सोमवार, 1 दिसंबर 2008
आओ एड्स के खिलाफ एक हो जाएँ
डॉ. महेश परमिल
कुछ समय पहले अखबारों में पढ़ा था कि पश्चिम बंगाल के एक व्यक्ति के रक्त की जाँच में उसे एचआईवी पॉजीटिव पाया गया। इसके बाद तो उस व्यक्ति का जीना ही मुहाल हो गया। उसे अपने ही नाते-रिश्तेदारों की उपेक्षा सहनी पड़ी। उसे समाज से ही बहिष्कृत कर दिया गया। सभी उसे कटाक्ष भरी दृष्टि से देखते। लोग उससे दूर-दूर रहते। कई लोग तो उसे छूना भी पसंद नहीं करते। एक तरह से तो वह जीवित रहकर भी मरणासन्न हो गया था। कई दिनों बाद पता चला कि उसकी रिपोर्ट गलत थी। जाँच में गलती हो गई, किसी और के रक्त की रिपोर्ट को उसकी रिपोर्ट बता दिया गया। उस व्यक्ति को तो सही साबित कर दिया गया, पर इस बीच उसने जो कुछ सहा, वह मौत से बदतर था। वह अपने ही लोगों की ऑँखों के सामने गिर गया। आखिर तक उसे वह इात नहीं मिल पाई, जिसका वह हकदार था।
यह हमारे समाज की एक ऐसी सच्चाई है, जिसे हर कोई स्वीकार तो करता है, पर इसे दूर करने की दिशा में एक कदम भी नहीं उठाना चाहता। आजो विश्व एड्स दिवस है। तमाम अखबारों को पढने पर पता चला कि हमारे देश में एड्स रोगियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसी के साथ बढ रहे हैं इस बीमारी की रोकथाम के उपाय। हम सभी जानते हैं कि एड्स एक जानलेवा बीमारी है। सावधानी ही इससे बचने का एकमात्र उपाय है। लोगों में यह आम धारणा है कि यह बीमारी केवल बड़ों को ही होती है। पर सच तो यह है कि इस रोग के संबंध में आवश्यक जागरूकता एवं सावधानी के अभाव में आज बच्चों में भी एड्स तेजी से फैल रहा है। विश्व में 15 साल से नीचे की उम्र के एक करोड़ बालक ऐसे हैं, जो एड्स के कारण अपने माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो गए हैं। इन बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया है।
हाल ही में ऐसे तथ्य सामने आए हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि हमारे देश में अभी भी हजारों बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें यह बीमारी विरासत में मिली है। माता यदि एचआईवी पॉजीटिव हो, तो बालक जन्म के साथ ही यह बीमारी अपने साथ लाता है। सका वायरस उसके खून में पहले ही समा चुका होता है। यह एक चिंता का विषय है कि आजकल हमारे देश में कई बच्चे माता की कोख में ही इस बीमारी से ग्रस्त हो रहे हैं। अब तो माँ की कोख भी सुरक्षित नहीं रही। इस जानलेवा बीमारी को रोकने के लिए विश्व स्तर पर वैज्ञानिक शोधकार्य में लगे हुए हैं, निश्चित रूप से इसके अच्छे परिणाम सामने आएँगे, पर इसके लिए समय लगेगा। अभी तो इसके लिए बिना किसी की सहायता लिए अपनी ओर से एक कदम उठाना ही होगा। यह कदम क्या हो, इस पर कई लोगों के कई विचार हो सकते हैं। सबसे पहले तो यह हो सकता है कि इस बीमारी से ग्रस्त लोगों से प्यार से बातचीत करें। उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव न करें। उसके सामने ऐसी कोई हरकत न करें, जिससे उसे लगे कि उसकी उपेक्षा की जा रही है। इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि णसन तो रोगी के कपड़े पहनने से होता है, न हाथ मिलाने से होता है और न ही उसके साथ भोजन करने से होता है। यह सब करने से केवल प्यार ही बढता है। यदि हमें पता चल जाए कि किसी व्यक्ति को एड्स है, तो उससे इस तरह से व्यवहार करें, जिससे उसे अपनी जिंदगी से प्यार हो जाए और वह पूरी शिद्दत के साथ जिंदगी जीने की कोशिश करे।
यह आश्चर्य की बात है कि पूरे विश्व में अब तक 4 करोड़ लोग एचआईवी ग्रस्त हैं। इस बीमारी ने अभी तक 80 लाख लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है। इसके बाद भी विश्व में अभी भी 80 प्रतिशत लोगों को यह मालूम ही नहीं है कि एड आखिर है क्या? यह अज्ञानता ही है, जो लोगों को इस बीमारी के करीब ला रही है। एक बार जो इसकी चपेट में आ गया, वह मौत के करीब पहुँच जाता है। पर सच तो यह है कि यदि रोगी के भीतर जीने की लालसा हो, तो इस बीमारी को भी अपने से दूर भगा सकता है। इससे ग्रस्त निराश लोगों में जीवन का संचार करने में हम सबको महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। एड्स रोगी भी यह तय कर ले कि चाहे कुछ भी हो, मुझे इस बीमारी से लड़ना ही है, तो उसका आत्मविश्वास ही उसे एड्स से छुटकारा दिला सकता है। हमारे ही समाज में ऐसे कई लोग हुए हैं, जो एड्सग्रस्त होने के बाद भी पूरी तरह से सामान्य जीवन जीया है।
जीवन जीने की कला यही है कि मौत से पहले मत मरो और दुऱ्ख आने से पहले दुऱ्खी मत हो, हाँ लेकिन सुख आने के पहले ही उसकी कल्पना में ही सुख का अनुभव करो, खिलखिलाहट के पहले ही अपने होठों पर मुस्कान खिला लो। सकारात्मक सोच का सफर काफी लम्बा होता है और नकारात्मक सोच का सफर शुरू होने के पहले ही तोड़कर रख देता है। यह सब कुछ निर्भर करता है हमारे व्यवहार पर। इस व्यवहार में सोच की परत जितनी अधिक जमेगी, जीवन की खुशियाँ उतनी ही परतों के नीचे दबती चली जाएगी। निर्णय हमें करना है कि एड्स रूपी राक्षस के बारे में अधिक सोच-सोच कर जीवन को भार बनाना है या उसका मुकाबला कर जीवन को फूलों की पंखुड़ी सा हल्का और सुकोमल बनाना है? क्योंकि एड्स की भयावहता निश्चित ही एक क्षण को हमें कमजोर बना देती है, किंतु आज आवश्यकता है इस चुनौती को स्वीकारने की और इससे लडने की। एक बार फिर हमें अपने आपको समर्पित करना होगा एचआइवी के विरुध्द दृढ़ होकर ख़डे रहने के लिए और साथ ही इस बात का भी संकल्प लेना होगा कि हम इस वायरस से पीड़ित लोगों के जीवन में आशा की एक नई सुबह लाएँगे और उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेंगे, ताकि वे अपना सामान्य जीवन जी सकें और हमारे साथ हँसी-खुशी से रहे सकें।
डॉ. महेश परिमल
लेबल:
आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें