ से खतम करने का संकल्प करने वाली हमारी सरकार बुरी तरह से विफल साबित हुई है। एक वोट बैंक की खातिर एक वर्ग विशेष को अल्पसंख्यक आखिर कब तक माना जाएगा? एक तरफ यह वर्ग सरकार की तरफ से अधिक से अधिक सुविधाएँ प्राप्त कर रहा है, दूसरी तरफ इसी वर्ग का एक बहुत ही छोटा या कह लें बड़ा भाग दुश्मन देश से मिलकर हमारी ही पीठ पर छुरा घोंप रहा है। ऐसा आखिर कब तक सहन किया जा सकता है?
इतने दिन हो गए, क्या अभी तक हमने अंतरराष्ट्रीय स्तर के किसी मुस्लिम नेता, उद्योगपति या शिक्षाशास्त्री ने इस आतंकवाद का खुलकर विरोध किया है? क्यों इसके लिए सीधे पाकिस्तान पर आरोप नहीं लगाया जाता? क्या ये सब आतंकवादियों से डर रहे हैं? याद रखें, ऐसे हमले का विरोध न कर चुपचाप रहना यानी आतंकवाद को अपनी मौन सहमति देना है।
अंतिम बात यही कही जा सकती है कि हिंदू यदि स्वयं ही संगठित हो जाएँ, तो कोई ताकत ऐसी नहीं है, जो उनकी आत्मा पर इस तरह के हमले कर सके। आज जो तमाम हिंदू संगठन आपके सामने दिखाई दे रहे हैं, ये सब आपत्ति के समय दुम दबाकर भाग जाएँगे। तमाम नेता, पार्टी और परिषद कुछ भी काम नहीं आने वाली। आज हम कई मोर्चे पर मार खा रहे हैं, क्योंकि हममें एकता नहीं है। इस एकता पर एक ऐतिहासिक घटना याद आ रही है, जो आज की कथित एकता पर एक सवालिया निशान छोड़ती है:5
हुआ यूँ कि भूतकाल में एक बादशाह ने भारत पर आक्रमण किया। उन दिनों सूर्योदय से सूर्यास्त तक लड़ाई चलती थी। उसके बाद घायलों की सेवा और आराम होता था, उसके बाद सुबह तक आराम। लड़ाई की पहली शाम को एक ऊँचे टीले पर बादशाह ने भारतीयों के शिविर की ओर देखा, वहाँ पर जगह-जगह आग जल रही थी। बादशाह ने अपने खबरची से पूछा-ये क्या हो रहा है? तब खबरची ने बताया कि ये सब अपना-अपना खाना पका रहे हैं। बादशाह को आश्चर्य हुआ। ये सब अपना खाना अलग-अलग क्यों पका रहे हैं? बादशाह सलामत-खबरची ने कहा- ये सब हिंदू हैं, ये एक-दूसरे का पकाया खाना नहीं खाते। बाह्मण की रसोई अलग, क्षत्रिय की रसोई अलग, शूद्र और वैश्य की रसोई अलग होती है। बादशाह ने तुरंत ने अपने सेनापति को बुलाकर कहा कि हमारे आधे सैनिक वापस भेज दो। जो कौम एक साथ खाना नहीं खा सकती, वह एक साथ युध्द कैसे कर सकती है? इन्हें जीतना बहुत ही आसान है।
हम इसीलिए लगातार मार खा रहे हैं। या तो संगठित होकर आतंकवाद का मुकाबला करो, या फिर मार खाओ और मुम्बई जैसी आतंकवाद की घटना को झेलकर विश्व में हँसी का पात्र बनो। हमारे ही धन से ब्लेक कमांडो से घिरे हुए बेशर्म और नपुंसक नेता जब स्वयं की रक्षा नहीं कर सकते, वे हमारी रक्षा भला क्या करेंगे? अब समय आ गया है कि कुछ ऐसा किया जाए, जिसमें हमारी एकता भी कायम रहे और हमारी जातिगत सुरक्षा भी अपनी पहचान बना सके। अब किसी पर विश्वास करने के बजाए अपने हाथों पर विश्वास करने के दिन आ गए हैं।
डॉ. महेश परिमल
डॉ. महेश परिमल
मुम्बई नहीं यह देश पर हमला है। ऐसा कहने वाले आज हमारे बीच कई लोग हैं। अब तो रोज ही हमारी नाकामियों की खबरें पढ़ने को मिल रही हैं। कोई कहता है 'हाँ हमसे चूक हुई', तो कोई कहता है कि कमांडो भेजने में दो घंटे की देर हमारी अफसरशाही के कारण हुई। उधर तुकाराम आम्बोले ने हिम्मत दिखाकर आतंकवादी के ए के 47 की नाल ही पकड़कर अपने साथियों को बचा लिया, आज वही एकमात्र आतंकवादी जीवित आतंकवादी बचा है। दूसरी ओर पुलिस के उच्च अधिकारी हेमंत करकरे, विजय सालस्कर आदि शहीद हो गए। देखा जाए, तो इन सबको हमारी नाकामियों ने ही शहीद बनाया है।
कुछ समय पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर मुशीरुल हसन ने यह कहा था कि इतने वर्षों बाद भी क्या हमें देशप्रेम का सुबूत देना होगा? यह बात तब कही गई, जब दिल्ली के जामिया नगर के बटला हाउस एनकाउंटर में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों का हाथ होने की जानकारी मिली थी। जब ये विद्यार्थी पकड़े गए, तब इनका मुकदमा लड़ने का खर्च यूनिवर्सिटी करेगी, ऐसा श्री हसन ने कहा था। इसकी काफी आलोचना हुई थी। उसी समय एक ऍंगरेजी दैनिक को दिए एक साक्षात्कार में मुशीरुल हसन ने कहा था कि क्या इतने वर्षों बाद हमें अपने देशप्रेम का सुबूत देना होगा?
उनके इस सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि हाँ जनाब, आप अपने सीने पर हाथ रखकर खुदा को हाजिर-नाजिर मानकर यह कह दें कि मुम्बई पर हमले में आतंकवादियों की सहायता करने वाला स्थानीय नागरिक नहीं था। लानत है ऐसे गद्दारों पर, जो इस देश की माटी में जन्म लेकर उसी माटी के साथ गद्दारी कर रहे हैं। यह गददारी देश की माटी के साथ नहीं, बल्कि अपनी माँ के दूध के साथ कर रहे हैं। माँ के दूध को उन्होंने लजाया है। दुश्मन देश के आतंकवादियों से मिलकर उन्होंने बेगुनाहों के खून से होली खेली है, इससे यदि उन्हें जन्नत भी नसीब होती है, तो हम सब थूकते हैं, उस जन्नत पर। ऐसी जन्नत उन्हें और खून के प्यासे लोगों को ही मुबारक।
देश की आर्थिक राजधानी पर हुए आतंकवादी हमले से हमें बहुत कुछ सीखना है। सबसे पहले तो यही कि देश की सीमा खुली पड़ी है। विशेषकर समुद्री सीमा। गुजरात की 1600 किलोमीटर लम्बी समुद्री सीमा की हालत तो बहुत ही खराब है। इस समुद्री तट पर यदि बड़ी मात्रा में व्यापार हो रहा है, तो दूसरी तरफ आतंकवादियों की घुसपैठ की संभावना भी प्रबल है। इसे हमें नहीं भूलना चाहिए।
अभी मुम्बई के जिस स्थान पर आतंकवादी हमला हुआ, उसके आसपास भारतीय सेना की वेस्टर्न कमांड की बड़ी यूनिट है। वहीं पर भारतीय नौका दल का बहुत बड़ा अड्डा है। सेना का गुप्तचर विभाग, कोस्ट गार्ड, देश के केंद्रीय गुप्तचर विभाग, रॉ और सीबीआई, इन सभी का पानी एक झटके में आतंकवादियों ने उतार दिया। मुम्बई पुलिस और सीबीआई तो पूरी तरह से निष्फल ही साबित हुई है। इसका पूरा खामियाजा भी भुगतना पड़ा, हेमंत करकरे और विजय सालस्कर जैसे जाँबाज अफसरों को खोकर। मुम्बई पुलिस ने मछुआरों की बात पर भरोसा न कर अपना पुलिसियापन दिखा ही दिया। एक साधारण सा नागरिक भी यदि पुलिस में किसी प्रकार की शिकायत करता है, तो इसे गंभीरता से लेना चाहिए। पुलिस इस बात को कभी नहीं भूले, तो कुछ बेहतर की गुंजाइश हो सकती है।
यहाँ एक और बात समझने लायक है, वह यह कि विदेशी धरती पर दो-चार महीने प्रशिक्षण लेकर मुम्बई में पूरे 72 घंटे तक आतंक मचाकर सवा करोड़ की आबादी को बुरी तरह से भयभीत कर दिया, इसे निपटने में आतंकवाद को जड़ से खतम करने का संकल्प करने वाली हमारी सरकार बुरी तरह से विफल साबित हुई है। एक वोट बैंक की खातिर एक वर्ग विशेष को अल्पसंख्यक आखिर कब तक माना जाएगा? एक तरफ यह वर्ग सरकार की तरफ से अधिक से अधिक सुविधाएँ प्राप्त कर रहा है, दूसरी तरफ इसी वर्ग का एक बहुत ही छोटा या कह लें बड़ा भाग दुश्मन देश से मिलकर हमारी ही पीठ पर छुरा घोंप रहा है। ऐसा आखिर कब तक सहन किया जा सकता है?
इतने दिन हो गए, क्या अभी तक हमने अंतरराष्ट्रीय स्तर के किसी मुस्लिम नेता, उद्योगपति या शिक्षाशास्त्री ने इस आतंकवाद का खुलकर विरोध किया है? क्यों इसके लिए सीधे पाकिस्तान पर आरोप नहीं लगाया जाता? क्या ये सब आतंकवादियों से डर रहे हैं? याद रखें, ऐसे हमले का विरोध न कर चुपचाप रहना यानी आतंकवाद को अपनी मौन सहमति देना है।
अंतिम बात यही कही जा सकती है कि हिंदू यदि स्वयं ही संगठित हो जाएँ, तो कोई ताकत ऐसी नहीं है, जो उनकी आत्मा पर इस तरह के हमले कर सके। आज जो तमाम हिंदू संगठन आपके सामने दिखाई दे रहे हैं, ये सब आपत्ति के समय दुम दबाकर भाग जाएँगे। तमाम नेता, पार्टी और परिषद कुछ भी काम नहीं आने वाली। आज हम कई मोर्चे पर मार खा रहे हैं, क्योंकि हममें एकता नहीं है। इस एकता पर एक ऐतिहासिक घटना याद आ रही है, जो आज की कथित एकता पर एक सवालिया निशान छोड़ती है:5
हुआ यूँ कि भूतकाल में एक बादशाह ने भारत पर आक्रमण किया। उन दिनों सूर्योदय से सूर्यास्त तक लड़ाई चलती थी। उसके बाद घायलों की सेवा और आराम होता था, उसके बाद सुबह तक आराम। लड़ाई की पहली शाम को एक ऊँचे टीले पर बादशाह ने भारतीयों के शिविर की ओर देखा, वहाँ पर जगह-जगह आग जल रही थी। बादशाह ने अपने खबरची से पूछा-ये क्या हो रहा है? तब खबरची ने बताया कि ये सब अपना-अपना खाना पका रहे हैं। बादशाह को आश्चर्य हुआ। ये सब अपना खाना अलग-अलग क्यों पका रहे हैं? बादशाह सलामत-खबरची ने कहा- ये सब हिंदू हैं, ये एक-दूसरे का पकाया खाना नहीं खाते। बाह्मण की रसोई अलग, क्षत्रिय की रसोई अलग, शूद्र और वैश्य की रसोई अलग होती है। बादशाह ने तुरंत ने अपने सेनापति को बुलाकर कहा कि हमारे आधे सैनिक वापस भेज दो। जो कौम एक साथ खाना नहीं खा सकती, वह एक साथ युध्द कैसे कर सकती है? इन्हें जीतना बहुत ही आसान है।
हम इसीलिए लगातार मार खा रहे हैं। या तो संगठित होकर आतंकवाद का मुकाबला करो, या फिर मार खाओ और मुम्बई जैसी आतंकवाद की घटना को झेलकर विश्व में हँसी का पात्र बनो। हमारे ही धन से ब्लेक कमांडो से घिरे हुए बेशर्म और नपुंसक नेता जब स्वयं की रक्षा नहीं कर सकते, वे हमारी रक्षा भला क्या करेंगे? अब समय आ गया है कि कुछ ऐसा किया जाए, जिसमें हमारी एकता भी कायम रहे और हमारी जातिगत सुरक्षा भी अपनी पहचान बना सके। अब किसी पर विश्वास करने के बजाए अपने हाथों पर विश्वास करने के दिन आ गए हैं।
डॉ. महेश परिमल
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