मंगलवार, 24 जनवरी 2017
मुहावरों की कविता.... - राम गोपाल राही
कविता का अंश...
कोतवाल को डाँटे चोर, उल्टे बाँस बरेली ओर। तिनका चोर की दाढ़ी में, बगलें झाँक रहे किस ओर। अक्ल बड़ी या भेंस बड़ी, छोटा मुँह और बात बड़ी। नहीं झूठ के होते पाँव, दुनिया देखे खड़ी-खड़ी।
अंधेर नगरी चोपट राजा, अंधे में हो काना राजा। नाच न जाने आँगन टेढ़ा, अपनी ढपली अपना बाजा। नाम बड़े और दर्शन छोटे, छोटे भी हो जाते मोटे। पांचों उंगली घी में होती, मिट जाते है सारे टोटे। अधजल गगरी छलकत जाय, अंधी पीसे कुत्ता खाय। काला अक्षर भेंस बराबर, बात समझ में कैसे आए। हो गया सारा मिटिया मेट, जल गयी रस्सी गई न ऐंठ। नौ दिन चले अढ़ाई कोस, वही हेकड़ी गयी न ऐंठ। ज्ञानी-ध्यानी बात बतावे, तीर नहीं, तुक्का चल जावे। मुँह की माँगी मौत न मिलती, पास कुँए के प्यासा आवे। कहते सब ही लोग सुजान, दीवारों के भी होते कान। अपनी करनी पार उतरनी, बात न समझे वो नादान। इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए....
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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