डॉ. महेश परिमल
लोकसभा चुनाव को अभी एक वर्ष की देर है। पर मुलायम सिंह यादव की मानें,तो चुनाव समय से पहले ही हो सकते हैं। यह उनका गणित है। दूसरी ओर कांग्रेस देश में महंगाई पर काबू पाने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में पूरी तरह से विफल साबित हुई है। लोगों का ध्यान दूसरी ओर करने के लिए इस बार भावनाओं को जगाने वाले संवेदनशील मुद्दों का सहारा लिया गया है। इससे अन्य विफलताओं पर लोग नजरअंदाज कर जाएंगे। ऐसा कांग्रेस सोच रही है, पर इस बार वह भुलावे में न रहे, तो ही अच्छा। क्योंकि जनता अब जाग चुकी है। अब वह प्रलोभनों में नहीं आने वाली। उसे काम चाहिए और काम करने वाले नेता। इस बार वे नेता बुरी तरह हारेंगे, जिन्होंने काम नहीं किया। यह तय है। लोग विकास चाहते हैं, कुछ नया होता देखना चाहते हैं। अब उन्हें प्रलोभन डिगा नहीं पाएंगे।
मौत को जिंदा रखकर राजनीति करना भारतीय परंपरा रही है। किसी की मौत से क्या-क्या फायदे हो सकते हैं, यह पुलिस भले ही बाद में सोचे, पर भारतीय राजनीति में यह बहुत पहले सोच लिया जाता है। आतंकी अफजल गुरु की फांसी के बाद अब उससे किसको क्या फायदा होगा, किसको क्या नुकसान होगा, इसकी चर्चा चल पड़ी है। इसमें विशेष बात यह देखने में आई कि लगातार निष्क्रियता और अनिर्णयात्मकता के आरोपों से घिरी सरकार ने अचानक ही पहले अजमल कसाब और फिर अफजल गुरु के मामले में जो जल्दबाजी, गोपनीयता और साहस का परिचय दिया, उससे यह निकलकर आ रहा है कि लोकसभा चुनाव के बारे में मुलायम सिंह जो कह रहे हैं, उसमें सच्चई है। कोई भी निर्णय कब लिया जाए, इसमें समय बहुत बड़ा कारक है। अफजल को जिस तरीके से फांसी दी गई, उसके पहले कांग्रेस ने अच्छा होमवर्क किया, यह स्पष्ट है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में जो निष्फलताएं सामने आई, उनके निर्णय न लेने की स्थिति, अपनों को नियंत्रण में न रख पाने की स्थिति आदि को देखते हुए कांग्रेस को यह सिद्ध करना था कि वह अपने निर्णयों पर दृढ़ रहती है, त्वरित फैसले लेती है, इस छवि को स्थापित करने के लिए उसने यह सब किया। ताकि चुनाव से पहले अपने आपको एक मजबूत सरकार के रूप में प्रस्तुत कर सके।
लोकसभा चुनाव को अभी एक वर्ष की देर है। पर मुलायम सिंह यादव की मानें,तो चुनाव समय से पहले ही हो सकते हैं। यह उनका गणित है। दूसरी ओर कांग्रेस देश में महंगाई पर काबू पाने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में पूरी तरह से विफल साबित हुई है। लोगों का ध्यान दूसरी ओर करने के लिए इस बार भावनाओं को जगाने वाले संवेदनशील मुद्दों का सहारा लिया गया है। इससे अन्य विफलताओं पर लोग नजरअंदाज कर जाएंगे। ऐसा कांग्रेस सोच रही है, पर इस बार वह भुलावे में न रहे, तो ही अच्छा। क्योंकि जनता अब जाग चुकी है। अब वह प्रलोभनों में नहीं आने वाली। उसे काम चाहिए और काम करने वाले नेता। इस बार वे नेता बुरी तरह हारेंगे, जिन्होंने काम नहीं किया। यह तय है। लोग विकास चाहते हैं, कुछ नया होता देखना चाहते हैं। अब उन्हें प्रलोभन डिगा नहीं पाएंगे।
मौत को जिंदा रखकर राजनीति करना भारतीय परंपरा रही है। किसी की मौत से क्या-क्या फायदे हो सकते हैं, यह पुलिस भले ही बाद में सोचे, पर भारतीय राजनीति में यह बहुत पहले सोच लिया जाता है। आतंकी अफजल गुरु की फांसी के बाद अब उससे किसको क्या फायदा होगा, किसको क्या नुकसान होगा, इसकी चर्चा चल पड़ी है। इसमें विशेष बात यह देखने में आई कि लगातार निष्क्रियता और अनिर्णयात्मकता के आरोपों से घिरी सरकार ने अचानक ही पहले अजमल कसाब और फिर अफजल गुरु के मामले में जो जल्दबाजी, गोपनीयता और साहस का परिचय दिया, उससे यह निकलकर आ रहा है कि लोकसभा चुनाव के बारे में मुलायम सिंह जो कह रहे हैं, उसमें सच्चई है। कोई भी निर्णय कब लिया जाए, इसमें समय बहुत बड़ा कारक है। अफजल को जिस तरीके से फांसी दी गई, उसके पहले कांग्रेस ने अच्छा होमवर्क किया, यह स्पष्ट है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में जो निष्फलताएं सामने आई, उनके निर्णय न लेने की स्थिति, अपनों को नियंत्रण में न रख पाने की स्थिति आदि को देखते हुए कांग्रेस को यह सिद्ध करना था कि वह अपने निर्णयों पर दृढ़ रहती है, त्वरित फैसले लेती है, इस छवि को स्थापित करने के लिए उसने यह सब किया। ताकि चुनाव से पहले अपने आपको एक मजबूत सरकार के रूप में प्रस्तुत कर सके।
पिछले महीने जयपुर में आयोजित कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में इस संबंध में निर्णय लिया गया ािा और कांग्रेस की थिंकटेंक द्वारा सरकार की छवि सुधारी जाए, इसके साथ ही विपक्ष के आरोपों की धार को किस तरह से भोथरी किया जाए, ऐसे तमाम मुद्दों की सूची तैयार की गई थी। महंगाई और भ्रष्टाचार ये यूपीए सरकार का सबसे बड़ा कलंक है, इसे धोने के लिए तमात प्रयास किए जाने की भी वकालत की गई। इस संबंध में यह तय किया गया कि सरकार की आक्रामक छवि बनाई जाए और संवेदनशील मुद्दों पर अधिक ध्यान दिया जाए। ताकि अन्य विफलताओं पर लोगों का ध्यान न जा पाए। खुदरा व्यापार में एफडीआई सहित कई मुद्दों पर सरकार ने जो दृढ़ता दिखाई, उससे ममता, मुलायम और मायावती जैसे कद्दावर नेताओं ने सरकार की नाक दबा रखी है। सरकार अपनी दृढ़ता दिखाने के लिए पहले कसाब और फिर अफजल को फांसी पर लटका दिया। संवेदनशील मुद्दों पर काम करने की दिशा में यह पहला कदम था। कसाब को फांसी देने पर कहीं से भी विरोध के स्वर नहीं उठे, पर अफजल को फांसी देने का सबसे अधिक विरोध कश्मीर में ही हुआ। इसकी वजह यही है कि अफजल शिक्षित था और उसकी पृष्ठभूमि आतंकवाद से नहीं जुड़ती थी। इसलिए लोग उससे सहानुभूति रखते थे।
दूसरी तरफ आगामी चुनाव में उज्जवल परिणाम की आशा रखकर आक्रामक हो रही भाजपा को भी कांग्रेस कम नहीं आंक रही है। भाजपा हिंदुत्व का कार्ड लेकर चुनाव मैदान में उतर रही है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा कर वह सरकार के निर्णय न लेने के मुद्दे उछाले जाए, इस संभावना के बीच अफजल को फांसी देकर कांग्रेस ने एक पत्थर से दो शिकार किए हैं। अफजल को फांसी देकर वह अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रही है, इससे वह स्वयं को दृढ़ होकर निर्णय लेने वाली सरकार साबित करना चाहती है। राजनैतिक मोर्चो पर मुकाबलों के बाद सरकार के पास आखिरी मुद्दा देश की रक्षा का है। अफजल को फांसी देकर कश्मीर के चरमपंथी फिर आक्रमक बन सकते हैं। अफजल की मौत का बदला जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तोएबा किस तरह से लेते हैं। यह एक गंभीर प्रश्न है। इस समय कश्मीर में चरमपंथी बिखरे हुए हैं। अफजल जिस जेकेएलएफ का सदस्य था, उसके अध्यक्ष यासीन मलिक अभी पाकिस्तान में सईद के साथ दिखने से विवादास्पद हैं। संभवत: उनका पासपोर्ट ही जब्त हो जाए। इसलि कश्मीर में वह कुछ कर पाएगा, इसकी संभावना कम ही है।
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में इस समय शांति है, इसलिए कुछ फिल्मों की शूटिंग भी हो रही है। अबोटाबाद में अमेरिका ने एक ऑपरेशन के तहत जिस तरह से ओसामा बिन लादेन को मारा था, उससे कमजोरी सामने आने के डर से पाकिस्तान ने कश्मीर के आसपास अपने सारे प्रशिक्षण शिविर बंद कर दी थी। संसद पर हमले के लिए जिन्होंने अफजल को लश्कर-ए-तोएबा ने कई तरह की सहायता की थी, वही अभी गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। ऐसी अमेरिकी जासूसी संस्था सीआईए और रॉ की खबर है। लादेन की मौत के बाद अल कायदा बिना नेतृत्व के है, इन हालात में आतंकवादी संगठन का पूरा तंत्र ही आर्थिक रूप से जर्जर है, उसकी नेटवर्किग और जानकारियों का लेन-देन भी बंद है। अल कायदा की भूमिका यह है कि यदि वह कमजोर पड़ता है, तो मध्य-पूर्व एशिया में लगभग सभी आतंकवादी संगठन भी कमजोर पड़ जाते हैं। जैश और लश्कर की कमजोर आर्थिक स्थिति के पीछे भी यही कारक काम कर रहा है। इन हालात में यदि अफजल को फांसी पर लटका दिया गया है, तो कश्मीर में आरंभिक विरोध के बाद अब कोई बड़ा विरोध नहीं होगा। ऐसी सरकार की धारणा है। कश्मीर की आंतरिक राजनीति भी सरकार के लिए सहायक है। उमर अब्दुल्ला की ट्विटर पर व्यक्त किए गए विचार एक तरफ उनकी नाराजगी को दर्शाते हैं, तो दूसरी तरफ उन्होंने जिस तरह से ट्विट किया है, उससे यह संदेश जाता है कि वे भी सरकार से किसी तरह का पंगा लेना नहीं चाहते। उनकी नाराजगी का सूर ही यह बता देता है। उमर इससे अधिक विरोध नहीं कर सकते थे।
इसके बाद भी भाजपा अफजल को फांसी देने के मामले में अपनी नैतिक विजय देख रही है। रातो-रात निर्णय लेकर अफजल को दी गई फांसी हिंदुत्व कार्ड और मोदी का नाम उछलने का असर के रूप में देख रही है। लेकिन यह भाजपा का भ्रम ही है। अफजल को फांसी का मामला अधिकतम आठ दिनों तक ही मीडिया में छाया रहेगा। इसके बाद तो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी और आगामी चुनाव की ही चर्चा होनी ही है। अल्पसंख्यकों के दिलों से डर निकालने के लिए कांग्रेस स्वयं भी अफजल के भूत को दूर करना पसंद करेगी। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अफजल की मौत से किसी को कोई फायदा नहीं होने वाला। सरकार के खिलाफ नाराजगी के और भी कारण है, जिसमें महंगाई, भ्रष्टाचार के अलावा अन्य कई मुद्दे हैं। सरकार को इससे ही निस्बत नहीं है। भाजपा भी इन मुद्दों को अधिक नहीं भुना सकती। इसलिए अफजल की फांसी को भाजपा भी अधिक तूल देकर उससे लाभ नहीं ले सकती। दोनों को ही यह पता चल गया है कि सबसे बड़े मुद्दे महंगाई और भ्रष्टाचार के आगे शेष सभी मुद्दे गौण हैं। इसलिए मोदी की तरह विकास की बात करके ही आगे बढ़ा जा सकता है।
डॉ. महेश परिमल
दूसरी तरफ आगामी चुनाव में उज्जवल परिणाम की आशा रखकर आक्रामक हो रही भाजपा को भी कांग्रेस कम नहीं आंक रही है। भाजपा हिंदुत्व का कार्ड लेकर चुनाव मैदान में उतर रही है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा कर वह सरकार के निर्णय न लेने के मुद्दे उछाले जाए, इस संभावना के बीच अफजल को फांसी देकर कांग्रेस ने एक पत्थर से दो शिकार किए हैं। अफजल को फांसी देकर वह अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रही है, इससे वह स्वयं को दृढ़ होकर निर्णय लेने वाली सरकार साबित करना चाहती है। राजनैतिक मोर्चो पर मुकाबलों के बाद सरकार के पास आखिरी मुद्दा देश की रक्षा का है। अफजल को फांसी देकर कश्मीर के चरमपंथी फिर आक्रमक बन सकते हैं। अफजल की मौत का बदला जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तोएबा किस तरह से लेते हैं। यह एक गंभीर प्रश्न है। इस समय कश्मीर में चरमपंथी बिखरे हुए हैं। अफजल जिस जेकेएलएफ का सदस्य था, उसके अध्यक्ष यासीन मलिक अभी पाकिस्तान में सईद के साथ दिखने से विवादास्पद हैं। संभवत: उनका पासपोर्ट ही जब्त हो जाए। इसलि कश्मीर में वह कुछ कर पाएगा, इसकी संभावना कम ही है।
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में इस समय शांति है, इसलिए कुछ फिल्मों की शूटिंग भी हो रही है। अबोटाबाद में अमेरिका ने एक ऑपरेशन के तहत जिस तरह से ओसामा बिन लादेन को मारा था, उससे कमजोरी सामने आने के डर से पाकिस्तान ने कश्मीर के आसपास अपने सारे प्रशिक्षण शिविर बंद कर दी थी। संसद पर हमले के लिए जिन्होंने अफजल को लश्कर-ए-तोएबा ने कई तरह की सहायता की थी, वही अभी गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। ऐसी अमेरिकी जासूसी संस्था सीआईए और रॉ की खबर है। लादेन की मौत के बाद अल कायदा बिना नेतृत्व के है, इन हालात में आतंकवादी संगठन का पूरा तंत्र ही आर्थिक रूप से जर्जर है, उसकी नेटवर्किग और जानकारियों का लेन-देन भी बंद है। अल कायदा की भूमिका यह है कि यदि वह कमजोर पड़ता है, तो मध्य-पूर्व एशिया में लगभग सभी आतंकवादी संगठन भी कमजोर पड़ जाते हैं। जैश और लश्कर की कमजोर आर्थिक स्थिति के पीछे भी यही कारक काम कर रहा है। इन हालात में यदि अफजल को फांसी पर लटका दिया गया है, तो कश्मीर में आरंभिक विरोध के बाद अब कोई बड़ा विरोध नहीं होगा। ऐसी सरकार की धारणा है। कश्मीर की आंतरिक राजनीति भी सरकार के लिए सहायक है। उमर अब्दुल्ला की ट्विटर पर व्यक्त किए गए विचार एक तरफ उनकी नाराजगी को दर्शाते हैं, तो दूसरी तरफ उन्होंने जिस तरह से ट्विट किया है, उससे यह संदेश जाता है कि वे भी सरकार से किसी तरह का पंगा लेना नहीं चाहते। उनकी नाराजगी का सूर ही यह बता देता है। उमर इससे अधिक विरोध नहीं कर सकते थे।
इसके बाद भी भाजपा अफजल को फांसी देने के मामले में अपनी नैतिक विजय देख रही है। रातो-रात निर्णय लेकर अफजल को दी गई फांसी हिंदुत्व कार्ड और मोदी का नाम उछलने का असर के रूप में देख रही है। लेकिन यह भाजपा का भ्रम ही है। अफजल को फांसी का मामला अधिकतम आठ दिनों तक ही मीडिया में छाया रहेगा। इसके बाद तो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी और आगामी चुनाव की ही चर्चा होनी ही है। अल्पसंख्यकों के दिलों से डर निकालने के लिए कांग्रेस स्वयं भी अफजल के भूत को दूर करना पसंद करेगी। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अफजल की मौत से किसी को कोई फायदा नहीं होने वाला। सरकार के खिलाफ नाराजगी के और भी कारण है, जिसमें महंगाई, भ्रष्टाचार के अलावा अन्य कई मुद्दे हैं। सरकार को इससे ही निस्बत नहीं है। भाजपा भी इन मुद्दों को अधिक नहीं भुना सकती। इसलिए अफजल की फांसी को भाजपा भी अधिक तूल देकर उससे लाभ नहीं ले सकती। दोनों को ही यह पता चल गया है कि सबसे बड़े मुद्दे महंगाई और भ्रष्टाचार के आगे शेष सभी मुद्दे गौण हैं। इसलिए मोदी की तरह विकास की बात करके ही आगे बढ़ा जा सकता है।
डॉ. महेश परिमल