बुधवार, 25 जनवरी 2017
कहानी - संबंधों की डोर - भारती परिमल
कहानी का अंश....
मैं जानती हूँ कि आज के समाज में बनते-बिगड़ते प्रेम संबंधों के बीच ये पुरानी प्रेम कहानी कोई अर्थ नहीं रखती लेकिन देखा जाए तो ये घटना प्रेम की उस गहराई से जुड़ी हुई है, जो हमें ईश्वर के करीब ले जाती है। इस गहराई को केवल महसूस किया जा सकता है। एक ऐसी अनहोनी जिसका घटना तय था इसलिए वह घट ही गई।
उन दोनों की पहचान केवल इतनी ही थी कि वे दोनों एक मंदिर के आँगन में एक-दूसरे से टकरा गए थे। अपनी-अपनी धुन में चलते-चलते एक-दूसरे से टकराए, भला-बुरा कहा और अपने-अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए। जाते हुए एक बार फिर एक-दूसरे को पलटकर देखा और एक प्रश्न लड़की के दिमाग में एकाएक उठ खड़ा हुआ। लड़की ने पलटकर देखते उस लड़के को रोकते हुए उसके नजदीक जाकर मुस्कराते हुए पूछा - क्या तुम सपेरे हो? और जवाब में लड़के ने भी उसी अंदाज में मुस्कराते हुए जवाब दिया - हाँ, मैं सपेरा हूँ। क्या तुम मेरी नागिन बनोगी? थोड़े-से वाद-विवाद के बाद यही दो-टूक बातचीत। बस यही थी उन दोनों की बचपन की पहचान और मुलाकात। परंतु ये मुलाकात दिमाग में अपना एक आकार दृढ़ करती जा रही थी। उम्र के एक के बाद एक पड़ाव गुजरते गए और वह यौवन की दहलीज पर आ खड़ी हुई। उमंग और उल्लास की नदी लहरा रही थी। अल्हड़पन और समझदारी का संगम उसके चेहरे पर झलक रहा था।
यह पहली बार था कि घरवालों की सहमति से ट्रेन का सफर वह अकेले ही तय कर रही थी। अपने विचारों में खोई हुई, ट्रेन की खिड़की से प्रकृति की सुंदरता निहार रही थी। तभी एक स्टेशन आया और उसके कम्पाउन्ड में आठ-दस युवकों की एक टोली चढ़ी। पहले से खाली पड़ी हुई बर्थ पर अपने-अपने रिजर्वेशन के अनुसार वे लोग अधिकारपूर्वक बैठ गए। केवल बैठे ही रहते तो उनकी तरफ कदाचित ध्यान जाता भी नहीं लेकिन वे लोग तो हँसी-मजाक, मस्ती, उछल-कूद करने लगे। उसने देखा कि उन आठ-दस युवकों में से एक युवक जो मानों उन सभी का लीडर हो, उस तरह से बातें कर रहा था और बाकी के सभी लोग उसकी बात रूचिपूर्वक सुन रहे थे। वह युवक बातचीत करते हुए अपने हाथ की उँगलियों को हिला-हिलाकर बात कहता था। यह देखकर वो एक ही पल में 8-9 वर्ष पीछे अतीत में पहुँच गई। उसे याद आया, बचपन का वह लड़का जो मंदिर के आँगन में उसके साथ इसी तरह से हाथ हिलाते हुए बात कर रहा था। उस वाद-विवाद के समय उसकी लहराते हाथों की एक उँगली में उसने साँप के आकार की अँगूठी देखी थी और यह देखकर ही उसने दुबारा उसे आवाज देकर रोका था और पूछा था कि क्या तुम सपेरे हो?
आज एकाएक ये घटना इस युवक को देखते ही उसकी आँखों के सामने आ गई। वह एकटक उसे देखती ही रही। युवक ने जब उसे देखा तो वह भी एक क्षण को तो चौंक गया और स्वाभाविक रूप से पूछ बैठा - आप क्या देख रही हैं? वह अब भी भरपूर निगाहों से उसके हाथ की उँगलियों को देखे जा रही थी। अतीत में डूबी वो उसके प्रश्न को अनसुना करते हुए पूछ बैठी - क्या तुम सपेरे हो?
अब यहाँ घट गई वो अनहोनी, जिसे जानने के लिए आप सभी व्याकुल हो रहे हैं। हाँ, उस युवक ने अगले ही क्षण उससे कहा - हाँ, मैं सपेरा हूँ। क्या तुम मेरी नागिन बनोगी? और फिर तो बचपन के बिछड़े ये दोनों साथी एक-दूसरे से मिलकर आनंदविभोर हो गए। ये चार-पाँच घंटे का सफर उनके जीवन का एक यादगार सफर बनने जा रहा था। दोनों ने दिल खोलकर एक-दूसरे से बातचीत की। बचपन के बिछड़े वे दोनों मानों जन्मों के बिछड़े हों, इसतरह एक-दूसरे से घुल-मिल गए। दोनों ने एक-दूसरे को इन 9 सालों में वियोग के हर पल में याद रखा था। ये बात उनकी आँखें कह रहीं थीं। दूसरी हकीकत थी - उस युवक के हाथ की उँगलियों में सबसे छोटी उँगली पर पहनी गई वो साँप के आकार वाली अँगूठी, जो बचपन में बड़ी उँगली में पहनी हुई थी लेकिन इस वक्त सबसे छोटी उँगली में एकदम कसी हुई होने के बाद भी पहनी हुई थी। इतने सालों बाद भी युवक ने अँगूठी को अपने से अलग नहीं किया था।
जैसे-जैसे अलग होने का समय नजदीक आ रहा था, दोनों के चेहरे पर उदासी अपना असर दिखाने लगी थी। अचानक युवक ने एक ऐसी बात कह दी जिसे सुनकर युवती की आँखों से आँसू बहने लगे। युवक ने कहा - मैं चाहूँ तो भी तुम्हें अपनी नागिन नहीं बना सकता। मुझे ब्लड कैंसर है। पिछले तीन सालों से मैं इस रोग से पीडित हूँ। अब मेरे पास केवल दो-तीन महीने का ही समय शेष है। इसलिए मैं चाहकर भी तुम्हें अपना नहीं सकता। युवती को युवक की इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। वह तो उसे अवाक होकर देखती ही रही। युवक के दोस्तों ने इस बात की पुष्टि की लेकिन उसे तो सच्चाई स्वीकार ही नहीं हो रही थी। एकाएक युवक ने हल्के-से उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए कहा - कोई बात नहीं। इन दो-तीन महीनों के लिए हम अच्छे दोस्त तो बन ही सकते हैं। क्या तुम मुझसे दोस्ती करोगी? मुझे पत्र लिखोगी? दोनों ने एक-दूसरे को एड्रेस का आदान-प्रदान किया और विदा ली।
आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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