मंगलवार, 26 जुलाई 2011

बुलंद हौसलो वाली बिलियर्ड चैम्पियन



डॉ. महेश परिमल
एक लेखक के लिए उसकी आँख जितनी महत्वपूर्ण है, उतने ही महत्वपूर्ण हैं एक खिलाड़ी के लिए उसके पाँव। पर जब पाँव से साथ छोड़ दे, तो एक खिलाड़ी क्या करे? कैसे रोके भीरत के खिलाड़ी को? कैसे समझाए अपने आप को? पाँव के साथ छोड़ देने के बाद भी वर्ल्ड चैम्पियन बनना कोई मामूली बात तो नहीं है। पर जिसकी हिम्मत होती है, तो दुर्भाग्य के हौसले परास्त हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ चित्रा मैगीमैराज के साथ। वह चैम्पियन तो थी हॉकी की, पर वर्ल्ड चैम्पियन बनी बिलियर्ड की। आज उसका नाम पूरे देश में गर्व के साथ लिया जाता है। ऐसे में चित्रा याद करती है, उस खिलाड़ी को, जिसने उसे पाँव में हॉकी की स्टिक से प्रहार किया था और उसके पाँव ने उसका साथ हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया। हॉकी न सही, उसने बिलियर्ड में लगातार परिश्रम के बाद नाम कमाया।
चित्रा जब छोटी थी, तब अपने भाई के साथ पेड़ की डाली से हॉकी खेला करती थी। उस दौरान वह पूरे आत्मविश्वास के साथ यह खेल खेलती। जब स्कूल पहुँची, तब भी वह हॉकी पर हाथ आजमा लेती। एक बार स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर ने उसे खेलते हुए देख लिया। उसने उसकी प्रतिभा को पहचान लिया। कुछ ही समय के प्रशिक्षण के बाद उसे स्कूल की हॉकी टीम में ले लिया गया। सतत एकाग्रता और कड़े परिश्रम से चित्रा ने बहुत ही कम समय में टीम की दुलारी बन गई। आगे चलकर वह विजय की आधार स्तंभ बन गई। उसके बाद तो इंटरनल स्पर्धा, विविध स्पोर्ट्स क्लबों की स्पर्धा आदि में शामिल हेने लगे। कुछ समय बाद उसका नाम होनहार हॉकी खिलाड़ी के रूप में सबसे आगे होने लगा। मैसूर स्पोर्ट्स हॉस्टल टीम की वह कैप्टन भी बन गई। 1993 में उस पर मानो बिजली ही गिर गई। हुआ यूं कि एक राज्य स्तरीय हॉकी स्पर्धा में उसकी टीम फाइनल में पहँुच गई। प्रतिस्पर्धी टीम को लगा कि अब गए काम से। प्रतिस्पर्धी टीम की दो खिलाड़ियों ने खेल के दौरान आँखों ही आँखों में कुछ इशारा किया और मौका देखकर चित्रा के कॉफ बोन (पिंडली) पर जोरदार प्रहार किया। उस समय तो चित्रा गिर पड़ी, पर सब कुछ भूलकर उसने खेलना नहीं छोड़ा। दूसरे दिन वह अस्पताल गई। वहाँ एक नहीं, पर बीस-बीस डॉक्टरों ने जाँच की। पर कोई भी डॉक्टर उसके पाँव को बचा नहीं पाया। चित्रा का एक पैर हमेशा-हमेशा के लिए बेकार हो गया।
खेल कोई भी हो, उसे खेलने के लिए पाँव तो चाहिए ही। चाहे वह क्रिकेट हो, फुटबॉल हो, लॉन-टेनिस हो या फिर बेडमिंटन। चित्रा के लिए तो जीना ही मुश्किल हो गया। बिना खेल के वह अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर पा रही थी। मुंबई के प्रख्यात सर्जन ने उसे सलाह दी कि वह रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी करवा ले। उसने वह सर्जरी करवा ली। पर तेजी से इधर से उधर जाना या दौड़ना संभव नहीं हो पाया। उसके भीतर का खिलाड़ी आहत हो गया। वह चाहकर भी कोई खेल नहीं खेल पा रही थी। कई खेल खेले, पर मामला जम नहीं पाय। तभी उसकी नजर बिलियर्ड खेलते खिलाड़ियों पर पड़ी। उसने बिलियर्ड खेलना शुरू किया। सामान्य रूप से एक खिलाड़ी 28 वर्ष की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते थक जाता है। उसका कैरियर अस्ताचल की ओर जाने लगता है, पर चित्रा ने 28 वर्ष की उम्र में ही बिलियर्ड खेलना शुरू किया। अपनी मेहनत और लगन से धीरे-धीरे वह इस खेल में पारंगत होते गई। कर्नाटक के स्टेट बिलियर्ड एसोसिएशन के कार्यालय में एक बार चित्रा को खेलते हुए गीत सेठी ने देखा। वे चित्रा के खेल से प्रभावित हुए। तब उन्होंने चित्रा से कहा कि तुममें एक जन्मजात खिलाड़ी छिपा है। इस खेल के माध्यम से उसे बाहर निकालो। गीत सेठी के इस वाक्य को उसने अपनी प्रेरणा मान लिया। बस तब से वह दिन-रात बिलियर्ड के बारे में सोचती और बिलियर्ड ही खेलती। एक वर्ष की मेहनत रंग लाई, दूसरे ही वर्ष वह बिलियर्ड की स्टेट चैम्पियन बन गई। इस पर गीत सेठी ने उसका हौसला बढ़ाया। इसके बाद तो चित्रा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह खेलती गई, खेलती गई। 2005 और 2006 के बीच वह कई नेशनल लेबल के फाइनल तक पहुँच गई। फाइनल तक पहुँचना तो उसका लक्ष्य था ही नहीं, उसे तो शिखर पर पहुँचना था।
अंत में वह क्षण भी आ पहुँचा, जब वर्ल्ड स्नूकर चैम्पियनशिप में वह विजेता बनी। इस चैम्पियनशिप में महिलाओं का प्रवेश तो 2003 से ही हो गया था। पर कोई भी महिला सेमीफाइनल से आगे नहीं पहुँच पाई। अपने खेल से चित्रा ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। चित्रा ने विश्व विजेता का खिताब जीता। तब उसने उस खिलाड़ी को याद किया, जिसने उसके पाँव पर प्रहार किया था और उसे लाचार कर दिया था। आज वह खिलाड़ी न जाने कहाँ है, पर उसकी बदौलत चित्रा ने बिलियर्ड में विश्व विजेता बनकर देश का नाम रोशन किया। पूरे विश्व में चित्रा की पहचान वर्ल्ड चैम्पियन के रूप में है। अपनी उपलब्धियों के बारे में चित्रा कहती हैं कि उसका एक पाँव बेकार हो गया है, यह सोचकर वह बैठी होती, तो कुछ भी नहीं कर पाती। आज मेरी पहचान एक टूटे पैर की महिला के रूप में न होकर बिलियर्ड चैम्पियन के रूप में है, यही मेरी पहचान है।
डॉ. महेश परिमल

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