डॉ. महेश परिमल
दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा किया गया हाइप्रोफाइल ड्रामा खत्म हो गया। दो पुलिसकर्मियों को अवकाश पर भेजने के बाद मुख्यमंत्री मान गए। वे यह अच्छी तरह से समझ गए थे कि उनके इस आंदोलन को जनसमर्थन नहीं मिल रहा है, इसलिए उन्हें अपना नाटक तो खत्म करना ही था। कुल मिलाकर इस ड्रामे में अरविंद, अहंकार और आप का हाइप्रोफाइल रूप ही दिखाई दिया। ‘आप’ इस समय एक ऐसे वाहन पर सवार है, जिसमें ब्रेक है ही नहीं। बहाव के विरुद्ध चलने का नारा देने वाले अरविंद केजरीवाल इस समय अपनी सरकार सड़क से ही चला रहे हैं। उनका यह ड्रामा टीवी पर लोग देख ही रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस खामोश बैठी है। वह भी अरविंद केजरीवाल के खिलाफ सड़क पर उतरकर नारेबाजी कर रही है। ऐसे में यह कैसे विश्वास किया जाए कि सब कुछ ठीक चल रहा है। अब अरविंद केजरीवाल ने नया शिगूफा छोड़ा है कि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को सोने नहीं दूंगा। क्या यह अच्छी स्थिति है? दिल्ली वाले अब यही सोच रहे होंगे कि जिसे सब कुछ समझा, वह किसी काम का नहीं रहा। कांग्रेस की स्थिति ऐसी है कि न तो वह समर्थन वापस ले सकती है और न ही केजरीवाल सरकार का साथ दे सकती है। लेकिन कहा तो यही जा सकता है कि केजरीवाल शासन का काउंटडाउन शुरू हो गया है, क्योंकि संघर्ष को उन्होंने स्वयं ही आमंत्रित किया है। दिल्ली में एक ही सड़क पर केजरीवाल जिंदाबाद और केजरीवाल मुर्दाबाद के नारे एक साथ सुनाई भी पड़ रहे हैं।
कांग्रेस की लाचारी प्रजा के सामने दिखाई दे रही है। ‘आप’ लगातार कांग्रेस के खिलाफ जहर उगल रही है, कांग्रेस कु़छ नहीं कर पा रही है। दूसरी तरफ लगता है कि ‘आप’ कांग्रेस को यह बताना चाहती है कि हमें समर्थन देकर आपने कितनी बड़ी गलती की है, यह हम बताना चाहते हैं। हम ऐसे हालात पैदा करेंगे, जिससे आपको समर्थन देने की भूल समझ में आएगी। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल यह मांग कर रहे हैं कि पुलिस तंत्र पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण होना चाहिए। यह एक हद तक सही मांग हो सकती है। पर जिस तरीके से वह इस मांग को मनवाने की कोशिश कर रहे हैं, वह तरीका गलत है। क्या उन तीन पुलिस अधिकारियों को सस्पेंड करने या उनका तबादला करने की मांग को लेकर सड़क पर उतरने के पहले उन्होंने दिल्लीवासियों से पूछा था? आज दिल्ली में अराजकता की स्थिति है। ऐसे में मुख्यमंत्री स्वयं कह रहे हैं कि हां मैं अराजक हूं। उन्होंने खुले आम धारा 144 का उल्लंघन किया है। उनके सामने तीन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई आवश्यक है या 26 जनवरी की तैयारी। वे आज केंद्र सरकार के खिलाफ खुलकर सड़क पर आ गए हैं। इससे आम आदमी को कितनी परेशानी हो रही है, इसे समझने की कोशिश की है कभी उन्होंने? केजरीवाल के तमाम आक्षेपों के सामने कांग्रेस ने अपना मुंह सील लिया है। केवल एक ही नेता ने यह कहने की हिम्मत जुटाई कि केजरीवाल सरकार का काउंट डाउन शुरू हो गया है।
भारतीय राजनीति में जिस तरह से आम आदमी पार्टी आगे बढ़ रही है, उसे देखकर लगता है कि इसके नेता एक बिना ब्रेक की गाड़ी पर सवार हैं। दिल्ली में आप पार्टी भारतीय राजनीति का समीकरण बदल देगी, ऐसा समझा जाता था। पर यह नई नवेली पार्टी अपने ही चक्रव्यूह में फंस गई है। इस पार्टी के नेताओं का अहंकार और दंभ से भरा चेहरा अब दिल्लीवासियों ने देख लिया है। यह चेहरा कितना कुरूप होगा, यह तो समय ही बताएगा, पर अभी से ही यह चेहरा इतना वीभत्स है कि लोग को अपनी सोच पर ही हैरानी हो रही है। दिल्ली की प्रजा विभाजित हो गई है, एक तरफ वह पुलिस के अत्याचार से पीड़ित है, तो दूसरी तरफ पुलिस तंत्र को नियंत्रण में रखना भी चाहती है। अपने बड़बोलेपन के कारण आज केजरीवाल भले ही आम आदमी के हितों की बात कर रहे हों, पर सच तो यह है कि जिस मीडिया ने उन्हें ऊपर चढ़ाया, वही उसे उतारने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेगा। जिस तरह से अनुपम खेर का ‘आप’ से मोहभंग होने में बीस दिन भी नहीं लगे, उसी तरह दिल्लीवासियों का मोहभंग होने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। वे अपना आंदोलन दस दिनों तक चलाए रखने की बात कर रहे हैं, पर इस दौरान 26 जनवरी की तैयारी भी होनी है, तो उस स्थिति में क्या मुख्यमंत्री एक राष्ट्रीय समारोह में बाधक नहीं बनेंगे। अपनी आक्रामकता का तरीका उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन शायद वे आम आदमी की पीड़ा को समझ नहीं पा रहे हैं। आखिर वे अपनी किस नीति के तहत ऐसा कर रहे हैं, यह शायद किसी को नहीं पता। कांग्रेस लाचार है, वह उसकी लाचारगी का पूरा फायदा उठा रहे हैं। यदि यही हाल रहा तो अरविंद केजरीवाल एक ऐसे शख्स बन जाएंगे, जो आम आदमी की लड़ाई लड़ते-लड़ते इतने खास हो गए कि न वे आम रहे न ही खास।
केजरीवाल से यह पूछा जाना चाहिए कि पूरी दिल्ली को जाम करके, ट्रैफिक को अव्यवस्थित करके वे जनता में क्या संदेश देना चाहते हैं? देश के हर नागरिक को अपनी मांगों को रखने और आवाज उठाने के लिए लोकतंत्र में अधिकार है और अहिंसक धरना-प्रदर्शन उसका एक कारगर तरीका रहा है। क्या उन्हें यह पता नहीं कि इसके पहले उन्होंने जो भी आंदोलन या धरना प्रदर्शन किया, उसके लिए दिल्ली में निर्धारित स्थान पर ही किया। जब ऐसे कामों के लिए बाकायदा स्थान हैं, तो फिर वे ऐसे स्थान पर क्यों धरना दे रहे हैं, जहां से आम आदमी की दिक्कतें कम होने के बजाए बढ़ें। उनको ध्यान रखना चाहिए कि इससे अराजकता फैल सकती है। ऐसा होता है वे यह समझ लें कि जिस जनता ने उन्हें सर आंखों चढ़ाया है, वही उसे अपनी नजरों से गिराने में देर नहीं करेगी।
भारत में लोकतंत्र है और इस तंत्र के अपने कुछ कायदे-कानून हैं। उन्हें समझना होगा कि शासन उस तरह से नहीं चलता जैसे वह और उनके साथी चलाना चाह रहे हैं। माना कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथी तंत्र बदलने के लिए बेचैन हैं, लेकिन यह एक ऐसा काम नहीं जो रातों-रात हो सके। तथ्य यह भी है कि व्यवस्था बदलने का एक मात्र तरीका आंदोलन करना भी नहीं है। मुश्किल यह है कि केजरीवाल जिस तरह कांग्रेस को सबक सिखाने की बातें कर रहे हैं, उन्हें देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में कोई समझ-बूझ कायम हो सकेगी। स्थितियां और बिगड़ें, इसके पहले दोनों पक्षों में कोई सार्थक संवाद समय की मांग है, ताकि समस्याओं का हल निकले।
डॉ. महेश परिमल
दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा किया गया हाइप्रोफाइल ड्रामा खत्म हो गया। दो पुलिसकर्मियों को अवकाश पर भेजने के बाद मुख्यमंत्री मान गए। वे यह अच्छी तरह से समझ गए थे कि उनके इस आंदोलन को जनसमर्थन नहीं मिल रहा है, इसलिए उन्हें अपना नाटक तो खत्म करना ही था। कुल मिलाकर इस ड्रामे में अरविंद, अहंकार और आप का हाइप्रोफाइल रूप ही दिखाई दिया। ‘आप’ इस समय एक ऐसे वाहन पर सवार है, जिसमें ब्रेक है ही नहीं। बहाव के विरुद्ध चलने का नारा देने वाले अरविंद केजरीवाल इस समय अपनी सरकार सड़क से ही चला रहे हैं। उनका यह ड्रामा टीवी पर लोग देख ही रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस खामोश बैठी है। वह भी अरविंद केजरीवाल के खिलाफ सड़क पर उतरकर नारेबाजी कर रही है। ऐसे में यह कैसे विश्वास किया जाए कि सब कुछ ठीक चल रहा है। अब अरविंद केजरीवाल ने नया शिगूफा छोड़ा है कि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को सोने नहीं दूंगा। क्या यह अच्छी स्थिति है? दिल्ली वाले अब यही सोच रहे होंगे कि जिसे सब कुछ समझा, वह किसी काम का नहीं रहा। कांग्रेस की स्थिति ऐसी है कि न तो वह समर्थन वापस ले सकती है और न ही केजरीवाल सरकार का साथ दे सकती है। लेकिन कहा तो यही जा सकता है कि केजरीवाल शासन का काउंटडाउन शुरू हो गया है, क्योंकि संघर्ष को उन्होंने स्वयं ही आमंत्रित किया है। दिल्ली में एक ही सड़क पर केजरीवाल जिंदाबाद और केजरीवाल मुर्दाबाद के नारे एक साथ सुनाई भी पड़ रहे हैं।
कांग्रेस की लाचारी प्रजा के सामने दिखाई दे रही है। ‘आप’ लगातार कांग्रेस के खिलाफ जहर उगल रही है, कांग्रेस कु़छ नहीं कर पा रही है। दूसरी तरफ लगता है कि ‘आप’ कांग्रेस को यह बताना चाहती है कि हमें समर्थन देकर आपने कितनी बड़ी गलती की है, यह हम बताना चाहते हैं। हम ऐसे हालात पैदा करेंगे, जिससे आपको समर्थन देने की भूल समझ में आएगी। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल यह मांग कर रहे हैं कि पुलिस तंत्र पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण होना चाहिए। यह एक हद तक सही मांग हो सकती है। पर जिस तरीके से वह इस मांग को मनवाने की कोशिश कर रहे हैं, वह तरीका गलत है। क्या उन तीन पुलिस अधिकारियों को सस्पेंड करने या उनका तबादला करने की मांग को लेकर सड़क पर उतरने के पहले उन्होंने दिल्लीवासियों से पूछा था? आज दिल्ली में अराजकता की स्थिति है। ऐसे में मुख्यमंत्री स्वयं कह रहे हैं कि हां मैं अराजक हूं। उन्होंने खुले आम धारा 144 का उल्लंघन किया है। उनके सामने तीन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई आवश्यक है या 26 जनवरी की तैयारी। वे आज केंद्र सरकार के खिलाफ खुलकर सड़क पर आ गए हैं। इससे आम आदमी को कितनी परेशानी हो रही है, इसे समझने की कोशिश की है कभी उन्होंने? केजरीवाल के तमाम आक्षेपों के सामने कांग्रेस ने अपना मुंह सील लिया है। केवल एक ही नेता ने यह कहने की हिम्मत जुटाई कि केजरीवाल सरकार का काउंट डाउन शुरू हो गया है।
भारतीय राजनीति में जिस तरह से आम आदमी पार्टी आगे बढ़ रही है, उसे देखकर लगता है कि इसके नेता एक बिना ब्रेक की गाड़ी पर सवार हैं। दिल्ली में आप पार्टी भारतीय राजनीति का समीकरण बदल देगी, ऐसा समझा जाता था। पर यह नई नवेली पार्टी अपने ही चक्रव्यूह में फंस गई है। इस पार्टी के नेताओं का अहंकार और दंभ से भरा चेहरा अब दिल्लीवासियों ने देख लिया है। यह चेहरा कितना कुरूप होगा, यह तो समय ही बताएगा, पर अभी से ही यह चेहरा इतना वीभत्स है कि लोग को अपनी सोच पर ही हैरानी हो रही है। दिल्ली की प्रजा विभाजित हो गई है, एक तरफ वह पुलिस के अत्याचार से पीड़ित है, तो दूसरी तरफ पुलिस तंत्र को नियंत्रण में रखना भी चाहती है। अपने बड़बोलेपन के कारण आज केजरीवाल भले ही आम आदमी के हितों की बात कर रहे हों, पर सच तो यह है कि जिस मीडिया ने उन्हें ऊपर चढ़ाया, वही उसे उतारने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेगा। जिस तरह से अनुपम खेर का ‘आप’ से मोहभंग होने में बीस दिन भी नहीं लगे, उसी तरह दिल्लीवासियों का मोहभंग होने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। वे अपना आंदोलन दस दिनों तक चलाए रखने की बात कर रहे हैं, पर इस दौरान 26 जनवरी की तैयारी भी होनी है, तो उस स्थिति में क्या मुख्यमंत्री एक राष्ट्रीय समारोह में बाधक नहीं बनेंगे। अपनी आक्रामकता का तरीका उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन शायद वे आम आदमी की पीड़ा को समझ नहीं पा रहे हैं। आखिर वे अपनी किस नीति के तहत ऐसा कर रहे हैं, यह शायद किसी को नहीं पता। कांग्रेस लाचार है, वह उसकी लाचारगी का पूरा फायदा उठा रहे हैं। यदि यही हाल रहा तो अरविंद केजरीवाल एक ऐसे शख्स बन जाएंगे, जो आम आदमी की लड़ाई लड़ते-लड़ते इतने खास हो गए कि न वे आम रहे न ही खास।
केजरीवाल से यह पूछा जाना चाहिए कि पूरी दिल्ली को जाम करके, ट्रैफिक को अव्यवस्थित करके वे जनता में क्या संदेश देना चाहते हैं? देश के हर नागरिक को अपनी मांगों को रखने और आवाज उठाने के लिए लोकतंत्र में अधिकार है और अहिंसक धरना-प्रदर्शन उसका एक कारगर तरीका रहा है। क्या उन्हें यह पता नहीं कि इसके पहले उन्होंने जो भी आंदोलन या धरना प्रदर्शन किया, उसके लिए दिल्ली में निर्धारित स्थान पर ही किया। जब ऐसे कामों के लिए बाकायदा स्थान हैं, तो फिर वे ऐसे स्थान पर क्यों धरना दे रहे हैं, जहां से आम आदमी की दिक्कतें कम होने के बजाए बढ़ें। उनको ध्यान रखना चाहिए कि इससे अराजकता फैल सकती है। ऐसा होता है वे यह समझ लें कि जिस जनता ने उन्हें सर आंखों चढ़ाया है, वही उसे अपनी नजरों से गिराने में देर नहीं करेगी।
भारत में लोकतंत्र है और इस तंत्र के अपने कुछ कायदे-कानून हैं। उन्हें समझना होगा कि शासन उस तरह से नहीं चलता जैसे वह और उनके साथी चलाना चाह रहे हैं। माना कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथी तंत्र बदलने के लिए बेचैन हैं, लेकिन यह एक ऐसा काम नहीं जो रातों-रात हो सके। तथ्य यह भी है कि व्यवस्था बदलने का एक मात्र तरीका आंदोलन करना भी नहीं है। मुश्किल यह है कि केजरीवाल जिस तरह कांग्रेस को सबक सिखाने की बातें कर रहे हैं, उन्हें देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में कोई समझ-बूझ कायम हो सकेगी। स्थितियां और बिगड़ें, इसके पहले दोनों पक्षों में कोई सार्थक संवाद समय की मांग है, ताकि समस्याओं का हल निकले।
डॉ. महेश परिमल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें