डॉ. महेश परिमल
हाल में देश में हुई दो त्रासद घटनाओं से प्रबंधन की बात सामने आई है। एक तरफ समुद्री तटों पर फेलिन आया, लेकिन कुशल प्रबंधन के कारण अधिक क्षति नहीं कर पाया, तो दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के दतिया के रतनगढ़ मंदिर के पास हुई भगदड़ 120 मौतें दे गई। एक तरफ कुशल प्रबंधन और दूसरी तरफ प्रबंधन के नाम पर शून्य। एक तरफ प्रकृति हार मान गई, तो दूसरी तरफ मानवसर्जित त्रासदी कई मौतें दे गई। इससे हमें प्रबंधन का सबक तो लिया ही जाना चाहिए। आखिर क्या कारण है कि लोग मंदिरों में इतनी बड़ी संख्या में आते हैं, पर कुशल प्रबंधन न होने के कारण भगदड़ का शिकार होते हैं। हमारे देश में ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है कि मंदिरों में होने वाली भगदड़ में लोगों ने अपनी जानें गंवाई हैं। सैंकड़ों मौतें देने वाली भगदड़ से सरकार ने अभी तक कोई सबक नहीं सीखा, इसलिए आवश्यक है कि मंदिरों के लिए भी विशेष टास्क फोर्स तैयार किया जाए, ताकि इस तरह से होने वाली जन हानि से बचा जा सके। कलेक्टर, एसपी को सस्पेंड करने से कुछ नहीं होने वाला। मूल कारण की ओर जाना होगा। होना तो यह चाहिए कि सरकार पर दोष मढ़ने के पहले मंदिरों के संचालकों पर कार्रवाई होनी चाहिए। इतने श्रद्धालुओं का आगमन होगा, यह जानने के बाद भी उनका कोई कुशल प्रबंधन दिखाई नहीं दिया। कई देशों से हज यात्री लाखों की संख्या में हज के लिए जाते हैं, पर वहां की व्यवस्था देखने लायक होती है। इससे भी हमें सबक लेना चाहिए। मंदिरों में होने वाली भगदड़ मानवसर्जित भूल है। लोगों की धार्मिक संवेदनाओं के साथ धोखा न हो, पर मंदिरों को भीड़ प्रबंधन का पाठ तो पढ़ाया ही जाना चाहिए।
फेलिन ने 220 किलामीटर की रफ्तार से अपनी आमद दी, पर वह मानव संहार करने में विफल रहा। क्योंकि मानवों को बचाने की प्रणाली सतर्क थी। अचल सम्पत्ति को तो हटाया नहीं जा सकता था, पर तूफान की चपेट में आने वाले लोगों को तेजी से हटाने में सरकार ने स्फूर्ति दिखाई। मानव संहार के लिए तैयार होकर आने वाला तूफान भले ही अरबों का नुकसान कर गया हो, पर अधिक मौतें देने में विफल रहा। केवल 23 मौतें ही दे गया। यह मौतें भी पेड़ों के गिरने से हुई। यदि सरकार ने समय रहते लोगों को दूसरे सुरक्षित स्थान पर ले जाने का प्रयास नहीं किया गया होता, तो इससे अधिक जनहानि हुई होती। इस बार हमारा मौसम विभाग सही भविष्यवाणी करने और उसे समझने में कामयाब रहा। लोग हमेशा मौसम विभाग को उसकी भविष्यवाणी को लेकर मजाक उड़ाते रहे हैं, पर इस बार उसने यह बता दिया कि जिसे लोग हमेशा गलत मानते आए थे, वह अमेरिकी मौसम विभाग से भी चुस्त रहा। अमेरिकी मौसम विज्ञानियों ने इसे तो भीषण मानव संहारक बताया था। पर ऐसा नहीं हो पाया। हमारे वैज्ञानिकों ने फेलिन का व्यूहात्मक तरीके से सामना किया। दूसरी ओर मंदिरों में होने वाली धक्का-मुक्की के पीछे विभिन्न दर्शन जिम्मेदार हैं। गुजरात के सौराष्ट्र के धोराजी के एक मंदिर में छप्पनभोग के दर्शन के समय 9 महिलाएं कुचल गईं थी, इसी तरह यात्राधाम डाकोर की बात की जाए, तो वहां भीड़ प्रबंधन के प्रदर्शन हुआ था। वास्तव में मंदिरों में भीड़ इसलिए बढ़ जाती है कि मंदिरों में विभिन्न दर्शनों के लिए तैयारी की जाती है, उस दौरान मंदिर में भक्तों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। इधर तैयारी होते रहती है,उधर भीड़ बढ़ती रहती हे। मंदिरों में भगवान का श्रंगार, राजभोग आदि के लिए मंदिर के दर्शन बंद कर दिए जाते हैं। दर्शन के लिए जब मंदिर के दरवाजे खुलते हैं, तब भक्ताों की भीड़ बढ़ जाती है। एक तो दर्शन के लिए की जा रही प्रतीक्षा, दूसरी बात है आतुरता, बस इसी कारण भीड़ बेकाबू हो जाती है।
अब दीवाली करीब है, इस दौरान धार्मिक यात्राओं और मेलों का आयोजन होगा। छप्पनभाग, मुकुट के दर्शन और श्रंगार के दर्शन, मंगला आरती के लिए भक्तों की धक्का-मुक्की हो सकती है, इसलिए अभी से इस दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए। होना तो यह चाहिए कि जिन मंदिरों में संचालकों की लापरवाही से भीड़ पर काबू नहीं पाया जा सकता है और कुछ अनहोनी होती है, तो संचालकों और ट्रस्टियों को सीखचों के पीछे धकेल देना चाहिए। यह तर्क इसलिए दिया जा रहा है कि जब आर्थिक मैनेजमेंट में विफल हो जाता है, तब को-ऑपरेटिव्ह बैंकों के डायरेक्टरों को जेल भेजा जाता है, तो फिर मंदिरों में भीड़ मैनेजमेंट में विफल होने वाले संचालकों और ट्रस्टियों को जेल क्यों नहीं भेजा जा सकता। ठंडे कमरों में बैठकर मंदिर के संचालक-ट्रस्टी भक्तों से मिली दक्षिणा या दान की राशि देखकर खुश होते हैं, पर अपने ही मंदिर में भीड़ का प्रबंधन न होने के कारण लोगों की जान जा रही है, इस पर वे शायद ही कभी ध्यान देते हैं। दूसरी ओर हमारी पुलिस के पास भीड़ से निपटने के लिए कोई खास मैनेजमेंट नहीं है। इसलिए वह यहां भी अपना डंडा राज चलाना चाहती है, रतनगढ़ में यही हुआ? पुलिस द्वारा लाठीचार्ज के बाद ही हालात बेकाबू हुए।
जिस तरह से फेलिन के लिए विशेष टास्क फोर्स तैयार की गई थी, ठीक उसी तरह मंदिरों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए विशेष टास्क फोर्स का गठन किया जाना चाहिए। फेलिन के लिए जिस विशेष टास्क फोर्स का गठन किया गया था, उसके नीचे पुलिस तंत्र था। इसी तरह मंदिरों के लिए तैयार किए जाने वाले विशेष टास्क फोर्स में महिलाओं की भी भर्ती की जानी चाहिए। क्योंकि मंदिरों में महिलाओं में ही अधिक धक्का-मुक्की होती है। हर मंदिर में उत्सव तो तय होते हैं, उनका दिन भी तय होता है, इन दिनों के लिए तैयार किए जाने वाले विशेष टास्क फोर्स से काम लिया जाए, तो हालात कभी बेकाबू न हों। मंदिरों में होने वाली भीड़ और धक्का-मुक्की से कई लोग दूर रहते हैं। डाकोर जैसे प्रसिद्ध मंदिर में वृद्ध लोग नहीं जा पाते। मंदिरों की भीड़ में हमेशा निर्दोष जनता कुचली जाती है। यदि संचालक मंदिरों का मैनेजमेंट नहीं कर पाते हैं, तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। मंदिरों में होने वाली भगदड़ से होने वाली मौतों को लोग ‘भगवान की इच्छा’ बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। इस धारणा को झुठलाने का समय आ गया है। फेलिन के खिलाफ मानव समुदाय ने जिस तरह से जाग्रत होकर उसका मुकाबला किया, उसी तरह धार्मिक स्थलों के लिए भी इस तरह की व्यवस्था की आवश्यकता है। हज यात्रा से भी हमें सबक लेना चाहिए, वहां भी लाखों लोग पहुंचते हैं, पर मजाल है किसी को किसी तरह की आंच भी आ जाए। बहुत ही कम ऐसा हुआ है।
इन भगदड़ों में यही बात नजर आई कि जब कहीं हजारों-लाखों लोग जमा होते हैं, तो वहाँ पर मोब साइकोलॉजी काम करती है। विवेक काम नहीं करता। अनुशासन किसी काम का नहीं रह जाता। इंसान अपने होश-हवाश खो बैठता है। दूसरों की चिंता बिलकुल ही नहीं करता। भीड़ निर्भय हो जाती है। प्रतापगढ़ में कृपालु महाराज के आश्रम में गरीब जिस तरह से भगदड़ के शिकार हुए, उसके पीछे का भाव लालच और भय था। हरिद्वार में जो कुछ हुआ, उसके पीछे स्वार्थ और आतुरता थी। दुनिया के धार्मिक स्थल परोपकार करने का आदेश देते हैं और दूसरों की चिंता करना सिखाते हैं। किंतु इंसान भीड़ का हिस्सा बनते ही सब कुछ भूल जाता है। धार्मिक स्थलों पर आकर यदि लोग अपने साथ-साथ दूसरों की भी चिंता करने लगे, तो ऐसी दुर्घटनाओं पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। भीड़ को काबू करना मुश्किल है। पर कोई एक आवाज तो ऐसी होनी चाहिए, जिसे सुनकर लोग होश में आ जाएँ। भीड़ को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, पर उसे बेकाबू करने के लिए एक छोटी सी अफवाह ही काफी है।
डॉ. महेश परिमल
हाल में देश में हुई दो त्रासद घटनाओं से प्रबंधन की बात सामने आई है। एक तरफ समुद्री तटों पर फेलिन आया, लेकिन कुशल प्रबंधन के कारण अधिक क्षति नहीं कर पाया, तो दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के दतिया के रतनगढ़ मंदिर के पास हुई भगदड़ 120 मौतें दे गई। एक तरफ कुशल प्रबंधन और दूसरी तरफ प्रबंधन के नाम पर शून्य। एक तरफ प्रकृति हार मान गई, तो दूसरी तरफ मानवसर्जित त्रासदी कई मौतें दे गई। इससे हमें प्रबंधन का सबक तो लिया ही जाना चाहिए। आखिर क्या कारण है कि लोग मंदिरों में इतनी बड़ी संख्या में आते हैं, पर कुशल प्रबंधन न होने के कारण भगदड़ का शिकार होते हैं। हमारे देश में ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है कि मंदिरों में होने वाली भगदड़ में लोगों ने अपनी जानें गंवाई हैं। सैंकड़ों मौतें देने वाली भगदड़ से सरकार ने अभी तक कोई सबक नहीं सीखा, इसलिए आवश्यक है कि मंदिरों के लिए भी विशेष टास्क फोर्स तैयार किया जाए, ताकि इस तरह से होने वाली जन हानि से बचा जा सके। कलेक्टर, एसपी को सस्पेंड करने से कुछ नहीं होने वाला। मूल कारण की ओर जाना होगा। होना तो यह चाहिए कि सरकार पर दोष मढ़ने के पहले मंदिरों के संचालकों पर कार्रवाई होनी चाहिए। इतने श्रद्धालुओं का आगमन होगा, यह जानने के बाद भी उनका कोई कुशल प्रबंधन दिखाई नहीं दिया। कई देशों से हज यात्री लाखों की संख्या में हज के लिए जाते हैं, पर वहां की व्यवस्था देखने लायक होती है। इससे भी हमें सबक लेना चाहिए। मंदिरों में होने वाली भगदड़ मानवसर्जित भूल है। लोगों की धार्मिक संवेदनाओं के साथ धोखा न हो, पर मंदिरों को भीड़ प्रबंधन का पाठ तो पढ़ाया ही जाना चाहिए।
फेलिन ने 220 किलामीटर की रफ्तार से अपनी आमद दी, पर वह मानव संहार करने में विफल रहा। क्योंकि मानवों को बचाने की प्रणाली सतर्क थी। अचल सम्पत्ति को तो हटाया नहीं जा सकता था, पर तूफान की चपेट में आने वाले लोगों को तेजी से हटाने में सरकार ने स्फूर्ति दिखाई। मानव संहार के लिए तैयार होकर आने वाला तूफान भले ही अरबों का नुकसान कर गया हो, पर अधिक मौतें देने में विफल रहा। केवल 23 मौतें ही दे गया। यह मौतें भी पेड़ों के गिरने से हुई। यदि सरकार ने समय रहते लोगों को दूसरे सुरक्षित स्थान पर ले जाने का प्रयास नहीं किया गया होता, तो इससे अधिक जनहानि हुई होती। इस बार हमारा मौसम विभाग सही भविष्यवाणी करने और उसे समझने में कामयाब रहा। लोग हमेशा मौसम विभाग को उसकी भविष्यवाणी को लेकर मजाक उड़ाते रहे हैं, पर इस बार उसने यह बता दिया कि जिसे लोग हमेशा गलत मानते आए थे, वह अमेरिकी मौसम विभाग से भी चुस्त रहा। अमेरिकी मौसम विज्ञानियों ने इसे तो भीषण मानव संहारक बताया था। पर ऐसा नहीं हो पाया। हमारे वैज्ञानिकों ने फेलिन का व्यूहात्मक तरीके से सामना किया। दूसरी ओर मंदिरों में होने वाली धक्का-मुक्की के पीछे विभिन्न दर्शन जिम्मेदार हैं। गुजरात के सौराष्ट्र के धोराजी के एक मंदिर में छप्पनभोग के दर्शन के समय 9 महिलाएं कुचल गईं थी, इसी तरह यात्राधाम डाकोर की बात की जाए, तो वहां भीड़ प्रबंधन के प्रदर्शन हुआ था। वास्तव में मंदिरों में भीड़ इसलिए बढ़ जाती है कि मंदिरों में विभिन्न दर्शनों के लिए तैयारी की जाती है, उस दौरान मंदिर में भक्तों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। इधर तैयारी होते रहती है,उधर भीड़ बढ़ती रहती हे। मंदिरों में भगवान का श्रंगार, राजभोग आदि के लिए मंदिर के दर्शन बंद कर दिए जाते हैं। दर्शन के लिए जब मंदिर के दरवाजे खुलते हैं, तब भक्ताों की भीड़ बढ़ जाती है। एक तो दर्शन के लिए की जा रही प्रतीक्षा, दूसरी बात है आतुरता, बस इसी कारण भीड़ बेकाबू हो जाती है।
अब दीवाली करीब है, इस दौरान धार्मिक यात्राओं और मेलों का आयोजन होगा। छप्पनभाग, मुकुट के दर्शन और श्रंगार के दर्शन, मंगला आरती के लिए भक्तों की धक्का-मुक्की हो सकती है, इसलिए अभी से इस दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए। होना तो यह चाहिए कि जिन मंदिरों में संचालकों की लापरवाही से भीड़ पर काबू नहीं पाया जा सकता है और कुछ अनहोनी होती है, तो संचालकों और ट्रस्टियों को सीखचों के पीछे धकेल देना चाहिए। यह तर्क इसलिए दिया जा रहा है कि जब आर्थिक मैनेजमेंट में विफल हो जाता है, तब को-ऑपरेटिव्ह बैंकों के डायरेक्टरों को जेल भेजा जाता है, तो फिर मंदिरों में भीड़ मैनेजमेंट में विफल होने वाले संचालकों और ट्रस्टियों को जेल क्यों नहीं भेजा जा सकता। ठंडे कमरों में बैठकर मंदिर के संचालक-ट्रस्टी भक्तों से मिली दक्षिणा या दान की राशि देखकर खुश होते हैं, पर अपने ही मंदिर में भीड़ का प्रबंधन न होने के कारण लोगों की जान जा रही है, इस पर वे शायद ही कभी ध्यान देते हैं। दूसरी ओर हमारी पुलिस के पास भीड़ से निपटने के लिए कोई खास मैनेजमेंट नहीं है। इसलिए वह यहां भी अपना डंडा राज चलाना चाहती है, रतनगढ़ में यही हुआ? पुलिस द्वारा लाठीचार्ज के बाद ही हालात बेकाबू हुए।
जिस तरह से फेलिन के लिए विशेष टास्क फोर्स तैयार की गई थी, ठीक उसी तरह मंदिरों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए विशेष टास्क फोर्स का गठन किया जाना चाहिए। फेलिन के लिए जिस विशेष टास्क फोर्स का गठन किया गया था, उसके नीचे पुलिस तंत्र था। इसी तरह मंदिरों के लिए तैयार किए जाने वाले विशेष टास्क फोर्स में महिलाओं की भी भर्ती की जानी चाहिए। क्योंकि मंदिरों में महिलाओं में ही अधिक धक्का-मुक्की होती है। हर मंदिर में उत्सव तो तय होते हैं, उनका दिन भी तय होता है, इन दिनों के लिए तैयार किए जाने वाले विशेष टास्क फोर्स से काम लिया जाए, तो हालात कभी बेकाबू न हों। मंदिरों में होने वाली भीड़ और धक्का-मुक्की से कई लोग दूर रहते हैं। डाकोर जैसे प्रसिद्ध मंदिर में वृद्ध लोग नहीं जा पाते। मंदिरों की भीड़ में हमेशा निर्दोष जनता कुचली जाती है। यदि संचालक मंदिरों का मैनेजमेंट नहीं कर पाते हैं, तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। मंदिरों में होने वाली भगदड़ से होने वाली मौतों को लोग ‘भगवान की इच्छा’ बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। इस धारणा को झुठलाने का समय आ गया है। फेलिन के खिलाफ मानव समुदाय ने जिस तरह से जाग्रत होकर उसका मुकाबला किया, उसी तरह धार्मिक स्थलों के लिए भी इस तरह की व्यवस्था की आवश्यकता है। हज यात्रा से भी हमें सबक लेना चाहिए, वहां भी लाखों लोग पहुंचते हैं, पर मजाल है किसी को किसी तरह की आंच भी आ जाए। बहुत ही कम ऐसा हुआ है।
इन भगदड़ों में यही बात नजर आई कि जब कहीं हजारों-लाखों लोग जमा होते हैं, तो वहाँ पर मोब साइकोलॉजी काम करती है। विवेक काम नहीं करता। अनुशासन किसी काम का नहीं रह जाता। इंसान अपने होश-हवाश खो बैठता है। दूसरों की चिंता बिलकुल ही नहीं करता। भीड़ निर्भय हो जाती है। प्रतापगढ़ में कृपालु महाराज के आश्रम में गरीब जिस तरह से भगदड़ के शिकार हुए, उसके पीछे का भाव लालच और भय था। हरिद्वार में जो कुछ हुआ, उसके पीछे स्वार्थ और आतुरता थी। दुनिया के धार्मिक स्थल परोपकार करने का आदेश देते हैं और दूसरों की चिंता करना सिखाते हैं। किंतु इंसान भीड़ का हिस्सा बनते ही सब कुछ भूल जाता है। धार्मिक स्थलों पर आकर यदि लोग अपने साथ-साथ दूसरों की भी चिंता करने लगे, तो ऐसी दुर्घटनाओं पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। भीड़ को काबू करना मुश्किल है। पर कोई एक आवाज तो ऐसी होनी चाहिए, जिसे सुनकर लोग होश में आ जाएँ। भीड़ को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, पर उसे बेकाबू करने के लिए एक छोटी सी अफवाह ही काफी है।
डॉ. महेश परिमल
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