गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

ये तो होना ही था



नीरज नैयर
जार्ज डब्लू बुश ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में उन्हें यूं जलालत झेलनी पड़ेगी. इराक में जो कुछ भी हुआ उसने न सिर्फ बुश को बल्कि पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है. इराकी प्रधानमंत्री मलिकी की मौजूदगी में एक पत्रकार उठता है, बुश को गालियां देता है, अपना जूता निकालकर अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ फेंकता और पल भर में ही इतना प्रसिद्ध बन जाता है कि उसकी रिहाई के लिए सड़कों पर प्रदर्शन होने लगते हैं. इस घटना ने भले ही बुश विरोधियों को ताउम्र हंसने का मौका दे दिया हो मगर इसने इराकियों के उस दर्द और बेबसी को भी बयां किया है जो वो बरसों से झेलते आ रहे हैं. यह घटना इस बात का सुबूत है कि सद्दाम की मौत के इतने समय बाद भी बुश और अमेरिका के प्रति इराकियों के दिल में णनफरत कायम है. कहने को तो इराक में चुनी हुई सरकार है, लोगों को अपने हक की आवाज उठाने का अधिकार है मगर इसे सिर्फ कहने तक ही कहा जाए तो अच्छा बेहतर होगा. इराक में अब भी करीब 14,9,000 अमेरिकी और ब्रितानी सैनिक जमे हुए हैं, खून-खराबा वहां आम बात हो गई है. कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है. हर इराकी को दुश्मन के नजरीए से देखा जाता है. पैदा होने से पहले ही बच्चा गोलियों की इतनी आवाज सुन लेता है कि दुनिया में आने के बाद उसे ये सब खेल लगने लगता है. ऐसे मुल्क में रहने वालों से जूता फेंकने की नहीं तो और क्या उम्मीद की जा सकती है. सद्दाम के तनाशाही शासन के खात्मे के वक्त इराक में थोड़ा गुस्सा जरूर था मगर लोगों को इस बात की आस भी कि शायद अब उन्हें बेहतर जिंदगी नसीब होगी, उन्हें दूसरे मुल्कों के आवाम की तरह खुला माहौल मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा उनकी जिंदगी बद से बदतर हो गई है. मानवीय हालात वहां हर रोज बिगड़ते जा रहे हैं. इराकियों की रोजमर्रा की जरूरतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा. उन्हें न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न ही पानी. हालात ये हो चले हैं कि लोगों को अपनी कमाई का एक तिहाई यानी करीब 150 डॉलर महज पानी खरीदने के लिए ही खर्च करना पड़ रहा हैं. स्वास्थ्य सेवाओं की हालत भी बिगड़ती जा रही है. जो सेवाएं उपलब्ध हैं वो इतनी मंहगी है कि आम आदमी की पहुंच में नहीं आती. सरकारी अस्पतालों में सिर्फ 30 हजार बिस्तर हैं जो 80 हजार की जरूरतों के आधे से भी कम हैं. लोगों का आर्थिक स्तर इतना गिर गया है कि कई-कई दिन घर में चूल्हा नहीं जल पाता. अमेरिका ने पहले कहा था कि लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना के बाद वो इराक से पूरी तरह हट जाएगा लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. हालात को काबू करने के नाम पर उसने सेना को वहीं बसा दिया. ब्रिटेन ने भी उसका भरपूर सहयोग दिया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी खामोशी साधे रहा. इराक पर अमेरिका के हमले की शुरूआती दिनों में जमकर तारीफ हुई थी लेकिन धीरे-धीरे उसकी अमानवीय तस्वीरों के सामने आने के बाद अधिकतर लोगों की सोच बदल गई. अबू गरेब जेल में यातनाओं के फुटेज ने पूरी दुनिया को अमेरिकी सेना का खौफनाक चेहरा दिखाया. कहा जाता है कि बसरा के नजदीक बक्का में अमेरिकी सैनिकों के कब्जे में अब भी 20 हजार इराकी हैं, जिनमें सबसे ज्यादा तादाद पुरुषों की है. अतंरराष्ट्रीय संस्था रेडक्रास भी इराक के हालात पर ंचिंता जता चुकी है. उसका कहना है कि इराक के बदतर मानवीय हालात केवल तभी ठीक किए जा सकते हैं जब इराकी नागरिकों को रोजमर्रा की जरूरतों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाए. इराक में सद्दाम हुसैन के वक्त जो हालात थे उन्हें मौजूदा हालातों से बेहतर कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा. संयुक्त राष्ट्र डवलपमेंट प्रोग्राम की रिपोर्ट भी कुछ ऐसा ही बयां करती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि युद्ध के बाद इराकियों का जीवन स्तर खतरनाक तरीके से गिरता जा रहा है. पानी-भोजन, बिजली और सुरक्षा जैसी मूलभूत जरूरतें भी वहां गंभीर समस्या बन गई हैं. इराक में 39 प्रतिशत आबादी 15 साल से कम उम्र के लोगों की है, जिनकी स्थिति सर्वाधिक दयानीय है. छह महने से पांच साल तक के अधिकतर बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में हैं. साक्षारता का ग्राफ भी ऊपर चढ़ने के बजाए पिछले कुछ सालों में बहुत तेजी से नीचे आया है. इराक में जो एक और समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है वह है बेरोजगारी. करीब 37 फीसदी पढ़े-लिखे लोग नौकरी की तलाश में हताशा के शिकार बन बैठे हैं. और हर साल इन आंकड़ों में इजाफा हो रहा है. इसके साथ-साथ भ्रष्टाचार भी वहां तेजी से पैर पसार चुका है. कुछ महीनों में ही इसने तीन गुने से ज्यादा की रफ्तार पकड़ ली है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इराक बर्बादी के ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां से बेहतरी की कोई उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आती. ऊपर से अमेरिका भी अब अपने वादों से मुकरने लगा है. इराकी नेतृत्व खुद यह आरोप लगा चुका है कि वाशिंगटन की तरफ से जिस तरह का आश्वासन दिया गया था वैसी मदद नहीं मिल पा रही है. अमेरिका ने इराक की स्थिति सुधारने के लिए सात प्रोजेक्ट चलाए थे जिनमें से अधिकतर बंद किए जा चुके हैं. इराक की णआर्थिक जरूरतों से भी अमेरिका ने पीछा छुड़ा लिया है. जबकि जापान आदि देशों से इराक के पुर्नउद्धार के लिए सहायता मिल रही है. दरअसल इराक अब अमेरिका के गले की हड्डी बन गया है. दिन ब दिन वहां खराब होते हालात से उसकी स्थिति भी बिगड़ती जा रही है. इराक को फिर से पैरों पर खड़ा करने का खर्चा उठाने में अब वो कानाकानी दिखा रहा है. हालांकि ये बात अलग है कि इराक में बने रहने के लिए अब तक वो बेशुमार पैसा बहा चुका है. इराक में जहां अमेरिका और ब्रिटेन की सेना डेरा डाले हुए हैं वहां आमजन की सुरक्षा व्यवस्था के सबसे बड़ी कमजोरी के रूप में उबरकर आना अपने आप में यह साबित करता है कि अमेरिका की इराकी जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं उसे केवल वहां जमें रहने से मतलब है. कुछ वक्त पहले किए गये एक सर्वेक्षण में करीब 80 प्रतिशत लोगों का मानना था कि सुरक्षा व्यवस्था की हालत इतनी खस्ता हो चुकी है कि घर में भी लोग खुद को महफूज नहीं समझते. भले ही अमेरिका और उसके सहयोगी अपनी इराक नीति कोआज भी वाजिब ठहरा रहे हो मगर वहां की जनता उन्हें इसके लिए कभी माफ नहीं करने वाली. दाने-दाने को मोहताज लोग, बिलखते बच्चे, अपनों की शवों पर मातम करती महिलाएं इराक की पहचान बन कर रह गई है. ऐसे में इराकी जनता की बुश के प्रति नारजागी का जो मुजाएरा बुश-मलिकी की प्रेस कांफ्रेंस में देखने को मिला उसे कतई गलत नहीं ठहराया जा सकता.
नीरज नैयर
9893121591

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