डॉ. महेश परिमल
शिक्षा के नाम पर हमारी सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, इसके बाद भी शिक्षा के स्तर पर कोई उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है। दूसरी ओर सरकार पर हावी शिक्षा माफिया की हालत तो और भी बदतर है। आज निजी स्कूलों की मनमानी पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है। यहाँ तक की चंदे के नाम पर लाखों रुपए वसूलने वाली महानगरों की कई शालाओं की हालत इतनी खराब है कि कुछ कहना ही मुश्किल है। इसका पता तो तब चला, जब देश के आईटी उद्योग में उच्च स्थान रखने वाली विप्रो कंपनी ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के लिए एक अभियान चलाया।
इस कंपनी ने एजुकेशनल इनिशिएटिप्स नाम की एक गैर सरकारी संस्था के साथ मिलकर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में देश के पाँच महानगरों की 142 प्रतिष्ठित शालाओं के 32 हजार विद्यार्थ्ाियों को अपने संरक्षण में लिया। ये सभी शालाएँ ऐसी थीं, जहाँ डोनेशन के नाम पर पालकों से लाखों रुपए वसूले जाते हैं। इन शालाओं के विद्यार्थी एसएससी बोर्ड की परीक्षा में मेरिट लिस्ट में आते हैं। सभी शाालाएँ ऍंगरेजी माध्यम की थीं। इन शालाओं में करोड़पतियों की संतानें शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। विप्रो ने जब इन शालाओं के विद्यार्थ्ाियों की ऍंगरेजी, गणित और विज्ञान की परीक्षा ली गई, तब यह सामने आया कि ये सारे बच्चे केवल रटने के कारण ही परीक्षा में अपना स्थान बनाते थे। बुद्धि का उपयोग कर शिक्षा प्राप्त करने में इनकी कोई रुचि नहीं थी। कहाँ तो विप्रो कंपनी अपनी शिक्षा में सुधार के लिए सर्वेक्षण करने निकली थी और कहाँ इस तरह की चौंकाने वाली जानकारी मिली।
हमें दूर से जो पहाड़ बहुत ही खूबसूरत नजर आते हैं, वास्तव में वे वैसे होते नहीं हैं। ठीक इसी तरह अधिक डोनेशन लेने वाली न जाने कितनी शालाएँ महानगरों में ऐसी हैं, जिनका नाम तो बहुत है, पर अंदर से पोलमपोल है। वहाँ के विद्यार्थी भले ही वातानुकूलित कमरों में बैठकर पढ़ते हों, साथ ही सभी कक्षाओं में इंटरनेट कनेक्शन हों, वहाँ कंप्यूटर लेबोरेटरी हो, परीक्षा में अच्छे अंक हासिल करते हों, पर यह सब रटंत विद्या का कमाल है। वास्तव में यहाँ के विद्यार्थ्ाियों को इस तरह की कोई शिक्षा नहीं दी जाती, जिससे उसका आत्मिक विकास हो। सुविधाओं से विद्यार्थ्ाियों की पढ़ाई की गुणवत्ता सुधरती है, इसे महानगरों की ये शालाएँ झुठलाती हैं। विप्रो और एजुकेशनल इनिसिएटिव्स संस्था का उद्देश्य प्रतिष्ठित स्कूलों में शिक्षण की गुणवत्ता कितनी सुधरी है, इस पर शोध करना था, पर यहाँ तो कुछ और ही नजारा देखने को मिला।
आज की प्रतिष्ठित स्कूलों के विद्यार्थी एसएससी बोर्ड में 90 प्रतिशत या उससे भी अधिक अंक हासिल करते हैं, इससे शिक्षक और पालक अतिप्रसन्न हो जाते हैं। वे समझते हैं कि उनके स्कूल का शिक्षण अन्य स्कूलों की अपेक्षा बेहतर है। जो विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक लाता है, उसका यह आशय कतई नहीं है कि वह उस विषय की गहराई से जानकारी रखता है। विषय की पूरी समझ और उसकी उपयोगिता प्राप्त किए बिना ही रटंत विद्या से वे अपने विषय में अधिक से अधिक अंक प्राप्त कर लेते हैं। विप्रो और एजुकेशनल इनिशिएटिव्स की ओर से आयोजित परीक्षा में 142 शालाओं के 32 हजार विद्यार्थ्ाियों ने भाग लिया। इस परीक्षा का उद्देश्य यही था कि विद्यार्थ्ाियों की समझशक्ति, तर्कशक्ति, बुद्धिशक्ति और मौलिकता से विचारने की शक्ति की जाँच की जाए। इस परीक्षा के जो चौंकाने वाले परिणाम सामने आए और चार महानगरों की प्रतिष्ठित कहलाने वाली स्कूलों के अधिकांश विद्यार्थी अनुत्तीर्ण घोषित किए गए।
विप्रो कंपनी ने इस सर्वेक्षण में यह चालाकी की कि सभी प्रश्नों को घुमा फिराकर पूछा जाए। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिसमें दिमाग लगता है, वह सवाल किस तरह से हल किए जाते हैं। विद्यार्थ्ाियों को तो टेस्ट बुक या गाइड का ही सहारा था, जिसमें सीधे-सादे प्रश्नों के उत्तर भी सीधे तरीके से दिए जाते हैं। इसी कारण इन स्कूलों के तेजस्वी बच्चों को विप्रो के गुगली सवालों के उत्तर देने में नानी याद आ गई और वे बोल्ड हो गए। एक सवाल की बानगी देखें :- एक फीट की स्केल पर एक पेंसिल रखी गई, इस पेंसिल का बायाँ सिरा एक सेंटीमीटर के निशान पर था और दायाँ सिरा 6 सेंटीमीटर पर था। विद्यार्थ्ाियों को इस पेंसिल की लम्बाई निकालनी थी। इस सवाल का जवाब केवल 11 प्रतिशत विद्यार्थ्ाियों ने ही सही दिए, अधिकांश विद्यार्थ्ाियों ने पेंसिल की लम्बाई 6 सेंटीमीटर बताई।
इसी तरह विज्ञान के विद्यार्थ्ाियों को भी भरमाया गया। उनसे शुद्ध भाप का केमिकल फार्मूला पूछा गया। इस सवाल का जवाब देने में 63 प्रतिशत विद्यार्थी गच्चा खा गए। मात्र 37 प्रतिशत विद्यार्थी ही इस सवाल का समझ पाए। 51 प्रतिशत विद्यार्थ्ाियों का यह कहना था कि भाप का कोई केमिमल फार्मूला होता ही नहीं। इन स्कूलों के विद्यार्थी विज्ञान को भी बिना समझे पढ़ रहे हैं, यह इसका सुबूत था। इस सर्वेक्षण ने कई राजनीतिज्ञों, शिक्षाशास्त्रीयों, समाजशास्त्रियों और पालकों के होश उड़ा दिए। सर्वेक्षण के दस्तावेज हमारी शिक्षा पद्धति में खामियों को उजागर करते हैं।
1. आजकल शालाओं में सच्ची परीक्षा नहीं ली जा रही है। विद्यार्थ्ाियों को रटंत विद्या से दूर करे और उनकी समझ को बढ़ाए, ऐसे प्रश्न नहीं पूछे जा रहे हैं। इन प्रतिष्ठित स्कूलों में बच्चों को रट्टू तोता बनाकर रख दिया है।
2. विद्यार्थी यह मानते हैं कि आज उन्हें जो ज्ञान दिया जा रहा है, उसका जीवन में कोई अर्थ नहीं है, इसलिए इसे तो रटकर ही सीखा जा सकता है। इसलिए वे रटने को अधिक प्राथमिकता देते हैं। विद्यार्थ्ाियों को दी जाने वाली शिक्षा का जीवन में किस तरह से अधिक से अधिक उपयोग में लाया जाए, यह नहीं बताया जा रहा है। इसलिए विद्यार्थी भी केवल रटने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
3. आज स्कूलों में जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, वह न्यू थ्योरीकल नॉलेज होता है। किसी भी विषय में विद्यार्थ्ाियों को कोई ज्ञान नहीं दिया जाता। विज्ञान जैसे विषय को भी प्रयोगशाला के बजाए ब्लेकबोर्ड पर समझाया जा रहा है। भूगोल को पढ़ाने के लिए शाला की तरफ से किसी प्रवास का आयोजन नहीं किया जाता है। इतिहास पढ़ाने के लिए किसी तरह के नाटक का मंचन नहीं किया जाता। फलस्वरूप विद्यार्थी उत्तीर्ण होने के लिए रटंत विद्या का सहारा लेते हैं। इससे उनके मस्तिष्क में दोहरा भार पड़ता है और वे मानसिक तनाव के शिकार हो जाते हैं। इससे उनका बौद्धिक विकास रुक जाता है।
4. इस सर्वेक्षण ने बोर्ड द्वारा ली जाने वाली तमाम परीक्षाओं की पोल खोलकर रख दी है। जो विद्यार्थी इन परीक्षाओं में 90 प्रतिशत अंक लाते थे, वे ऍंगरेजी, विज्ञान और गणित की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए। इस कारण यही है कि ये विद्यार्थी गाइड पढ़कर और उसे रटकर ही परीक्षा पास कर लेते थे। इन परीक्षाओं में विद्यार्थ्ाियों की रटंत विद्या प्रतिभा की कसौटी होती थी। उनके ज्ञान के कौशल की परीक्षा नहीं होती थी।
इन सर्वेक्षणों के आधार पर मुम्बई के होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन के प्रोफेसर डॉ. के सुब्रमण्यम का कहना था कि इससे यह स्पष्ट होता है कि जिन प्रतिष्ठित शालाओं में जिस तरह से शिक्षा दी जा रही है, वह संतोषकारक नहीं है। विद्यार्थी अपने मस्तिष्क का उपयोग नहीं कर रहे हैं। कुछ दोष तो शिक्षा पद्धति का भी है, जिसमें विद्यार्थ्ाियों की समझ बढ़े, उनके विचारों को गति मिले, उनके विश्लेषण की क्षमता बढ़े, ऐसा कोई प्रयास इस पद्धति में दिखाई नहीं देता। अधिक अंक पाने के लिए अधिक दबाव से ऐसे हालात बन रहे हैं। शिक्षा का सही उद्देश्य पाठयक्रम पूरा करना नहीं, बल्कि बच्चों को ज्ञान देना होना चाहिए। क्या हमारे शिक्षाशास्त्री शिक्षा की कोई ऐसी पद्धति विकसित कर सकते हैं, जिसमें बच्चे की बुद्धि और प्रतिभा का समुचित विकास हो?
डॉ. महेश परिमल
शनिवार, 6 दिसंबर 2008
ख्यातनाम शिक्षा मंदिर: नाम बड़े और दर्शन छोटे
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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बेहद ही रोचक और तथ्यपूर्ण है आपका लेख......मैं ख़ुद आपके विचारो से पूरी तरह सहमत हूँ..........इस सर्वेक्षण की विषय में मैंने भी पढ़ा था.....इसमे यह तथ्य भी उजागर हुआ था की तर्क शक्ति के मामले में भारतीय छात्र समकक्ष विदेशी छात्रों के सामने फिसड्डी साबित हुए थे.....
जवाब देंहटाएंआज के दिन तक हम ६० साल पुरानी अंग्रेजो की थोपी शिक्षा पद्दति घसीट रहे है........ न कोई सुधार करने का जज्बा और न ही कुछ नया करने का......छोटे छोटे बच्चो को किताबें रटने की मशीनों में तब्दील कर दिया गया है......अगर किसी विद्यार्थी के कम नंबर आ गए, तो उसे मुर्ख घोषित कर दिया जाता है, और तो और उसके कम नम्बरों के आधार पर ही उसे कुछ 'होशियार बच्चो के विषयों' को भी पढने से वंचित कर दिया जाता है, और सिर्फ़ एक झूठे नंबर के आधार पर ही के प्रतिभा को खिलने से पहले ही कुचल दिया जाता है........
उपरोक्त रहस्य चौंकाने वाला भले हो , किन्तु 'ओपेन सिक्रेट' हैं।
जवाब देंहटाएंइन तथाकथित 'ऊंची दुकानों' को एक अन्य प्रकार से भी परखा जा सकता है। इनमे यादृच्छ रूप से चुने हुए (रैन्डमली सेलेक्टेड) विद्यार्थियों को प्रवेश दिलाइये और उनका 'रेजल्ट' देखिये। शर्त यह है कि अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों (बैक्ग्राउण्ड) वाले छात्र चुने जाँय न कि किसी शहर या प्रदेश के 'क्रीम' छात्रों को उनमें प्रवेश दिला दिया जाय। सच्चाई यह है कि इन 'महान' स्कूलों में देश के छटे हुए सर्वोत्तम बच्चे प्रवेश लेते हैं; वे कहीं भी होते, अच्छा ही करते।