शनिवार, 18 सितंबर 2010

125 वर्ष पुराना है अयोध्या विवाद



डॉ. महेश परिमल

24 सितम्बर को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें अपनी-अपनी तैयारियों में लग गई हैं। उस दिन की भयावहता को लेकर हर कोई आहत है। सभी के सामने 6 दिसम्बर 1992 का दृश्य आ जाता है। हर कोई सहम जाता है। आज भी कई आँखें ऐसी हैं, जिनके सामने यह मंजर किसी भयावह हादसे की तरह गुजर गया है। सूनी आँखें आज भी पूछती हैं कि आखिर उस मासूम ने क्या गुनाह किया था, जो विवादास्पद मंदिर या मस्जिद के सामने फूलों के हार बेचा करती थी। उसके लिए जाति महत्वपूर्ण नहीं थी, वह तो हर किसी को भक्त ही मानती थी। फिर चाहे वह ईश्वर का भक्त हो, या फिर खुदा का बंदा। उसे तो फूलों की माला बेचने से मतलब था। पर वह मासूम भी चल बसी, इस जातिवाद के चक्कर में।
सच तो यह है कि यह विवाद अभी का है ही नहीं। इस विवाद के इतिहास में झाँके, तो स्पष्ट होगा कि जब भी इस विवाद ने अँगड़ाई ली है, कुछ न कुछ हुआ ही है। बात 125 वर्ष पुरानी है। सन् 1885 से लेकर 1949 तक तो इस विवाद को किसी ने भी सुलझाने की कोशिश ही नहीं की। इसे यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश ही होती रही। सबसे पहले सन् 1885 में महंत रघुवीर दास ने फैजाबाद के सब जज की अदालत में आवेदन किया कि बाबरी मस्जिद के सामने वाली जमीन जिसे राम चबूतरा कहा जाता है, पर उनका मालिकाना हक है। इसलिए वहाँ पर राम मंदिर के निर्माण की उन्हें अनुमति दी जाए। उनका मानना था कि यह राम चबूतरा ही भगवान राम की जन्म स्थली है। ऐसा हमारे पूर्वज मानते हैं। फैजाबाद के हिंदू सब जज पंडित हरिकिशन ने उक्त आवेदन को अस्वीकार कर दिया। उनका मानना था कि मस्जिद के इतने करीब राम मंदिर बनाने से इस क्षेत्र की शांति भंग हो सकती है। इस फैसले के सामने महंत रघुवीर दास ने फैजाबाद के ही डिस्ट्रिक्ट जज कर्नल जे.ई.ए. चेम्बियार की अदालत में अपील की। इस ब्रिटिश जज ने उस क्षेत्र का निरीक्षण किया और जो फैसला दिया, वह हिंदुओं के खिलाफ था। उन्होंने अपने फैसले में कहा कि हिंदू जिस स्थान को पवित्र मानते हैं, वहाँ पर मस्जिद का बनाया जाना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। चूँकि यह घटना 365 वर्ष पहले हो चुकी है, इसलिए इस मामले में कुछ नहीं किया जा सकता। इस मामले को यथास्थिति में रखे जाने में ही सबकी भलाई है। यह फैसला 1886 में आया था।
1886 से लेकर 1949 तक यह विवाद एक तरह से खामोश ही रहा। कथित मस्जिद में सरकारी ताला लगा दिया गया था। सन् 1949 में 22 दिसम्बर की रात किसी ने बाबरी मस्जिद का ताला तोड़कर उसके बीचों-बीच भगवान श्री राम की मूर्ति की स्थापना कर दी। यह बात पूरे देश में बिजली की तरह फैला दी गई कि अयोध्या में श्री राम भगवान प्रकट हुए हैं। यह खबर सुनकर पूरे देश से लोग राम लला के दर्शन करने और उनकी पूजा करने के लिए फैजाबाद आने लगे। जनसमूह की बढ़ती संख्या को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को आदेश दिया कि वे बाबरी मस्जिद से राम लला की मूर्ति को हटवा दें। मुख्यमंत्री ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। यही नहीं फैजाबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के.के.के. नायर ने भी मूर्ति हटाने के आदेश मानने के बदले अपनी नौकरी ही छोड़ दी। इसके बाद तो उन्होंने हिंदू महासभा की टिकट से लोकसभा का चुनाव भी जीत लिया। इस दौरान श्री राम लला की मूर्ति तो वहीं रही, लोग बाहर से ही उनके दर्शन करने लगे।
एक सप्ताह बाद जब वातावरण शांत हुआ, तब 28 दिसम्बर को अयोध्या के अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट एन.एन. चड्ढा ने इस संपत्ति को सील करने का आदेश दिया। इस आदेश के खिलाफ स्थानीय निवासी गोपाल सिंह विशारद ने मस्जिद में हिंदुओं को श्री राम लला की पूजा कर सकें, इस आशय का आदेश लेने के लिए सिविल जज की अदालत में 16 जनवरी 1950 को केस फाइल किया। तब इस मामले में आदेश दिया गया कि आम जनता दूर से ही राम लला के दर्शन कर सकती है, पर पुजारी को भीतर जाने दिया जाएगा। इस फैसले के बाद बाबरी मस्जिद की मालिकी का मामला अनिर्णित ही रहा। 1949 में ही अयोध्या के निर्मोही अखाड़े ने उक्त जमीन का मालिकाना हक बताते हुए टाइटल सूट फैजबाद की अदालत में पेश किया। इसके खिलाफ 1961 में अयोध्या निवासी मोहम्मद हाशिम ने मुस्लिमों को वापस करने के लिए आवेदन फैजाबाद की अदालत में किया। इन सभी आवेदनों पर 1983 तक कोई सुनवाई नहीं हुई।
1983 में विश्व हिंदू परिषद ने रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए अपना आंदोलन तेज कर दिया। इससे पूरे देश में भय का वातावरण तैयार हो गया। इसी बीच अयोध्या के वकील यू.सी. पांडे ने फैजाबाद की जिला अदालत में आवेदन किया कि रामजन्मभूमि पर जो सरकारी ताला लगा है, उसे खोल दिया जाए। इस पर 1986 की पहली फरवरी को श्री पांडे की अर्जी को ध्यान में रखते हुए ताला खोल देने का आदेश दिया गया। इस आदेश को तुरंत अमल में लाया गया। इससे देश भर के हिंदुओं में खुशी की लहर दौड़ गई। उत्तर प्रदेश के सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद के हाईकोर्ट में अपील की। इस पर कोई फैसला तो नहीं हुआ, पर हाईकोर्ट ने इससे संबंधित सारे मामलों को लखनऊ की बेंच में चलाने का आदेश दिया। 6 दिसम्बर 1992 को देश भर से आए कार सेवकों ने कथित बाबरी मस्जिद के ढाँचे को गिरा दिया। इसके बाद भी उक्त जमीन का विवाद नहीं सुलझा।
अब 60 वर्ष बाद इस विवादास्पद मामले का फैसला आने को है। इसे देखते हुए तमाम हिंदूवादी संगठन इस फैसले का राजनीतिक लाभ उठाने और अपने आंदोलन को तेज बनाने की तैयारियों में लग गए हैं। उधर मुस्लिम संगठन भी खामोश नहीं रहने वाले, उन्होंने ने भी अपनी तैयारियों को अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है। सरकार को इस बात की चिंता है कि इन हालात से कैसे निपटा जाए? यह तो तय है कि 24 सितम्बर का फैसला देश में उथल-पुथल करवा देगा और एक बार फिर तबाही के मंजर सामने आएँगे।
डॉ. महेश परिमल

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