शुक्रवार, 28 जुलाई 2017
भाजपा का दामन कब तक थामेंगे नीतिश?
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आज का सच

सोमवार, 24 जुलाई 2017
मायावती का इस्तीफा यानी अस्तित्व बचाने की कवायद
डॉ. महेश परिमल
खुद को दलितों का नेता बताने वाली मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। हालांकि उनका इस्तीफा अभी तक स्वीकार नहीं किया गया है। इस्तीफे का कारण उसने यह बताया है कि उन्हें बोलने का अवसर नहीं दिया जा रहा है। भाषण के दौरान भाजपा नेताओं द्वारा खलल डालने का आरोप भी उन्होने लगाया है। वास्तव में ये तो साधारण बातें हैं। इसके पीछे की कहानी कुछ और ही है। मायावती अब समझ गई हैं कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कुछ तो ऐसा करना ही पड़ेगा, जिससे वह कुछ समय के लिए सुर्खियां बटोर सके, ताकि नेतागिरी कुछ समय के लिए चल पड़े।
मायावती का कार्यकाल आगामी अप्रैल में पूर्ण हो रहा है। अब उनके पास केवल 8 महीने का समय ही बाकी है। इस समय उत्तरप्रदेश विधानसभा में बसपा के 19 विधायक ही हैं, लोकसभा में एक भी सांसद नहीं है। मायावती बहुजन समाज पार्टी की एक ऐसी अध्यक्ष हैं, जो अभी तीन महीने पहले तक उत्तर प्रदेश की राजनीति का पर्याय मानी जाती थीं। अपने आप को वह दलितों का मसीहा कहने से नहीं चूकती। एक समय ऐसा भी था, जब उनका नाम प्रधानमंत्री पद दावेदारों में था। आज उनकी हालत ऐसी हो गई है कि एक राजनीतिक बयान देने में भी उन्हें मशक्कत करनी पड़ रही है। यही उनके इस्तीफे का सही कारण है। वह अच्छी तरह से जानती हैं कि अब राज्यसभा के लिए वह चुनाव नहीं लड़ सकती, यह उनके जीवन का आखिरी कार्यकाल है। लोकसभा या विधानसभा के उपचुनाव में भी वह अपना बल नहीं दिखा पाएंगी। उसके दलित वोट इतने अधिक बिखर गए हैं कि उन्हें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। इसलिए इस्तीफा देना उनकी मजबूरी है। इससे वह अपने राजनीतिक भूतकाल के खिलाफ अपने वर्तमान की हास्यास्पद स्थिति को रेखांकित कर रहीं है।
जब भी भारतीय राजनीति का इतिहास लिखा जाएगा, तब मायावती का उदय एक चमत्कार के रूप में माना जाएगा। अत्यंत ही साधारण परिवार से आने वाली यह ‘दलित की बेटी’ ही है, परंतु सत्ता में आने के बाद अपने शाही ठाट-बाट, घमंड, अहंकार और अभिमान से भरे संवादों ने उन्हें ‘दौलत की बेटी’ बना दिया। 1993 में जब मायावती का उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रवेश हुआ और वे मुख्यमंत्री बनीं, तब पी.वी.नरसिंह राव ने इसे ‘लोकतंत्र का चमत्कार’ निरुपित किया। राजनीति में खुद को उस्ताद मानने वाली मायावती की पहचान अपने कड़वे बयानों के कारण अधिक है। दलितों को सामने रखकर उसने कई बार ऐसे बयान दिए हैं, जिसे सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता। अपने विचारों पर दृढ़ रहने के कारण उनके समर्थक उसे अपना आदर्श मानते हैं। दूसरी ओर अपनी जिद के कारण विरोधी उनसे दूर ही रहते हैं।
दलित वोट बैंक को मजबूत पहचान देने के मामले में कांशीराम और मायावती के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। मुलायम के ओबीसी कार्ड के खिलाफ मायावती ने दलित मतों को अपनी ओर मिला लेने के सफल ध्रुवीकरण के चलते अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी। उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती और बसपा को अनदेखा नहीं किया जा सकता। दलित वोट बैंक को तोड़ने की कोशिश में नाकामयाब होने के बाद मुलायम ने मुस्लिम-यादव का नया समीकरण तैयार किया और कामयाब रहे। मुलायम के इस दांव को खारिज करने के लिए मायावती ने दलित और ब्राह्मण को अपने पाले में लाने में सफलता प्राप्त की। जो वर्ग सामाजिक रूप से एक पंगत में बैठता भी नहीं था, मायावती ने उस वर्ग को एक साथ मिला दिया। तब मायावती के सफल, अनोखे और करिश्माई सोशल इंजीनियरिंग की चर्चा हुई थी।
उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में मुलायम के स्थापित वोट बैंक भाजपा की आंधी को रोकने के लिए उसने दलित-मुस्लिम वोटबैंक पर ध्यान केंद्रित किया। साधारण रूप से मुस्लिम वोट बैंक का झुकाव सपा की तरफ माना गया, पर यादव परिवार के बीच जो कलह सामने आया, तब मायावती ने मुस्लिम वोट बैंक पर घुसपैठ करनी शुरू कर दी। इसके लिए उसने 97 मुस्लिमों को टिकट दिया। चुनाव प्रचार के दौरान भी उसने मुस्लिमों की तरफ अधिक ध्यान दिया। दिल्ली के जामा मस्जिद के इमाम को भी अपने पक्ष में कर लिया। मुस्लिमों को रिझाने के लिए उनकी सभाओं में अधिक से अधिक मुस्लिम श्रोताओं को लाने का प्रयास किया गया। मुख्तार अंसारी जैसे कुख्यात अपराधी को भी बिना किसी हिचकिचाहट के उसने पार्टी में ले लिया। उनकी इस तरह की कोशिशों से उनके दलित वोट बैंक उससे दूर जाने लगे। दलित अब मायावती को बेवफा कहने लगे।
बसपा की हालत ऐसी है कि अब मायावती के अलावा दूसरी पंक्ति में कोई नेता नजर ही नहीं आता। स्वामी प्रसाद मौर्य से कुछ आशा थी, पर जब उसने भी मायावती का साथ छोड़कर भाजपा का पल्लू थाम लिया, तो तुनकमिजाज मायावती उन्हें मना नहीं पाई। उल्टे उनके खिलाफ अनाप-शनाप बयान देने लगी। उत्तर प्रदेश की दलित प्रभुत्व वाली 67 सीटों में से 53 सीटों पर भाजपा ने कब्जा जमा लिया। इस दौरान बसपा की ऐसी फजीहत हुई कि 2012 में 80 सीटों के खिलाफ उस समय यह आंकड़ा केवल 19 तक ही सीमित हो गया। लोकसभा में भी 80 सीटों में से बसपा को एक भी सीट नहीं मिली। इससे उसकी राजनीतिक हैसियत ही खो गई। अब उनके खिलाफ दलितों की नई नेतागिरी उभरने लगी। सहारनपुर के दंगों के बाद चंद्रशेखर नाम के युवा की चर्चा जोरों पर है। उसकी आक्रामकता से लोग प्रभावित हैं। राज्य के दलितों पर वे अपना प्रभाव जमा रहे हैं। पहले मायावती ने एक नारा दिया था-तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। अब ऐसा ही कुछ चंद्रशेखर कर रहे हैं। सहारनपुर में दलितों की रक्षा करने में मायावती ने देर कर दी। ऐसा चंद्रशेखर बार-बार कह रहे हैं। इस तरह से वे स्वयं को दलितों के मसीहा के रूप में प्रतिस्थापित कर रहे हैं।
मायावती का इस्तीफा अलग बात है, आज तक मायावती ने कोई भी मौखिक भाषण नहीं दिया। जो भी कहा-लिखा हुआ पढ़ा। उनकी अनुपस्थिति से किसी प्रकार की कमी किसी को नहीं खलेगी। पर उत्तर प्रदेश की राजनीति से फिसले पैरों को वह किस तरह से दृढ़ करतीं है, यही देखना बाकी रह गया है।
डॉ. महेश परिमल 
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अभिमत

गुरुवार, 13 जुलाई 2017
सीमा विवाद और भारत-चीन के रिश्ते
आज दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित मेरा आलेख
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आज का सच

शनिवार, 8 जुलाई 2017
रंग बदलने में गिरगिट को भी पीछे छोड़ देते हैं नीतिश कुमार
डॉ. महेश परिमल
राजनीति में रंग बदलना बहुत ही आसान है,
पर इतना आसान भी नहीं कि गिरगिट भी शरमा जाए। राजनीति में सफल होने के लिए नेता रंग
बदलते ही रहते हैं। पर कब कहां किस तरह से गुलाटी मारनी है या रंग बदलना है, यह बहुत
ही महत्वपूर्ण है। इसमें जरा-सी भी चूक राजनीति से बाहर कर सकती है। पर बिहार की राजनीति
करते हुए मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने एक गुलाटी से कई निशाने साधे हैं। राष्ट्रपति
पद के लिए भाजपा ने जब रामनाथ कोविंद को समर्थन देने की घोषणा करते हुए नीतिश कुमार
ने एक पत्थर से कई निशाने साधे हैं। इससे विपक्ष जो अब तक मौन साधे हुए अपनी एकता की
शान बघार रहा था, अब बिखरता नजर आ रहा है। नीतिश ने कोविंद को समर्थन की घोषणा करते
हुए जो निशाने साधे हैं, उससे विपक्ष का समीकरण बिगड़ता दिखाई दे रहा है।
भाजपा के प्रत्याशी को समर्थन देने की
घोषणा कर नीतिश ने तीन संकेत दिए हैं। पहला संदेश लालू प्रसाद यादव को जाता है कि उसका
परिवार भ्रष्टाचार से बाज आए। इसी कारण से वे जब चाहें, उनसे नाता तोड़ सकते हैं। दूसरी
तरफ उन्होंने भाजपा की नेतागिरी का संकेत दिया है कि बिहार में वे भाजपा से गठबंधन
कर सरकार बना सकते हैं। तीसरी तरफ उन्होंने विपक्ष को यह संकेत दिया है कि यदि उन्हें
2019 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं बताया, तो वे भाजपा का पल्लू पकड़
सकते हैं। अपनी 5 दशक की राजनीतिक यात्रा में नीतिश कुमार ने कई बार सोच-समझकर गुलाटी
मारी है। इससे उन्हें काफी राजनीतिक लाभ भी मिला है। विचारधारा की दृष्टि से वे समाजवादी
हैं। लालू यादव की तरह वे भी राम मनोहर लोहिया के शिष्य हैं। ‘70 के दशक में लोकनायक
जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के भ्रष्ट शासन के खिलाफ नवनिर्माण का आंदोलन शुरू
किया था, उसमें नीतिश कुमार और लालू यादव कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ थे। 1989 में
वी.पी.सिंह के जनता दल ने राजीव गांधी को हराया, उसमें भी नीतिश कुमार की महत्वपूर्ण
भूमिका थी। जनता दल का विभाजन हुआ, तब वे लालू यादव, शरद यादव और रामविलास पासवान के
साथ थे। उस समय नीतिश कुमार का राजनीतिक भविष्य डांवाडोल हो रहा था। तब उन्होंने जार्ज
फर्नाण्डीस के साथ मिलकर समता पार्टी बनाई। 1998 में जब केंद्र में भाजपा के मोर्चे
की सरकार आई, तब उन्होंने वामपंथी विचारधारा को दरकिनार करते हुए एनडीए सरकार में शामिल
हो गए। पहले तो वे रेल मंत्री बने, फिर कृषि मंत्री बने, उसके बाद 2001 से लेकर
2004 तक वे एक बार फिर रेल मंत्री पद को सुशोभित करने लगे।
सन् 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की
हार से नीतिश कुमार का राजनीतिक भविष्य एक बार फिर हिचकोले खाने लगा। 2005 में बिहार
विधानसभा चुनाव होने वाले थे। उस समय लोग लालू यादव और राबड़ी देवी के जंगलराज से त्रस्त
हो चुके थे। इस जंगलराज से मुक्ति दिलाने के नारे के साथ उन्होंने भाजपा से नाता जोड़
लिया। उनका ये पैंतरा काम आया, भाजपा से गठबंधन कर वे मुख्यमंत्री बन गए। अपने 5 साल
के कार्यकाल में नीतिश कुमार बिहार को विकास के रास्ते पर ले आए। भाजपा के साथ मिलकर
नीतिश ने बिहार को भ्रष्टाचारमुक्त प्रदेश दिया। इसी कारण वे 2005 का चुनाव जीत गए।
2002 में जब गुजरात में दंग हुए थे, तब
नीतिश कुमार केंद्र में भाजपा मोर्चे की सरकार के रेल मंत्री थे। उधर नरेंद्र मोदी
गुजरात के मुख्यमंत्री थे। गुजरात दंगों के विरोध में होने के बाद भी नीतिश कुमार ने
रेल मंत्री का पद नहीं छोड़ा था। पर जब 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का
उम्मीदवार बनाया गया, तो वे उनके विरोध में उन्होंने बिहार में भाजपा से अपना गठबंधन
तोड़ लिया। नीतिश कुमार की इस गुलाटी से उनकी सरकार खतरे में पड़ गई। तब 2014 में हुए
लोकसभा चुनाव में बिहार में जेडी(यू) से उनके
मतभेद हो गए। इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने इस्तीफा देकर एक बार फिर गुलाटी
मारी। नीतिश कुमार के इस्तीफे से जीतेन राम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बन गए।
नीतिश कुमार यह अच्छी तरह से जानते थे
कि बिहार में वे अपने दम पर अकेले चुनाव नहीं जीत सकते। हालत यह थी कि भाजपा से गठबंधन
कर नहीं सकते थे। लालू से भी उनकी पटरी नहीं बैठ पा रही थी। 2014 में जब बिहार में
विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा, तो उन्हें भाजपा को दूर रखने का बहाना मिल गया। न चाहते
हुए भी उन्होंने अपने कट्टर दुश्मन लालू यादव से हाथ मिला लिया। इन दिनों नीतिश कुमार
को अचानक ही याद आया कि वे और लालू यादव दोनों एक ही गुरु यानी राम मनोहर लोहिया के
शिष्य हैं। लालू के अलावा उन्होंने कांग्रेस के साथ भी सीटों का बंटवारा किया। भाजपा
के विरोध में एक कथित रूप से महागठबंधन बना। इससे नरेंद्र मोदी की आंधी के बाद भी बिहार
के विधानसभा चुनाव में भाजपा हार गई। नीतिश कुमार एक बार फिर अपनी पैंतरेबाजी से जीत
गए।
बिहार में नीतिश कुमार का भाजपाविरोधी
महागठबंधन सफल रहा। इसके बाद जब 2019 के लोकसभा चुनाव की बातें होने लगी, तो इस महागठबंधन
में प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम भी शामिल किया गया। इसके पीछे यही वजह मानी जाती
है कि इतनी गुलाटी मारने के बाद भी विपक्ष में उनकी छवि स्वच्छ मानी जाती है। इस दौरान
लालू यादव के परिवार का भ्रष्टाचार सामने आने लगा, तो नीतिश डर गए। अब यदि लालू यादव
के परिवार पर किसी तरह की कार्रवाई होती है, तो उसके छींटे उन पर भी पड़ेंगे ही। इसलिए
उन्होंने बड़ी चालाकी से भाजपा की तरफ सरकने की योजना बनाई। भाजपा के प्रत्याशी को
अपना समर्थन देकर वे एक तीर से कई निशाने साध रहे हैं, पर वे शायद यह भूल रहे हैं कि
भाजपा में अभी प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली नहीं है।
डॉ. महेश परिमल
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शुक्रवार, 7 जुलाई 2017
मुृम्बई महिला पुलिस की हैवानियत का एक और नमूना
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