शुक्रवार, 27 जनवरी 2017
कविता - इस ठंड में - रचना श्रीवास्तव
कविता का अंश...
न पूछो
इस ठंड में,
हम क्या-क्या किया करते थे,
कड़े मीठे अमरूद ,
हम ठेले से छटा करते थे ।
सूरज जब कोहरा ओढ़ सोता था,
हम सहेलियों संग,
पिकनिक मनाया करते थे ।
छत पे लेट,
गुनगुनी धूप लपेट,
नमक संग मूँगफली खाया करते थे ।
धूप से रहती थी कुछ यों यारी,
के जाती थी धूप जिधर,
उधर ही चटाई खिसकाया करते थे ।
ठंडी रज़ाई का गरम कोना,
ले ले बहन तो
बस झगड़ा किया करते थे।
ऐसे में माँ कह दे कोई काम, तो
बस मुँह बनाया करते थे।
गरम कुरकुरे से बैठे हों सब,
ऐसे में दरवाज़े की दस्तक,
कौन खोले उठ के,
एक दुसरे का मुँह देखा करते थे।
लद के कपड़ों से,
जब घर से निकला करते थे,
मुँह से बनते थे भाप के छल्ले,
सिगरेट पीने का भी अभिनय
किया करते थे।
जल जाए अंगीठी कभी, तो
घर के सारे काम
मनो ठप पड़ जाते थे।
सभी उसके आस पास जमा हो,
गप लड़ाया करते थे।
अपनी ओर की आँच
बढ़े कैसे, ये जतन किया करते थे।
न पूछो,
इस कड़ाके की ठंड में,
हम क्या-क्या किया करते थे।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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