सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

अस्ताचल की ओर अन्ना का युग

डॉ. महेश परिमल
केवल दो वर्ष में ही अन्ना हजारे नाम को जो सूरत भारतवर्ष के आसमान में एक नक्षत्र की तरह दिखाई दिया था, वह शायद अब अस्ताचल की ओर है। एक-एक करके उनके विश्वस्त साथी उनका साथ छोड़ते जा रहे हैं। अरविंद केजरीवाल ने उनके मतभेद हुए और उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली। अब तक उनके साथ रहीं किरण बेदी के भी विचार उनसे अलग होने लगे हैं। दो वर्ष पहले अन्ना हजारे बहुत बड़े ब्रांड थे, उनके एक इशारे पर पूरा देश विशेषकर युवा सड़क पर उतर आए थे, उसी अन्ना की बात उनके अपने ही नहीं सुन रहे हैं। कहां गए वो नारे, जिसमें कहा जाता था कि अन्ना एक क्रांति है, अन्ना एक आंधी है, अन्ना दूसरे गांधी हैं। दो वर्ष पहले देश के कोने-कोने में इस तरह के नारे खुले आम गूंजते थे। लोगों ने उनमें एक नए युग का सूत्रपात करने वाला इंसान देखा था। वह युग केवल दो वर्ष में ही अस्ताचल की ओर होने लगा। आखिर ऐसी क्या बात हो गई कि लोग अब उनकी बातें सुनना पसद नहींे करते।
इसमें कोई दो मत नहीं कि अन्ना हजारे की नीयत पर कोई शक नहीं कर सकता। पूर्व में किए गए आंदोलन के बची उनकी सच्चई सामने आ रही थी। भ्रष्टाचार मुक्त भारत का विचार लेकर वे जिस तरह से सामने आए, तो हर किसी ने उनका सम्मान किया। भ्रष्टाचार ने इस देश को निगल लिया है, यह सभी जानते हैं। इस दिशा में कोई भी अपना सब कुछ छोड़कर आगे आने को तैयार नहीं था। अन्ना की भूल केवल इतनी ही थी कि जो उनके साथ जुड़े, उन्हें वे पहचान नहीं पाए। अन्ना परिवर्तन चाहते थे, पर उनके साथियों को चाहिए थी सत्ता। आज अन्ना की हालत यह है कि एक सामान्य रैली में लोग इकट्ठा नहीं हो रहे हैं। पटना में आयोजित जनतंत्र रैली का आयोजन हुआ था। पूरे राज्य में यह मुनादी की गई थी कि राज्य में कुछ ऐसा अनोखा होने जा रहा है, जो इसके पहले नहीं हुआ। पटना का गांधी मैदान में जनसैलाब उमड़ने की कल्पना करने वालों ने देखा कि पूरा मैदान ही खाली है। गिनती के ही कुछ लोग अन्ना को सुनने आए थे। इस रैली को जंगी जनतंत्र नाम दिया गया था। ये मात्र एक सामान्य आम सभा बनकर रह गई। जो मीडिया अन्ना के पीछे दौड़ता था, उसने भी कोई खास तवज्जोह नहीं दी। यह भी जान गया है कि लोगों की रुचि अब अन्ना में नहीं है।
ऐसा भी नहीं है कि अन्ना की वाणी अभी भी ओजस्वी नहीं है। उन्होंने नए राष्ट्रीय स्तर के संगठन की घोषणा की और उसे नाम दिया जनतंत्र मोर्चा। आज हालत यह है कि आज अन्ना के पास न तो जन है और न ही तंत्र, मोर्चा तो हो ही नहीं सकता। अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण जैसे महारथी अन्ना का साथ छोड़ चुके हैं। अभी अन्ना के साथ यदि कोई जाना-पहचाना नाम है तो वह है किरण बेदी। इन्होंने ही अन्ना को चेताया था कि अपने साथियों को पहचानो, इन सबसे दूर रहो, ये सत्याग्रही नहीं हैं, सत्ता आग्रही हैं। आज लोकपाल के मुद्दे पर यही किरण बेदी के विचार अन्ना से मेल नहीं खा रहे हैं। संशोधित लोकपाल विधेयक का अन्ना ने विरोध किया है, वहीं किरण बेदी ने इसका समर्थन किया है। अन्ना को लोगों ने एक क्रांति के रूप में देखा था, लेकिन सच तो यह है कि क्रांति स्पष्ट ध्येय, सटीक विचार और तटस्थ निर्णयों से होती है। कोरी गप्पबाजी से नहीं। अब अन्ना के भाषण में प्रलाप अधिक हैं, विचार कम हैं।
अन्ना के साथ दूसरी बात यह है कि वे जहां जो बात करनी होती है, नहीं करते। अपने भाषण में वे दूसरों की ही बातें अधिक करते हैं। पटना की रैली का ही उदाहरण देख लो, वहां उन्होंने गुजरात में लोकायुक्त और अन्य बातें की, बिहार की कोई बात नहीं की। उनके भाषण में ऐसा कुछ भी नया नहीं था, जिसे उन्होंने पहली बार कहा हो, वही पुराना घिसा-पिटा रिकॉर्ड। जिसे लोगों ने कई बार सुना है। इसमें कोई शक नहीं है कि देश में जब भी लोकपाल का नाम आएगा, अन्ना को याद किया जाएगा। पटना की रैली के दूसरे दिन दिल्ली में लोकपाल के नए मुद्दे की चर्चा के लिए केंद्रीय केबिनेट की बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि पूरे समय अन्ना का न तो नाम आया न ही लोकपाल विधेयक पर उनके असर को देखा गया। आज यदि जंतर-मंतर पर अन्ना की सभा का आयोजन किया जाए, तो कितने लोग आएंगे? यह सवाल है। पर देश ने जब वर्ल्ड कप जीता था, उसके तुरंत बाद के दिनों का याद किया जाए, तो अन्ना तो अकेले ही आए थे। लोग आते गए और कारवां बनता गया। फिर जेल, विवाद, सत्ता का लालच, बदनाम करने की कोशिशें, आरोप-प्रत्यारोप का ऐसा घालमेल हुआ कि अन्ना अकेले पड़ गए।
पटना की रैली में अन्ना ने कहा कि उनके नया संगठन जनतंत्र मोर्चा चुनाव नही लड़ेगा। यही बात जब अरविंद केजरीवाल कहते थे, तब उन्हें समझाने की आवश्यकता थी। वैसे अरविंद केजरीवाल भी कोई खास नहीं कर सके। केवल कुछ उद्योगपतियों और नेताओं की पोल खोलकर वे कोई बड़ी क्रांति नहीं कर रहे हैं। अभी शीला दीक्षित पर उन्होंने जो आरोप लगाए हैं, उसे मीडिया में कोई खास महत्व नहीं मिला। लगता है कि अब उन्हें अपनी औकात अच्छी तरह से समझ में आ गई है।  मैं आम आदमी हूं के नारे के साथ केजरीवाल ने अपने दल आम आदमी की घोषणा की,उसे अभी चार महीने भी नहीं हुए हैं, इतने ही दिनों में वे काफी सिमट गए हैं। अब न तो उनकी पार्टी की कहीं चर्चा होती है, न ही उनके बयानों पर। इसमें सबसे बड़ी बात यह रही कि लोगों ने जो परिवर्तन का सपना देखा था, वह पूरा नहीं हो पाया। ऐसा लगा कि हम सब मिलकर एक सपना ही देख रहे थे कि अचानक हमें जगा दिया गया। अब तो अन्ना को देखकर अपने अधूरे सपने के टूटने का अहसास होता है। सपने के टूटने की वेदना बहुत ही कष्टदायक होती है,  इसे अन्ना समझेंगे, या केजरीवाल?
   डॉ. महेश परिमल

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