डॉ. महेश परिमल
एक समय के माफिया डॉन अरुण गवली की किस्मत का फैसला 31 अगस्त को होगा। अपराध की दुनिया में जिनका सिक्का चलता था, जिनकी मर्जी के बिना मुम्बई का पत्ता तक न हिलता हो, वही अरुण गवली आज हत्या के आरोप के एवज में स्वयं को निर्दोष बता रहा है। मार्च 2008 में उसके इशारे पर शिवसेना के नगर सेवक कमलाकर जामसांडेकर की हत्या कर दी गई थी। इस हत्या के लिए अरुण गवली ने 30 लाख की सुपारी ली थी। मुम्बई पुलिस ने अरुण गवली को फांसी की सजा देने का अनुरोध अदालत से किया है। क्योंकि जब जामसांडेकर की हत्या हुई थी, तब गवली विधायक थे। अभी वह जेल में है। मुम्बई के डॉन को सजा होगी,ऐसा पहली बार होगा।
एक समय ऐसा भी था, जब मुम्बई में पुलिसने बल्कि माफिया का राज चलता था। वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहिम, अमर नाइक, अश्विन नाइक, बड़ा राजन, छोटा राजन, छोटा शकील, अबू सलेम, आदि गेंगस्टार्स ने मुम्बई के इलाके बांट रखे थे। इन्हें राज्य के नेताओं का भी संरक्षण प्राप्त था। मुम्बई के बिल्डर अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के लिए इनकी सहायता लेते थे। बदले में उन्हें बिल्डर लॉबी की तरफ से मोटी राशि मिलती थी। 1060-70 के दशक में ये माफिया मूल रूप से तस्करी ही करते थे। विदेशों से सोना और कपड़े लाने पर प्रतिबंध होने से ये उन चीजों को तस्करी के माध्यम से भारत लाते थे। इस धंधे में करीम लाला, वरदराजन और हाजी मस्तान का एकाधिकार था। कई कस्टम अधिकारियों को इनकी तरफ से वेतन मिलता था। दाऊद इब्राहिम कासकर के पिता मुम्बई पुलिस में हवलदार थे। दाऊद ने अपने भाई शब्बीर के साथ तस्करी का काम शुरू किया। तब ये करीम लाला की पठान गेंग के दुश्मन बन गए। 1981 में करीम लाला ने दाऊद के भाई शब्बीर की हत्या कर दी। तब दाऊद गेंग और पठान गेंग की बीच जंग छिड़ गई। दोनों गुटों के बीच कई बार तीखी झड़प हुई, जिसमें दोनों तरफ कई साथी मारे गए। इसी बीच 1986 में दाऊद के साथियों ने करीम लाला के भाई रहीम खान को मार डाला। इसके बाद करीम टूट गया। उसने दाऊद से दोस्ती कर ली और अपराध की दुनिया को अलविदा कह दिया। सन 1960 में विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन पर एक पोर्टर के तौर पर जिंदगी शुरु करने वाला वरदराजन मणिस्वामी मुदलियार देखते-देखते मुंबई अंडरवल्र्ड का एक बड़ा नाम हो गया। कांट्रेक्ट किलिंग, स्मगलिंग और डाकयार्ड से माल साफ करना वरदराजन का मुख्य धंधा था। मुंबई में मटका के धंधे में भी मुदलियार ने एक लंबा-चौड़ा नेटवर्क खड़ा कर दिया था. 1987 में जब मणि रत्नम ने वरदराजन के जीवन पर आधारित फिल्म नायकन बनाई तो वह कमल हासन के अभिनय के चलते एक अविस्मरणीय फिल्म बन गई. बाद में फिरोज खान ने हिन्दी में दयावान के नाम से उसका रिमेक बनाया। 1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से प्रभावित होकर हाजी मस्तान ने अपराध की दुनिया छोड़ दी। इसके बाद उसने राजनीति में प्रवेश किया। 1980 में वरदराजन ने भी अपराध की दुनिया छोड़कर चेन्नई चला गया।
एक-एक करके जब पुराने डॉन चले गए, तब दाऊद का पूरी मुम्बई में एकछत्र राज हो गया। 1993 में जब मायानीगरी में बम विस्फोट हुए, तब अंडरवल्र्ड के सारे समीकरण बदल गए। विस्फोट के पहले ही दाऊद पहले दुबई फिर बाद में करांची चला गया। हाऊद और छोटा राजन अलग पड़ गए। छोटा राजन ने मलेशिया में अपना कारोबार शुरू कर दिया। इससे मुम्बई में अरुण गवली और अमर नाइक को खुला मैदान मिल गया। अब दोनों दलों के बीच गेंगवार होने लगे। 18 अप्रैल 1994 को अरुण गवली के शार्पशूटर रवींद्र सावंत ने अमर नाइक के भाई अश्विन नाइक पर अदालत परिसर में गोली चलाई। गोली अश्विन की खोपड़ी को पार कर गई, फिर भी वह बच गया। इसके बाद 10 अगस्त 1996 को मुम्बई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालसकर ने अमर नाइक को एनकाउंटर में मार डाला। अश्विन नाइक की गिरफ्तारी 1999 में हुई। अश्विन जब तिहाड़ जेल में था, तब उसकी पत्नी नीता नाइक की हत्या हो गई। इस हत्या का आरोप अश्विन पर ही लगाया गया। क्योंकि उसकी पत्नी नीता बेवफा है, ऐसा शक अश्विन उस पर करता था। नीता नाइक ने शिवसेना की टिकट से चुनाव भी लड़ा था और नगरसेविका बनी थी। उधर अश्विन दस वर्ष तक जेल में रहकर 2009 में बाहर आया। अब वह अपने पुराने दिनों को याद कर मुम्बई में ही कहीं रह रहा है।
अश्विन का राज खत्म होने से सेंट्रल मुम्बई की दगली चाल में अरुण गवली का राज चलने लगा। यहां पुलिस भी उसकी इजाजत के बिना प्रवेश नहीं कर पाती थी। दगड़ी चाल की स्थिति एक किले की तरह थी। वहां 15 फीट का एक दरवाजा था। अरुण गवली की गेंग में 800 लोग थे। इन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाता था। सभी को चार हजार रुपए महीने मिलते थे। बिल्डर और व्यापारी अपने कारोबार को बढ़ाने और प्रतिद्वंद्वी को खत्म करने के लिए लोग गवली की मदद लेते, एवज में गवली इनसे मोटी राशि प्राप्त करता। इसके अलावा गवली के साथी लोगों से हफ्ता भी लेते थे। इस तरह से गवली का साम्राज्य बढ़ता गया। लेकिन उसे हमेशा पुलिस का खौफ रहता। एक तरफ माफिया और दूसरी तरफ पुलिस के दबाव के चलते अरुण गवली को लगा कि इससे तो अच्छा है कि राजनीति में ही जोर आजमाया जाए। इसके बाद 2004 में उसने अखिल भारतीय सेना के नाम से एक दल गठित किया। विधानसभा चुनाव में उसने अपने कई प्रतिनिधि खड़े किए। अन्य की तो जानकारी नहीं है, पर वह स्वयं चिंचपोकली से जीत कर विधायक बन गया। 2008 में उसने 30 लाख की सुपारी लेकर शिवसेना के कापरेरेट कमलाकर जामसांडेकर की हत्या करवा दी। जाँच में उसे आरोपी माना गया, आरोप सिद्ध होने पर उसे जेल हो गई। इस दौरान उसकी पूरी गेंग खत्म हो गई। दया नायक, विजय सालसकर, और प्रदीप शिंदे जैसे एनकाउंटर विशेषज्ञों ने अधिकांश गेंग को खत्म ही कर दिया। दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन की लड़ाई अभी भी विदेशी भूमि पर ही चल रही है। इधर कहा यह जा सकता है कि मुम्बई माफियाओं से मुक्त हो गई है।
अरुण गवली को जो भी सजा हो, पर इससे यह सिद्ध हो जाता है कि कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं। अपराध के इन सरगनाओं का हश्र यही होता है। एक समय होता है, जब इनका समय होता है। बाद में वह समय चला जाता है, तो फिर किसी और का समय आ जाता है। इस समय अपने पुराने समय को वापस नहीं लाया जा सकता। इनकी भी कहानी तो खत्म होनी ही है, सबकी तरह। पर समय इन्हें भूल जाता है। कुछ फिल्मकार इन पर फिल्म बना लेते हैं, तो उनका नाम चल निकलता है। हाजी मस्तान पर दीवार बनाई गई, जो अभिताभ बच्चन के सशक्त अभिनय के कारण चल निकली। कमल हासन ने वरदराजन की भूमिका को नायकन में जान डाल दी। पर इसी फिल्म का रिमेक जब फिरोज खान ने दयावान के नाम से बनाई, तो वह बुरी तरह से विफल रही। कुछ भी हो अपराध की दुनिया के इन बेताज बादशाहों ने फिल्मी दुनिया को मसाला तो दे ही दिया, जो लम्बे समय तक काम आता रहेगा। गवली को होने वाली सजा से यह साफ हो जाएगा कि एक दिन कानून के हाथ में सबको आना ही है।
डॉ. महेश परिमल
एक समय के माफिया डॉन अरुण गवली की किस्मत का फैसला 31 अगस्त को होगा। अपराध की दुनिया में जिनका सिक्का चलता था, जिनकी मर्जी के बिना मुम्बई का पत्ता तक न हिलता हो, वही अरुण गवली आज हत्या के आरोप के एवज में स्वयं को निर्दोष बता रहा है। मार्च 2008 में उसके इशारे पर शिवसेना के नगर सेवक कमलाकर जामसांडेकर की हत्या कर दी गई थी। इस हत्या के लिए अरुण गवली ने 30 लाख की सुपारी ली थी। मुम्बई पुलिस ने अरुण गवली को फांसी की सजा देने का अनुरोध अदालत से किया है। क्योंकि जब जामसांडेकर की हत्या हुई थी, तब गवली विधायक थे। अभी वह जेल में है। मुम्बई के डॉन को सजा होगी,ऐसा पहली बार होगा।
एक समय ऐसा भी था, जब मुम्बई में पुलिसने बल्कि माफिया का राज चलता था। वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहिम, अमर नाइक, अश्विन नाइक, बड़ा राजन, छोटा राजन, छोटा शकील, अबू सलेम, आदि गेंगस्टार्स ने मुम्बई के इलाके बांट रखे थे। इन्हें राज्य के नेताओं का भी संरक्षण प्राप्त था। मुम्बई के बिल्डर अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के लिए इनकी सहायता लेते थे। बदले में उन्हें बिल्डर लॉबी की तरफ से मोटी राशि मिलती थी। 1060-70 के दशक में ये माफिया मूल रूप से तस्करी ही करते थे। विदेशों से सोना और कपड़े लाने पर प्रतिबंध होने से ये उन चीजों को तस्करी के माध्यम से भारत लाते थे। इस धंधे में करीम लाला, वरदराजन और हाजी मस्तान का एकाधिकार था। कई कस्टम अधिकारियों को इनकी तरफ से वेतन मिलता था। दाऊद इब्राहिम कासकर के पिता मुम्बई पुलिस में हवलदार थे। दाऊद ने अपने भाई शब्बीर के साथ तस्करी का काम शुरू किया। तब ये करीम लाला की पठान गेंग के दुश्मन बन गए। 1981 में करीम लाला ने दाऊद के भाई शब्बीर की हत्या कर दी। तब दाऊद गेंग और पठान गेंग की बीच जंग छिड़ गई। दोनों गुटों के बीच कई बार तीखी झड़प हुई, जिसमें दोनों तरफ कई साथी मारे गए। इसी बीच 1986 में दाऊद के साथियों ने करीम लाला के भाई रहीम खान को मार डाला। इसके बाद करीम टूट गया। उसने दाऊद से दोस्ती कर ली और अपराध की दुनिया को अलविदा कह दिया। सन 1960 में विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन पर एक पोर्टर के तौर पर जिंदगी शुरु करने वाला वरदराजन मणिस्वामी मुदलियार देखते-देखते मुंबई अंडरवल्र्ड का एक बड़ा नाम हो गया। कांट्रेक्ट किलिंग, स्मगलिंग और डाकयार्ड से माल साफ करना वरदराजन का मुख्य धंधा था। मुंबई में मटका के धंधे में भी मुदलियार ने एक लंबा-चौड़ा नेटवर्क खड़ा कर दिया था. 1987 में जब मणि रत्नम ने वरदराजन के जीवन पर आधारित फिल्म नायकन बनाई तो वह कमल हासन के अभिनय के चलते एक अविस्मरणीय फिल्म बन गई. बाद में फिरोज खान ने हिन्दी में दयावान के नाम से उसका रिमेक बनाया। 1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से प्रभावित होकर हाजी मस्तान ने अपराध की दुनिया छोड़ दी। इसके बाद उसने राजनीति में प्रवेश किया। 1980 में वरदराजन ने भी अपराध की दुनिया छोड़कर चेन्नई चला गया।
एक-एक करके जब पुराने डॉन चले गए, तब दाऊद का पूरी मुम्बई में एकछत्र राज हो गया। 1993 में जब मायानीगरी में बम विस्फोट हुए, तब अंडरवल्र्ड के सारे समीकरण बदल गए। विस्फोट के पहले ही दाऊद पहले दुबई फिर बाद में करांची चला गया। हाऊद और छोटा राजन अलग पड़ गए। छोटा राजन ने मलेशिया में अपना कारोबार शुरू कर दिया। इससे मुम्बई में अरुण गवली और अमर नाइक को खुला मैदान मिल गया। अब दोनों दलों के बीच गेंगवार होने लगे। 18 अप्रैल 1994 को अरुण गवली के शार्पशूटर रवींद्र सावंत ने अमर नाइक के भाई अश्विन नाइक पर अदालत परिसर में गोली चलाई। गोली अश्विन की खोपड़ी को पार कर गई, फिर भी वह बच गया। इसके बाद 10 अगस्त 1996 को मुम्बई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालसकर ने अमर नाइक को एनकाउंटर में मार डाला। अश्विन नाइक की गिरफ्तारी 1999 में हुई। अश्विन जब तिहाड़ जेल में था, तब उसकी पत्नी नीता नाइक की हत्या हो गई। इस हत्या का आरोप अश्विन पर ही लगाया गया। क्योंकि उसकी पत्नी नीता बेवफा है, ऐसा शक अश्विन उस पर करता था। नीता नाइक ने शिवसेना की टिकट से चुनाव भी लड़ा था और नगरसेविका बनी थी। उधर अश्विन दस वर्ष तक जेल में रहकर 2009 में बाहर आया। अब वह अपने पुराने दिनों को याद कर मुम्बई में ही कहीं रह रहा है।
अश्विन का राज खत्म होने से सेंट्रल मुम्बई की दगली चाल में अरुण गवली का राज चलने लगा। यहां पुलिस भी उसकी इजाजत के बिना प्रवेश नहीं कर पाती थी। दगड़ी चाल की स्थिति एक किले की तरह थी। वहां 15 फीट का एक दरवाजा था। अरुण गवली की गेंग में 800 लोग थे। इन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाता था। सभी को चार हजार रुपए महीने मिलते थे। बिल्डर और व्यापारी अपने कारोबार को बढ़ाने और प्रतिद्वंद्वी को खत्म करने के लिए लोग गवली की मदद लेते, एवज में गवली इनसे मोटी राशि प्राप्त करता। इसके अलावा गवली के साथी लोगों से हफ्ता भी लेते थे। इस तरह से गवली का साम्राज्य बढ़ता गया। लेकिन उसे हमेशा पुलिस का खौफ रहता। एक तरफ माफिया और दूसरी तरफ पुलिस के दबाव के चलते अरुण गवली को लगा कि इससे तो अच्छा है कि राजनीति में ही जोर आजमाया जाए। इसके बाद 2004 में उसने अखिल भारतीय सेना के नाम से एक दल गठित किया। विधानसभा चुनाव में उसने अपने कई प्रतिनिधि खड़े किए। अन्य की तो जानकारी नहीं है, पर वह स्वयं चिंचपोकली से जीत कर विधायक बन गया। 2008 में उसने 30 लाख की सुपारी लेकर शिवसेना के कापरेरेट कमलाकर जामसांडेकर की हत्या करवा दी। जाँच में उसे आरोपी माना गया, आरोप सिद्ध होने पर उसे जेल हो गई। इस दौरान उसकी पूरी गेंग खत्म हो गई। दया नायक, विजय सालसकर, और प्रदीप शिंदे जैसे एनकाउंटर विशेषज्ञों ने अधिकांश गेंग को खत्म ही कर दिया। दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन की लड़ाई अभी भी विदेशी भूमि पर ही चल रही है। इधर कहा यह जा सकता है कि मुम्बई माफियाओं से मुक्त हो गई है।
अरुण गवली को जो भी सजा हो, पर इससे यह सिद्ध हो जाता है कि कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं। अपराध के इन सरगनाओं का हश्र यही होता है। एक समय होता है, जब इनका समय होता है। बाद में वह समय चला जाता है, तो फिर किसी और का समय आ जाता है। इस समय अपने पुराने समय को वापस नहीं लाया जा सकता। इनकी भी कहानी तो खत्म होनी ही है, सबकी तरह। पर समय इन्हें भूल जाता है। कुछ फिल्मकार इन पर फिल्म बना लेते हैं, तो उनका नाम चल निकलता है। हाजी मस्तान पर दीवार बनाई गई, जो अभिताभ बच्चन के सशक्त अभिनय के कारण चल निकली। कमल हासन ने वरदराजन की भूमिका को नायकन में जान डाल दी। पर इसी फिल्म का रिमेक जब फिरोज खान ने दयावान के नाम से बनाई, तो वह बुरी तरह से विफल रही। कुछ भी हो अपराध की दुनिया के इन बेताज बादशाहों ने फिल्मी दुनिया को मसाला तो दे ही दिया, जो लम्बे समय तक काम आता रहेगा। गवली को होने वाली सजा से यह साफ हो जाएगा कि एक दिन कानून के हाथ में सबको आना ही है।
डॉ. महेश परिमल