आज दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित मेरा आलेख
वर्ष की शुरुआत ऐसी है, तो अंत कैसा होगा
डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले खबर थी कि सन् 2014 का कैलेण्डर 1947 की तरह है। 1947 तो संघर्ष का वर्ष था, पर 2014 सत्ता प्राप्त करने का वर्ष माना जा रहा है। टीवी पर हमारे प्रधानमंत्री ने महंगाई पर अंकुश रखने में अपनी विफलता दर्शाई। उसी दिन ही महंगाई को बेकाबू करने वाले कारक यानी पेट्रोल-डीजल की कीमत में बढ़ोत्तरी की गई। आश्चर्य इस बात का है कि इस पर दिल्ली में काबिज आम आदमी की पार्टी के किसी भी नेता ने एक शब्द भी नहीं कहा। क्या महंगाई आम आदमी का मुद्दा नहीं है? इस वर्ष का पहला सप्ताह महंगाई की भेंट चढ़ गया। वर्ष की शुरुआत ही ऐसी है, तो समझ लो अंत कैसा होगा?
इस वर्ष के पहले सप्ताह में जिस तरह से उपयोगी चीजों के दाम बढ़ाने वाले कारकों पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस आदि की मूल्य वृद्धि हुई है, उसी से लगता है कि यह वर्ष महंगाई बढ़ाने वाला सिद्ध होगा। दूसरी ओर आम आदमी ने जिस तरह से कांग्रेस का साथ स्वीकारा है, तो प्रधानमंत्री ने पत्र वार्ता में जो कुछ कहा, उससे दोनों ही दलों में विवाद के संकेत मिले हैं। एक बात और यह भी देखने में आई कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से सरकारी बंगला वापस करने में जल्दबाजी दिखाई, उससे प्रेिरत होकर कांग्रेस-भाजपा ने भी अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं। छत्तीसगढ़ में इसे चरितार्थ करते हुए अब वीआईपी को बंदूक की सलामी न दिए जाने का निर्णय लिया गया है। सादगी की यह तो शुरुआत है। अभी बहुत सी महंगी सादगी के दर्शन होने वाले हैं। यह वर्ष लोकसभा चुनाव का है। सभी दल 272 सीट प्राप्त करना चाहते हैं। कांग्रेस-भाजपा यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना क्षेत्रीय दलों की सहायता से सरकार बनना मुश्किल है, इसलिए क्षेत्रीय दलों को रिझाने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं। वैसे आम आदमी पार्टी ने भी कहा है कि वह भी लोकसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े करेगी। इससे भाजपा-कांग्रेस में खलबली मची है। भाजपा अब इस चिंता में है कि नरेंद्र मोदी का प्रभाव कम कैसे पड़ गया। अरविंद केजरीवाल ने किस तरह से मीडिया में अपनी पैठ बना ली। उधर कांग्रेस को इस बात की चिंता है कि दिल्ली सरकार को दिया गया समर्थन 6 माह तक वापस नहीं लिया जा सकता और इधर इन 6 महीनों में ही चुनाव हो जाएंगे और परिणाम भी निकल आएंगे।
पिछले दो दशकों से भारत की राजनीति मिली-जुली सरकार आधारित हो गई है। इस वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा को अच्छी तरह से मालूम है कि उनके अपने दम पर 272 सीटें नहीं आ सकती। क्षेत्रीय दलों को मिलाकर रखना ही पहली प्राथमिकता है। आम आदमी पार्टी भी एक सशक्त क्षेत्रीय पार्टी होने का माद्दा रखती है। देश का उद्योग जगत के लिए 2014 कई चुनौतियां लेकर आया है। उद्योग क्षेत्र के उत्पादन के आंकड़े कमजोर हैं। यदि उत्पादन बढ़ता है, तो बेरोजगारी कम हो सकती है। प्रधानमंत्री ने पत्र वार्ता में यह स्वीकार किया है कि हम बेरोजगारी की समस्या को हल करने में नाकामयाब रहे। यदि सरकार की नीतियां स्पष्ट न हो, तो आर्थिक क्षेत्र भी कमजोर साबित होता है। सरकारी नीतियों की कमजोरी के कारण ही करोड़ों के प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं। हाल ही में चार लाख करोड़ के प्रोजेक्ट को मंजूरी मिली है। इसमें सबसे बड़ी एफडीआई वाली 53 हजार करोड़ की पॉस्को परियोजना का भी समावेश होता है। यह वर्ष हमें नई सरकार देगा। पर जो भी सरकार आएगी, उसके सामने अनेक चुनौतियां होंगी। उसे प्रजा को दिए गए वादों को पूरा करना होगा। प्रजा की अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा। इस वर्ष को प्रजा की जागृति का वर्ष कहा जाए, तो गलत न होगा। क्योंकि पिछले वर्ष आम आदमी पार्टी की सफलता इसी जागृति की ओर संकेत करती है। आजादी का साल यानी 1947 की तमाम तारीखें संघर्षो से भरी पड़ी हैं। यह वर्ष सत्ता प्राप्त करने का वर्ष है। वैसे भी इस समय रसोई गैस-पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े, तो आम आदमी पार्टी ने इस पर कुछ नहीं कहा, यह भी सोचने वाली बात है। क्या इन चीजों से आम आदमी का कोई सरोकार नहीं? आखिर क्यों खामोश है, यह आम आदमी पार्टी?
मध्यम वर्ग ने यह स्वीकार कर लिया है कि राजनैतिक पार्टियों को जो कुछ करना है, करे, पर आवश्यक जिंसों के भाव नहीं बढ़ने चाहिए। यह सभी को मालूम है कि आवश्यक जिंसों सब्जी, दूध आदि की आपूर्ति वाहनों से होती है। यदि वाहनों के ईंधन की मूल्य वृद्धि होगी, तो निश्चित रूप से आवश्यक जिंसों पर असर डालेगी। सरकार आइल कंपनियों पर इतनी अधिक मेहरबान है कि उसका बोझ आप उपभोक्ताओं पर डालने में जरा भी संकोच नहीं कर रही है। तेल कंपनियों को करोड़ों-अरबों की सबसिडी देने वाली सरकार आम उपभोक्ताओं की परेशानी को शायद समझना ही नहीं चाहती। सरकार चुनाव के पहले महंगाई को बढ़ने देगी, ऐसा लगता है, क्योंकि चुनाव के पहले दाम बढ़ाने से उसका असर वोट बैंक पर पड़ेगा, इस समय यदि मूल्य वृद्धि कर दी जाती है, तो तब तक जनता शायद इसे भूल जाए। अभी तो सारे दलों की रूपरेखा आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर बन रही है। सारे दल ईमानदार प्रत्याशी की खोज में हैं। इस देश में वोट लेने के पहले सभी अपने को ईमानदार बताते हैं, पर वोट लेने के बाद यही ईमानदारी न जाने कहां फुर्र हो जाती है। इधर महंगाई बढ़ रही है, मध्यम वर्ग का बजट बिगाड़ रही है। एक तरह से उस पर ही सारी सबसिडियों का बोझ डाल रही है। आश्चर्य इस बात का है कि जिस मुद्दे पर हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी सबसे बड़ी विफलता बताई, उसी मुद्दे पर सरकार अपना खेल कर गई। महंगाई पर अंकुश न रखने की स्वीकारोक्ति प्रधानमंत्री ने सुबह 11 बजे पत्र वार्ता में की, शाम को पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ गए। उनकी स्वीकारोक्ति भी किसी दहाड़ से कम साबित नहीं हुई।
यह वर्ष हम सभी के लिए चुनौती भरा है। लोकसभा चुनाव में सही प्रत्याशी को चुनना सबसे बड़ी चुनौती है। अब तक जिसे भी चुना, वह महंगाई बढ़ाने में सहायक ही सिद्ध हुआ। विधानसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस को मात मिली हो, पर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस किस तरह से अपना पक्ष रखती है, यह भी देखना है। भाजपा भले ही उत्साहित हो, पर सच तो यह है कि आम आदमी पार्टी की सफलता ने सभी को चौंका दिया है। सभी यह सोचने के लिए विवश हो गए हैं कि क्या आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव में एक सशक्त दल के रूप में उभरेगी?
डॉ. महेश परिमल
डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले खबर थी कि सन् 2014 का कैलेण्डर 1947 की तरह है। 1947 तो संघर्ष का वर्ष था, पर 2014 सत्ता प्राप्त करने का वर्ष माना जा रहा है। टीवी पर हमारे प्रधानमंत्री ने महंगाई पर अंकुश रखने में अपनी विफलता दर्शाई। उसी दिन ही महंगाई को बेकाबू करने वाले कारक यानी पेट्रोल-डीजल की कीमत में बढ़ोत्तरी की गई। आश्चर्य इस बात का है कि इस पर दिल्ली में काबिज आम आदमी की पार्टी के किसी भी नेता ने एक शब्द भी नहीं कहा। क्या महंगाई आम आदमी का मुद्दा नहीं है? इस वर्ष का पहला सप्ताह महंगाई की भेंट चढ़ गया। वर्ष की शुरुआत ही ऐसी है, तो समझ लो अंत कैसा होगा?
इस वर्ष के पहले सप्ताह में जिस तरह से उपयोगी चीजों के दाम बढ़ाने वाले कारकों पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस आदि की मूल्य वृद्धि हुई है, उसी से लगता है कि यह वर्ष महंगाई बढ़ाने वाला सिद्ध होगा। दूसरी ओर आम आदमी ने जिस तरह से कांग्रेस का साथ स्वीकारा है, तो प्रधानमंत्री ने पत्र वार्ता में जो कुछ कहा, उससे दोनों ही दलों में विवाद के संकेत मिले हैं। एक बात और यह भी देखने में आई कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से सरकारी बंगला वापस करने में जल्दबाजी दिखाई, उससे प्रेिरत होकर कांग्रेस-भाजपा ने भी अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं। छत्तीसगढ़ में इसे चरितार्थ करते हुए अब वीआईपी को बंदूक की सलामी न दिए जाने का निर्णय लिया गया है। सादगी की यह तो शुरुआत है। अभी बहुत सी महंगी सादगी के दर्शन होने वाले हैं। यह वर्ष लोकसभा चुनाव का है। सभी दल 272 सीट प्राप्त करना चाहते हैं। कांग्रेस-भाजपा यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना क्षेत्रीय दलों की सहायता से सरकार बनना मुश्किल है, इसलिए क्षेत्रीय दलों को रिझाने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं। वैसे आम आदमी पार्टी ने भी कहा है कि वह भी लोकसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े करेगी। इससे भाजपा-कांग्रेस में खलबली मची है। भाजपा अब इस चिंता में है कि नरेंद्र मोदी का प्रभाव कम कैसे पड़ गया। अरविंद केजरीवाल ने किस तरह से मीडिया में अपनी पैठ बना ली। उधर कांग्रेस को इस बात की चिंता है कि दिल्ली सरकार को दिया गया समर्थन 6 माह तक वापस नहीं लिया जा सकता और इधर इन 6 महीनों में ही चुनाव हो जाएंगे और परिणाम भी निकल आएंगे।
पिछले दो दशकों से भारत की राजनीति मिली-जुली सरकार आधारित हो गई है। इस वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा को अच्छी तरह से मालूम है कि उनके अपने दम पर 272 सीटें नहीं आ सकती। क्षेत्रीय दलों को मिलाकर रखना ही पहली प्राथमिकता है। आम आदमी पार्टी भी एक सशक्त क्षेत्रीय पार्टी होने का माद्दा रखती है। देश का उद्योग जगत के लिए 2014 कई चुनौतियां लेकर आया है। उद्योग क्षेत्र के उत्पादन के आंकड़े कमजोर हैं। यदि उत्पादन बढ़ता है, तो बेरोजगारी कम हो सकती है। प्रधानमंत्री ने पत्र वार्ता में यह स्वीकार किया है कि हम बेरोजगारी की समस्या को हल करने में नाकामयाब रहे। यदि सरकार की नीतियां स्पष्ट न हो, तो आर्थिक क्षेत्र भी कमजोर साबित होता है। सरकारी नीतियों की कमजोरी के कारण ही करोड़ों के प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं। हाल ही में चार लाख करोड़ के प्रोजेक्ट को मंजूरी मिली है। इसमें सबसे बड़ी एफडीआई वाली 53 हजार करोड़ की पॉस्को परियोजना का भी समावेश होता है। यह वर्ष हमें नई सरकार देगा। पर जो भी सरकार आएगी, उसके सामने अनेक चुनौतियां होंगी। उसे प्रजा को दिए गए वादों को पूरा करना होगा। प्रजा की अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा। इस वर्ष को प्रजा की जागृति का वर्ष कहा जाए, तो गलत न होगा। क्योंकि पिछले वर्ष आम आदमी पार्टी की सफलता इसी जागृति की ओर संकेत करती है। आजादी का साल यानी 1947 की तमाम तारीखें संघर्षो से भरी पड़ी हैं। यह वर्ष सत्ता प्राप्त करने का वर्ष है। वैसे भी इस समय रसोई गैस-पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े, तो आम आदमी पार्टी ने इस पर कुछ नहीं कहा, यह भी सोचने वाली बात है। क्या इन चीजों से आम आदमी का कोई सरोकार नहीं? आखिर क्यों खामोश है, यह आम आदमी पार्टी?
मध्यम वर्ग ने यह स्वीकार कर लिया है कि राजनैतिक पार्टियों को जो कुछ करना है, करे, पर आवश्यक जिंसों के भाव नहीं बढ़ने चाहिए। यह सभी को मालूम है कि आवश्यक जिंसों सब्जी, दूध आदि की आपूर्ति वाहनों से होती है। यदि वाहनों के ईंधन की मूल्य वृद्धि होगी, तो निश्चित रूप से आवश्यक जिंसों पर असर डालेगी। सरकार आइल कंपनियों पर इतनी अधिक मेहरबान है कि उसका बोझ आप उपभोक्ताओं पर डालने में जरा भी संकोच नहीं कर रही है। तेल कंपनियों को करोड़ों-अरबों की सबसिडी देने वाली सरकार आम उपभोक्ताओं की परेशानी को शायद समझना ही नहीं चाहती। सरकार चुनाव के पहले महंगाई को बढ़ने देगी, ऐसा लगता है, क्योंकि चुनाव के पहले दाम बढ़ाने से उसका असर वोट बैंक पर पड़ेगा, इस समय यदि मूल्य वृद्धि कर दी जाती है, तो तब तक जनता शायद इसे भूल जाए। अभी तो सारे दलों की रूपरेखा आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर बन रही है। सारे दल ईमानदार प्रत्याशी की खोज में हैं। इस देश में वोट लेने के पहले सभी अपने को ईमानदार बताते हैं, पर वोट लेने के बाद यही ईमानदारी न जाने कहां फुर्र हो जाती है। इधर महंगाई बढ़ रही है, मध्यम वर्ग का बजट बिगाड़ रही है। एक तरह से उस पर ही सारी सबसिडियों का बोझ डाल रही है। आश्चर्य इस बात का है कि जिस मुद्दे पर हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी सबसे बड़ी विफलता बताई, उसी मुद्दे पर सरकार अपना खेल कर गई। महंगाई पर अंकुश न रखने की स्वीकारोक्ति प्रधानमंत्री ने सुबह 11 बजे पत्र वार्ता में की, शाम को पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ गए। उनकी स्वीकारोक्ति भी किसी दहाड़ से कम साबित नहीं हुई।
यह वर्ष हम सभी के लिए चुनौती भरा है। लोकसभा चुनाव में सही प्रत्याशी को चुनना सबसे बड़ी चुनौती है। अब तक जिसे भी चुना, वह महंगाई बढ़ाने में सहायक ही सिद्ध हुआ। विधानसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस को मात मिली हो, पर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस किस तरह से अपना पक्ष रखती है, यह भी देखना है। भाजपा भले ही उत्साहित हो, पर सच तो यह है कि आम आदमी पार्टी की सफलता ने सभी को चौंका दिया है। सभी यह सोचने के लिए विवश हो गए हैं कि क्या आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव में एक सशक्त दल के रूप में उभरेगी?
डॉ. महेश परिमल
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