बुधवार, 20 जनवरी 2010
वसंत.. वसंत.. कहाँ हो तुम
डॉ महेश परिमल
अभी तो पूरे देश में कड़ाके की ठंड पड़ रही है। लगता है इस बार वसंत जल्दी आ गया। बस कुछ ही दिनों की बात है, जब हमें लगेगा कि हवाओं में एक अजीब सी मादकता है। मन में उमंगें कुलांचे मार रही है। कुछ नया करने की इच्छा हो रही है। तब समझो, हमारे द्वार पर वसंत ने दस्तक दी है। इसे ही दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि अभी-अभी ठंड ने गर्मी का चुम्बन लिया है.. समझ गया बस वसंत आने वाला है। पर वसंत है कहाँ? वह तो खो गया है, सीमेंट और कांक्रीट के जंगल में। अब प्रकृति के रंग भी बदलने लगे हैं। लोग तो और भी तेज़ी से बदलने लगे हैं। अब तो उन्हें वसंत के आगमन का नहीं, बल्कि ‘वेलेंटाइन डे’ का इंतजार रहता है। उन्हें तो पता ही नहीं चलता कि वसंत कब आया और कब गया। उनके लिए तो वसंत आज भी खोया हुआ है। कहाँ खो गया है वसंत? क्या सचमुच खो गया है, तो हम क्यों उसके खोने पर आँसू बहा रहे हैं, क्या उसे ढूँढ़ने नहीं जा सकते। क्या पता हमें वह मिल ही जाए? न भी मिले, तो क्या, कुछ देर तक प्रकृति के साथ रह लेंगे, उसे भी निहार लेंगे, अब वक़्त ही कहाँ मिलता है, प्रकृति के संग रहने का। तो चलते हैं, वसंत को तलाशने। सबसे पहले तो यह जान लें कि हमें किसकी तलाश है? ‘मोस्ट वांटेड’ चेहरे भी आजकल अच्छे से याद रखने पड़ते हैं। तो फिर यह तो हमारा प्यारा वसंत है, जो इसके पहले हर साल हमारे शहर ही नहीं, हमारे देश में आता था। इस बार समझ नहीं आता कि अभी तक क्यों नहीं आया, ये वसंत। आपने कभी देखा है हमारे वसंत को? आपको भी याद नहीं। अब कैसे करें उसकी पहचान। कोई बताए भला, कैसा होता है, यह वसंत? क्या मिट्टी की गाड़ी की नायिका वसंतसेना की तरह प्राचीन नायिका है या आज की बिपाशा बसु या मल्लिका शेरावत की तरह है। कोई बता दे भला। चलो उस बुज़ुर्ग से पूछते हैं, शायद वे बता पाएँ। अरे.. यह तो कहते हैं कि मेरे जीवन का वसंत तो तब ही चला गया, जब उसे उसके बेटों ने धक्के देकर घर से निकाल दिया। ये क्या बताएँगे, इनके जीवन का वसंत तो चला गया। चलो उस वसंत भाई से पूछते हैं, आखिर कुछ सोच-समझकर ही रखा होगा माता-पिता ने उनका नाम। लो ये भी गए काम से, ये तो घड़ीसाज वसंत भाई निकले, जो कहते हैं कि जब से इलेक्ट्रॉनिक घड़ियाँ बाज़ार में आई हैं, इनका तो वसंत ही चला गया। अब क्या करें। चलो इस वसंत विहार सोसायटी में चलते हैं, यहाँ तो मिलना ही चाहिए हमारे वसंत को। कांक्रीट के इस जंगल के कोलाहल में बदबूदार गटर, धुआँ-धूल और कचरों का ढेर है, यहाँ कहाँ मिलेगा हमारा वसंत। यहाँ तो केवल शोर है, बस शोर। भागो यहाँ से.. ये आ रहीं हैं वासंती। ये जरूर बताएगी वसंत के बारे में। लो इनकी भी शिकायत है कि जब से लोगों के घरों में कपड़े धोने की मशीन और वैक्यूम क्लीनर आ गया है, हमारा तो वसंत चला ही गया। अब कहाँ मिलेगा हमें हमारा वसंत? चलो ंिहंदी के प्राध्यापक डॉ. प्रेम त्रिपाठी से पूछते हैं, वे तो उसका हुलिया बता ही देंगे। लो ये तो शुरू हो गए, वह भ्रमर का गुंजन, वह कोयल की कूक, वह शरीर की सुडौलता, वह कमर का कसाव, वह विरही प्रियतम और उन्माद में डूबी प्रेयसी, वह घटादार वृक्ष और महकते फूलों के गुच्छे, वह बहते झरने और गीत गाती लहरें, वह छलकते रंग और आनंद का मौसम, बस मन मयूर हो उठता है और मैं झूमने लगता हूँ।
हो गई ना दुविधा। इन्होंने तो हमारे वसंत का ऐसा वर्णन किया कि हम यह निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि वसंत को किस रूप में देखें? सब गड्ड-मड्ड कर दिया त्रिपाठी सर ने। चलो अँगरेज़ी साहित्य के लेक्चरर यजदानी सर से पूछते हैं, शायद उनका वसंत हमारे वसंत से मेल खाता हो? अरे ये सर तो उसे ‘स्प्रिंग सीजन’ बता रहे हैं। कहाँ मिलेगा यह ‘स्प्रिंग सीजन’ ? थक गए भाई, थोड़ी चाय पी लें, तब आगे बढ़ें। अरे इस होटल के ‘मीनू’ में किसी ‘स्ंिप्रग रोल्स’ का ज़िक्र है, शायद उसी में हमें दिख जाए वसंत। गए काम से ! ये तो नूडल्स हैं। क्या इसे ही कहते हैं वसंत?
अब तो हार गए, इस वसंत महाशय को ढँूढ़ते-ढँूढ़ते। न जाने कहाँ, किस रूप में होगा ये वसंत। हम तो नई पीढ़ी के हैं, हमें तो मालूम ही नहीं है, कैसा होता है यह वसंत। वसंत को पद्माकर ने देखा है और केशवदास ने भी। कैसे दिख गया इन्हें बगरो वसंत? कहाँ देख लिया इन्होंने इस वसंत महाशय को? अब नहीं रहा जाता हमसे, हम तो थक गए। ये तो नहीं मिले, अलबत्ता पाँव की जकड़न जरूर वसंत की परिभाषा बता देगी। अचानक भीतर से आवाज़ आई, लगा कहीं दूर से कोई कह रहा है..
कौन कहता है कि वसंत खो गया है, मेरे साथ आओ, तुम्हें तरह-तरह के वसंत से परिचय कराता हँू। ये देखो कॉलेज कैम्पस। यहाँ जुगनुओं की तरह यौवन का मेला लगा है। मैं पूछता हूँ क्या ये सभी प्रकृति के पुष्प नहीं हैं? इन्हें भी वसंत के मस्त झोकों ने अभी-अभी आकर छुआ है। यौवन का वसंत। इसकी छुअनमात्र से इनके चेहरे पर निखार आ गया है। देख रहे हो इनकी अदाएँ, ये शोखी, ये चंचलता? वसंत केवल पहाड़ों, झरनों और बागों में ही आता है, ऐसा किसने कहा? कभी भरी दोपहरी में किसी फिल्म का शो खत्म होने पर सिनेमाघर के आसपास का नजारा देखा है? वहाँ तो वसंत होता ही है, स्नेक्स खाते हुए, भुट्टे खाते हुए, चाट खाते हुए, पेस्ट्री खाते हुए। मालूम है, नहीं भाया वसंत का यह रूप आपको। तो चलो, स्कूल की छुट्टी होने वाली है, वहाँ दिखाता हूँ आपको वसंत, देखोगे तो दंग रह जाओगे, वसंत का यह रूप देखकर। वो देखो.. छुट्टी की घंटी बजी और टूट पड़ा सब्र का बाँध। कैसा भागा आ रहा है ये मासूम और अल्हड़ बचपन। पीठ पर बस्ता लिए ये बच्चे जब सड़क पर चलते हैं, तब पूरी की पूरी सड़क एक बगीचा नजर आती है और हर बच्च एक फूल। क्या इन फूलों पर नहीं दिखता आपको वसंत?
कभी किसी ग्रींिटंग कार्ड की दुकान पर खड़े होकर देखा है, इठलाती युवतियाँ हमेशा सुंदर फूलों, बाग-बगीचों और हरियाली वाले कार्ड ही पसंद करती हैं। ऐसा नहीं लगता है कि इनके भीतर भी कोई वसंत है, जो इस पसंद के रूप में बाहर आ रहा है। ऐश्वर्यशाली लोगों के घरों में तो वाल पेंटिंग के रूप में हरियाला वसंत पूरी मादकता के साथ लहकता रहता है। ये सारे तथ्य बताते हैं कि वसंत है, यहीं कहीं है, हमारे भीतर है, हम सबके भीतर है, बस ज़रा-सा दुबक गया है और हमारी आँखों से ओझल हो गया है। अगर हम अपने भीतर इस वसंत को ढूँढ़े, तो उसे देखते ही आप अनायास ही कह उठेंगे- हाँ यही है वसंत, जिसे मैं और आप न जाने कब से ढूँढ़ रहे थे। वसंत जीवन का संगीत है, ताज़गी की चहक और सौंदर्य की खनक है, परिवर्तन की पुकार और रंग उल्लास का साक्षात्कार है। जहाँ कहीं ऐसी अनुभूति होती है, वसंत वहीं है। वसंत कहीं नहीं खोया है। मेरे और आपके अंदर समाया वसंत अभी भी अपना उजाला, ताज़गी, सौंदर्य पूरी ऊर्जा के साथ चारों ओर फैला रहा है। बस खो गई है वसंत को परखने वाली हमारी नज़र। अब तो मिल गया ना हमारे ही भीतर हमारा वसंत। तो विचारों को भी यहीं मिलता है बस अंत।
डॉ महेश परिमल
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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जवाब देंहटाएंयहाँ देखकर प्रसन्नता हुई!