शनिवार, 9 अप्रैल 2011

झुकती है सरकार झुकाने वाला चाहिए



डॉ. महेश परिमल
आखिर सरकार झुक गई, जनतंत्र की विजय हुई। समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर सरकार इतनी जल्दी कैसे हार मान गई? अब तो यह तय हो गया कि सरकार से अपनी बात मनवाना हो, तो आमरण अनशन का सहारा लिया जा सकता है। हकीकत यह है कि सामने अभी चुनाव हैं, सरकार ऐसा कोई भी जोखिम नहीं लेना चाहती, जिससे उसकी छबि धूमिल हो। सरकार ने इस अवसर का पूरा लाभ उठाते हुए एक तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन को अपना समर्थन ही दे दिया। अब सरकार चुनावी सभाओं में यही कहेगी कि हम स्वयं भी भ्रष्टाचार को देश से उखाड़ फेंकने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। अण्णा साहब की बातें कमानकर हमने इस दिशा में पहला कदम उठा भी दिया है। यह सरकार की विवशताभरी चालाकी है। लोगों को इसका लब्बो-लुबाब समझना होगा। हम सतर्क रहने की आवश्यकता है। सच ही कहा गया है कि सत्ताधीशों के न्याय और अत्याचार में कोई खास फर्क नहीं होता। हमें तो यह अभी न्याय ही दिखाई दे रहा है, पर यह जुल्म की ओर बढ़ाया जाने वाला पहला कदम भी साबित हो सकता है।
देश में फैले भ्रष्टाचार को लेकर हवा का तेज झोंका अभी-अभी आया है। इसे आँधी कहना उचित नहीं होगा। यह सच है कि किशन बाबूराव हजारे यानी अण्णा हजारे का के आंदोलन को देश भर के सभी वर्गो का समर्थन मिला है। उनकी माँगे मान ली गई हैं। लेकिन अभी भी कई अवरोध हैं, जो समय रहते सामने आएँगे। आज देश में भ्रष्टाचार से हर कोई आहत है। नागरिक अपने धर्म का पालन करते हुए सरकार द्वारा तय किए गए प्रत्यक्ष और परोक्ष कर की अदायगी कर रहे हैं, मेहनत और पसीने की यह कमाई देश में ही भ्रष्ट नेता खा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आखिर एक आम नागरिक सरकार को तमाम टैक्स ही क्यों दे? अण्णा हजारे ने देश की नब्ज पर हाथ रखकर एक ऐसी समस्या को लेकर आगे बढ़ने का संकल्प लिया है, जो आज की जरूरत है। भ्रष्टाचार ने आज देश को खोखला करके रख दिया है। सरकारी अव्यवस्था का यह हाल है कि आज तक किसी भ्रष्टाचारी को ऐसी सजा नहीं हुई, जिसे अधिक समय तक याद रखा जा सके।
भारत में यदि कोई राज्य लोकपाल विधेयक को सही रूप में अमल में ला रहा है, तो वह राज्य है कर्नाटक। जी हाँ, कर्नाटक। इस राज्य के लोकपाल संतोष हेगड़े ने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। इसके बाद कर्नाटक की राजनीति में भूचाल आ गया। केंद्र में लोकपाल की माँग कोई आज की नहीं है, बल्कि यह हलचल पिछले 42 वर्षो से चल रही है। अण्णा साहब की हरकत ने नेताओं को भी हरकत में ला दिया है। अब वे इसे अधिक समय तक टाल नहीं सकते। चेयरमेन पद का अनिच्छुक होने का बयान देकर इस दिशा उन्होंने ईमानदारी का भी सुबूत दे दिया है। अभी हालत यह है कि आज हम यदि किसी मंत्री, मुख्य मंत्री या प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें पुलिस विभाग या सीबीआई में जाकर एफआईआर लिखानी होगी। ये दोनों ही विभाग सरकार के अधीन होने के कारण यहाँ आपकी रिपोर्ट लिखी जाएगी, इस पर विश्वास ही नहीं किया जा सकता। संभव है इस मामले में आपको ही गुनाहगार साबित कर दिया जाए। यदि अदालत में शिकायत की जाए, तो वहाँ समय और धन की बरबादी ही होती है। जो सामान्य आदमी के बस की बात नहीं है। दूसरी ओर अदालत का फैसला आते-आते इतना वक्त गुजर जाता है कि उस फैसले का कोई महत्व ही नहीं रहता। लोकपाल समिति ऐसी होनी चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर सरकार के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत की जा सके। शिकायत पर यह संस्था किसी भी रूप में सरकार की मोहताज न रहे। इस स्थिति में सबसे अधिक परेशानी हमारे नेताओं को ही होगी, क्योंकि वे ही सबसे भ्रष्ट हैं।
सन् 2004 के सितम्बर माह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि वे लोकपाल विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए जरा भी समय बेकार नहीं करेंगे। इस घोषणा को साढ़े 6 वर्ष हो चुके हैं, पर आज तक संसद में लोकपाल विधेयक प्रस्तुत ही नहीं किया गया। केंद्र सरकार ने लोकपाल विधेयक की समीक्षा करने के लिए मंत्रियों का एक पैनल तैयार किया था, जिसका अध्यक्ष शरद पवार को बनाया गया था। इस संबंध में अण्णा हजारे कहते हैं कि शरद पवार स्वयं एक भ्रष्ट नेता हैं, वे भ्रष्टाचार पर अंकुश किस तरह से लगा सकते हैं? अण्णा साहब तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि शरद पवार सच्चे हैं, तो अदालत में मेरे खिलाफ मान-हानि का दावा करें। वैसे अण्णा साहब ने जब-जब भूख हड़ताल का सहारा लिया है, तो एक बड़े मुद्दे को लेकर ही सामने आए हैं। उन्होंने 15 साल तक सेना में अपनी सेवाएँ दी हैं। भारत-पाकिस्तान युद्ध में उन्होंने अपनी वीरता का प्रदर्शन भी किया। सेना में रहते हुए एक बार हताशा में उन्होंने आत्महत्या की भी कोशिश की थी। 1977 में उन्होंने सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। इसके बाद वे अपने गाँव रालेगाँव सिंधी आ गए। यहाँ आकर उन्होंने अपने गाँव की तस्वीर ही बदल दी। सिंचाई की छोटी-छोटी योजनाएँ तैयार करके उन्होंने गाँव को स्वर्ग बना दिया।
अब तक अण्णा साहब ने 8 बार आमरण अनशन किया है। 19991 में उन्होंने अपने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया। उसके बाद वे आठों बार अपनी लड़ाई जीत चुके हैं। 1991 में उन्होंने वन विभाग के 42 भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ आंदोलन चलाया। ये अधिकारी गरीबों को लूटते थे। आंदोलन के कारण सरकार को इन 42 अधिकारियों का तबादला कर दिया। इसके बाद 95-96 में जब महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की युति सरकार थी, तब सरकार के दो भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ उपवास आंदोलन शुरू किया। फलस्वरूप मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने उक्त दोनों भ्रष्ट मंत्रियों के विभाग बदल दिए। इसके बाद जब महाराष्ट्र में कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस की युति सरकार सत्तारुढ़ हुई, तब अण्णा साहब ने चार भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ अपना आंदोलन चलाया। ये चार मंत्री थे, पद्म सिंह पाटिल, सुरेश दादा जैन, नवाब मलिक और विजय कुमार गावित। इनके खिलाफ अण्णा साहब का आंदोलन पूरे दस दिनों तक चला। तब सरकार ने इन मंत्रियों के खिलाफ जाँच शुरू करवाई। इसके लिए जस्टिस पी.बी. सावंत की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया गया। अंतत: इन मंत्रियों को अपना पद खोना पड़ा।
समय आ गया है अब नेताओं को अपना भ्रष्ट आचरण छोड़ना होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ इसे हवा का झोंका कहा जाएगा, सरकार की सुस्ती इस हवा को आँधी बना सकती है। सरकार इस दिशा में कुछ तेजी दिखा रही है। सरकार की पूरी कोशिश है कि लोकपाल विधेयक पूरी तरह से उनके हाथ में ही रहे। अन्यथा सभी दल के नेताओं के लिए यह मुश्किलें पैदा करेगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा साहब का यह पहला आंदोलन है। इसे काफी जनसमर्थन मिल रहा है। अभी तक उन्होंने जितने भी आंदोलन किए, सब में सफलता प्राप्त की है। कई हस्तियाँ उनके आंदोलन में शामिल हो चुकी हैं। उनके सामने मगरमच्छी आँसू बहाने पहुँचे नेताओं को नागरिकों ने ही खदेड़ दिया। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम जनता देश में फैले भ्रष्टाचार को लेकर कितनी आहत है? अण्णा साहब का यह प्रयास उन गांधीवादियों के लिए एक चुनौती है, जो अब तब ईमानदारी का लबादा ओढ़कर भ्रष्ट आचरण करते रहे हैं, या फिर पूरी तरह से गांधीवादी बनकर सरकार से टकराने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। अब वे खुलकर सामने आ सकते हैं। उन बूढ़ी हड्डियों की ताकत कुछ तो काम आएगी ही।
डॉ. महेश परिमल

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