गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

हिसार में कांग्रेस भले हारे, पर अन्ना जीतने वाले नहीं

डॉ. महेश परिमल
अगस्त में दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे ने जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाया था, उससे लोगों में एक जोश देखा गया था। आज बदलते हुए हालात को देखकर यही लगता है कि अन्ना अपनी राह से भटक गए हैं। हिसार में कांग्रेस के प्रत्याशी का विरोध कर वे एक तरह से भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही दे रहे हैं, क्योंकि अन्य दो प्रमुख प्रत्याशी पूरी तरह से ईमानदार हैं, यह कहना मुश्किल है। अन्ना की टीम सचमुच ही यदि भ्रष्टाचार से लड़ना चाहती है, तो उसे अपना प्रत्याशी खड़ा करना था। हिसार में यह तो तय है कि वहाँ कांग्रेस हारेगी, पर अन्ना नहीं जीतेंगे, यह भी तय है।
प्रजातंत्र में आपको जनता का कितना समर्थन प्राप्त है, इसकी सही कसौटी तो चुनाव के माध्यम से ही होती है। जिस उम्मीदवार को जितने अधिक वोट मिलते हैं, वह उतना ही लोकप्रिय माना जाता है। सन् 1977 में जबलपुर में जयप्रकाश नारायण ने शरद यादव को कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ खड़ा कर यह साबित किया कि वे इंदिरा गांधी से अधिक विश्वसनीय हैं। यदि अन्ना ने ऐसा ही किया होता, तो लोग उन पर और अधिक विश्वास करते। उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसलिए उनका कांग्रेस प्रत्याशी का विरोध करना बचकाना लगता है। भारत भूमि अभी इतनी बाँझ नहीं है कि यहाँ ईमानदार प्रत्याशी न मिलें। ऐसे प्रत्याशी मिल सकते हैं, बशर्ते उन्हें सही रूप में पहचाना जाए। समाज में आंदोलन का बिगुल फूँकना अलग बात है और चुनाव लड़ना अलग। आंदोलन से आप प्रजा का भरमा सकते हैं, लेकिन चुनाव जीतकर आप सही रूप में जनता के प्रतिनिधि साबित होते हैं।
केजरीवाल हरियाणा के हैं। यदि अन्ना चाहते, तो उन्हें खड़ा कर सकते थे। उन्हें जीताकर वे अपनी क्षमता सिद्ध भी कर सकते थे। अब अन्ना ने हिसार को एक प्रयोगशाला के रूप में तैयार किया है। यदि वहाँ से लोकदल के प्रत्याशी अजय चौटाला या फिर हरियाणा जनहित कांग्रेस के प्रत्याशी कुलदीप विoAोई में से कोई एक जीत जाता है, तो कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर अन्ना को अवश्य पड़ेगा। वैसे भी वे कमजोर प्रत्याशी हैं। अब यदि कुछ लोग भी अन्ना की गुहार सुनते हैं, तो उन्हें मिलने वाले वोट और कम हो जाएँगे। वैसे अन्य दोनों प्रत्याशी कोई दूध के धुले नहीं हैं। अजय चौटाला पर तो भ्रष्टाचार के मामले पर चार्जशीट फाइल की जा चुकी है। जब से हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है, तब से मामला कुछ उलझ गया है।
लोकसभा चुनाव में जिस प्रत्याशी की जीत का संभावनाएँ प्रबल हो और वह चुनाव हार जाए, तो यह आश्चर्यजनक हो सकता है। हाँ यदि कमजोर प्रत्याशी जीत जाए, तो वह इसका पूरा श्रेय लेने से नहीं चूकता। हिसार में तो कांग्रेस का उम्मीदवार जयप्रकाश तीसरी पोजीशन में है। यदि वे हार भी जाते हैं, तो इसका श्रेय अन्ना को नहीं मिलेगा। इसे दूसरे नजरिए से देखें तो जयप्रकाश की हार के लिए कोशिश करने का मतलब यही है कि अन्य प्रत्याशियों को जिताने के लिए रास्ता साफ करना। ये दोनों प्रत्याशी भ्रष्ट हैं, यह तो सभी को पता है। पर शायद अन्ना को यह पता नहीं कि वे अनजाने में ही भ्रष्ट लोगों की सहायता ही कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले जब भ्रष्ट लोगों के संरक्षक बन जाए, तो इसे क्या कहा जाए?
आखिर जबलपुर में क्या हुआ था?
सन् 1974 में लोकनायक स्व. जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के भ्रष्टाचार के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन चलाया था। यह आंदोलन चल ही रहा था कि मध्यप्रदेश के जबलपुर में उपचुनाव की घोषणा हो गई। 1971 में यहाँ से कांग्रेस के गोविंद दास ने भारी बहुमत से सफलता प्राप्त की थी। उनके निधन से इस सीट पर उपचुनाव 1974 में हुए। कांग्रेस ने सेठ गोविंददास के पोते रविमोहन को टिकट दी। उनकी जीत लगभग तय थी। इस बीच जयप्रकाश नारायण ने अपने अभियान के तहत उस समय के छात्र नेता शरद यादव को भारतीय लोकदल की टिकट पर रविमोहन के खिलाफ खड़ा किया। उस समय जयप्रकाश का प्रभाव इतना अधिक था कि शरद यादव के सामने कांग्रेस के सक्षम प्रत्याशी रविमोहन हार गए। इससे शरद यादव के पौ बारह हो गए। वे सांसद बनकर संसद पहुँच गए। कई लोग हिसार की तुलना जबलपुर से कर रहे हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जबलपुर सीट कांग्रेस के हाथ में ही थी। जयप्रकाश ने उसके खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा किया और उन्हें विजयश्री हासिल की। यदि अन्ना वास्तव में यह चाहते हैं कि हिसार में भी जबलपुर जैसे हालात की पुनरावृति हो, तो उन्हें हिसार मंे अपना प्रत्याशी खड़ा करना था। उनके साथी अरविंद केजरीवाल हरियाणा के ही हैं। यदि अन्ना उन्हें हिसार से खड़ा करते और उन्हें जीतवा पाते, तो उनकी काबिलियत सामने आती। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वहाँ तो कांग्रेस को हराने के लिए अजय चौटाला और कुलदीप विoAोई ही सक्षम हैं। यदि वहाँ से कांग्रेस हारती है, तो इसे अन्ना की जीत कतई नहीं कहा जा सकता।
अन्ना संघ प्रेरित
कांग्रेस के खिलाफ जाकर अन्ना संघ के करीब आ गए हैं। अनजाने में वे भाजपा के सहयोगी ही साबित हो रहे हैं। वे यह भूल रहे हैं कि भाजपा ने अभी तक अन्ना के जनलोकपाल बिल को अपना समर्थन नहीं दिया है। अन्ना की टीम एक तरफ संघ पर कटाक्ष कर रही है, तो दूसरी तरफ भाजपा समर्थित प्रत्याशी को अपना समर्थन भी दे रही है। इस तरह से वे क्या संघ परिवार का कोई कर्ज अदा कर रहे है? हिसार में यदि अजय चौटाला जीत जाते हैं, तो वे अन्ना के प्रति आभारी ही रहेंगे। अब अन्ना की टीम सभी उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने की बात करने लगी है। जब तक इसे अमल में नहीं लाया जाएगा, तब तक टीम अन्ना का कर्तव्य नागरिकों के सामने स्वच्छ छवि वाले प्रत्याशियों का खोजना है। उधर यदि कांग्रेस ने अपना पूरा जोर लगा दिया और वहाँ से जीत हासिल कर लेती है, तो अन्ना की जो फजीहत होगी, वह देखने लायक होगी। बहुत ही जल्द पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है। वहाँ मायावती की बहुजन समाज पार्टी को हराकर कांग्रेस को जीताने के लिए राहुल गांधी पिछले 6 सालों से लगातार प्रयास कर रहे हैं। वहाँ विधानसभा चुनाव में यदि कांग्रेस बहुमत प्राप्त कर लेती है या फिर दूसरे नम्बर पर रहती है, तो 2014 में राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो जाएगा। टीम अन्ना ने अभी से यह घोषण कर दी है कि इन राज्यों में उनकी टीम केवल कांग्रेस प्रत्याशियों का ही विरोध करेगी। टीम अन्ना की इस हरकत से राहुल गांधी को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अन्ना अब रास्ते से भटक रहे हैं। उनकी अपनी सोच सीमित है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन तक उनकी सोच में साफगोई थी, पर अब वे अपनों से ही संचालित होने लगे हैं। उनकी टीम आंदोलन करने में सक्षम हो सकती है, पर चुनावी मैदान में उतरकर लोगों को रिझाने में नाकामयाब है, यह तय है। अन्ना की टीम को अपने आप पर ही विश्वास नहीं है। टीम के अंतर्कलह भी समय-समय पर सामने आते रहे हैं। ऐसे में आखिर वे कब तक खींच पाएँगे, विभिन्न विचारधाराओं की इस नाव को? भाजपा यदि भ्रष्ट न होती और अन्ना उनके प्रत्याशियों का समर्थन करते, तो संभव है, लोग उन्हें गंभीरता से लेते। पर वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, इससे साफ है कि वे न तो अंतर्कलह को ही रोक पा रहे हैं और न ही चुनाव लड़ने के लिए हिम्मत ही बटोर पा रहे हैं। ऐसे में उनकी स्वच्छ छवि को उज्ज्वल बनाए रखने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
डॉ. महेश परिमल

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