मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

खामोशी में दबी सिंहों की अकाल मौतें!

डॉ. महेश परिमल
पर्यावरण प्रेमियों के लिए यह दु:खभरी खबर है कि ट्रेन के पहियों के नीचे आकर दो गर्भवती सिंहनी की मौत हो गई। खबर अखबार की सुर्खियां बनकर खामोश हो गई। इससे एक बार फिर यह मुद्दा जीवित हो उठा कि गीर के जंगलों में जो सिंह जीवित हैं, उन्हें जिंदा रखने के लिए आखिर क्या उपाय किए जा रहे हैं? सरकार इस बात पर खुश हो जाती है कि गीर  के जंगलों में सिंहों की संख्या लगातार बढ़ रही है, पर सिंहों की बढ़ती संख्या के साथ क्या गीर  के जंगलों का विस्तार हो पाया? विस्तार नहीं होने के कारण ही इस समय ¨सह जंगल से बाहर आकर अपना साम्राज्य स्थापित कर रहे हैं और मौत के शिकार हो रहे हैं।
देश में जब पहली बार ट्रेन चलनी शुरू हुई, तो काले इंजन से लोग खौफ खाते थे। वह लोगों को दानव की तरह दिखाई देता था। इंजनरूपी यह काला राक्षस किसी को कुचल न दे, इसका अहसास सभी को होता था। जब इंसान उस काले राक्षस से डरता था, तो फिर जानवरों की क्या बिसात? उस समय गीर  के जंगलों से होकर रेल की पांते तो बिछ गई थी, पर ट्रेन चलनी शुरू नहीं हुई थी। पटरी पर प्रेक्टिस के लिए केवल इंजन ही दौड़ता था। ऐसे ही एक बार इंजन के ड्राईवर ने देखा कि एक सिंहनी पटरी पार कर रही है। उसने सिंहनी को बचाने की लाख कोशिशें की, पर सिंहनी आखिर इंजन के पहियों के नीचे आ ही गई। यह उस समय की पहली घटना थी, जब किसी इंजन से किसी सिंहनी की मौत हुई हो। फिर तो ऐसा हुआ कि इन जानवरों को भी वह इंजन अपने बच्चों का हत्यारा लगता। इंजन के पास आने पर वे उसके साथ दौड़ती, कई बार तो इंजन पर चढ़ने की भी कोशिश करती। कुछ दिनों पहले ही राजुला के पास दो गर्भवती सिंहनी रेल की पांतों के नीचे आकर मौत का शिकार हो गई। इससे एक बार फिर सिंहों की सुरक्षा के लिए सरकार चौकस हो गई। दस दुर्घटना के लिए रेल्वे को किसी भी रूप में दोषी नहीं ठहराया जा सकता। वह तो अपनी ही सीमा पर पटरी से होकर ही गुजर रही थी। सिंहनी ही उसके रास्ते पर आ गई। गीर  के ेजंगलों में सिंहों की संख्या लगातार बढ़ रही है, उसके एवज में जंगल का विस्तार नहीं हो पा रहा है। इसलिए सिंह अब इंसानों की बस्ती में आकर रहने लगे हैं। जंगल उन्हें छोटा पड़ने लगा है। एक तरह से सिंह अपनी लक्ष्मण रेखा पार कर रहे हैं। सिंहों को जंगल से बाहर आने से रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है, इस पर स्वयं सरकार ही खामोश है।
गीर  का जंगल एशियाई सिंहों के लिए एकमात्र सुरक्षित स्थान माना जाता है। केवल गीर  के जंगल ही नहीं, बल्कि पूरा सौराष्ट्र ही सिंहों की भूमि है। आशय यही है कि सिंह केवल गीर  के डेढ़ हजार वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल को छोड़कर अब दूसरे स्थानों पर अपना साम्राज्य स्थापित करने लगे हैं। गीर  के जंगल का इलाका उनके लिए कम पड़ने लगा है। वास्तव में देखा जाए तो सिंह मैदानी इलाकों में रहने वाले प्राणी है। अपनी खुराक के लिए सिंह भटकते रहते हैं। उन्हें जहां अनुकूल स्थान दिखाई देता है, वे वहीं बसना शुरू कर देते हैं। भले ही वह बस्ती इंसानों की ही क्यों न हो? सौराष्ट्र के करीब 1500 गांव हैं। ये गांव गीर  से बाहर होने के बाद भी यहां सिंहों के दीदार होते ही रहते हैं। सिंह यही आकर अपना शिकार करते हैं। 1990 में यहां सिंहों की संख्या 284 थी, जो अब बढ़कर 425 हो गई है। यह भले ही गर्व की बात हो, पर इस हिसाब से जंगल का विस्तार नहीं हुआ हे, यह शर्मनाक है। सरकार ने सिंहों की बस्ती बढ़ने से जितनी उत्साहित है, उतनी उसके क्षेत्र के विस्तार को लेकर नहीं है। गीर  में जितने सिंहों की संख्या बताई जा रही है, उसमें से करीब 150 सिंह जंगल से बाहर ही रह रहे हैं। सुप्रीमकोर्ट ने गीर  से सिंहों को मध्यप्रदेश भेजने का आदेश दिया है। तब से गुजरात सरकार थोड़ी सी सक्रिय दिखाई दे रही है। अब उसका कहना है कि जो सिंह गीर  की सीमा से बाहर चले गए हैं, उनके लिए वैकल्पिक आवास की व्यवस्था की जाएगी। सरकार की यह घोषणा मात्र एक आश्वासन बनकर रह गई। अभी तक इस दिशा में कुछ नहीं हो पाया है। सिंह भी सरकारी सुविधाओं के मोहताज नहीं है, उन्होंने भी सरकार के आदेश को अनदेखा कर अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए अन्य स्थानों को तलाशना शुरू कर दिया है। पर उनकी यह हरकत उनके लिए तो खतरनाक है ही, पर इंसानों के लिए किम खतरनाक नहीं है।
गीर  नेशनल पार्क(राष्ट्रीय उद्यान) 258 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। गीर  अभयारण्य 1412 वर्ग किलोमीटर का है। 411 सिंहों के लिए इतनी जगह बहुत ही कम है। इतनी जगह में केवल 300 सिंह ही रह सकते हैं। इसीलिए शेष सिंह इंसानी बस्ती की ओर रुख करने लगे हैं। सिंहों और इंसानों के बीच संघर्ष के पीछे भी यही कारण है। डार्विन का विकासवाद कहता है, जो जिस स्थान पर अपनी गुजर कर लेता है, वह उस स्थान को अपना ही समझने लगता है। इस दृष्टि से ¨सहों को जंगल से बाहर का वातावरण अच्छा लगने लगा और वे वहीं बसने लगे। यहां आकर वे अपना साम्राज्य स्थापित करने लगे। गीर  के सिंहों से उनका अब कोई वास्ता ही नहीं है। नया स्थान उनके अनुकूल होने के कारण अब उनकी बस्ती भी बढ़ने लगी है। सिंहों की बस्ती बढ़ने से गुजरात सरकार गर्व महसूस कर रही है  और सुप्रीमकोर्ट से तारीख पर तारीख मांग रही है। सरकार यदि वास्तव में सिंहों को बचाना चाहती है, तो उसे स्थान की समस्या को प्राथमिकता के साथ हल करना होगा। जो सिंह जंगल से बाहर हैं, उन क्षेत्रों को भी जंगल की सीमा में ले आए। जहां केवल ¨सह ही रहे, मानव बस्ती को वहां से हटा दिया जाए। यदि अभी इस दिशा में ध्यान नहीं दिया गया, तो संभव है सिंह इंसानी बस्ती में सीधे घुसकर लोगों का शिकार करना शुरू कर दे। अभी इसलिए आवश्यक हे क्योंकि बढ़ते औद्योगिकरण के कारण यह क्षेत्र कहीं उद्योग की चपेट में न आ जाए। सरकार को सुप्रीम कोर्ट का आदेश मान लेना चाहिए। यदि वह कह रही है कि गिर के ¨सहों को मध्यप्रदेश भेज दिया जाए, तो शेरों को मध्यप्रदेश भेज दिया जाना चाहिए। मध्यप्रदेश जाकर शेरों की वंशवृद्धि ही होगी। इसके लिए श्रेय गुजरात को ही दिया जाएगा। सिंह या शेर या कह लें, बाघ केवल गुजरात की सम्पत्ति नहीं है। उस पर पूरे देश का अधिकार है। भूतकाल में भी गुजरात से सिंह दूसरे राज्यों में भेजे गए हैं। अन्य क्षेत्रों में सिंह नहीं बस पाए, लेकिन गुजरात के गीर में सिंह बस गए और उनकी बस्ती बढ़ने लगी। अब यदि ये दूसरे राज्यों में जाकर अपने लायक माहौल तैयार करें और बस जाएं, तो इसका बुरा क्या है? एक सच्चे पर्यावरणविद की दृष्टि से देखें तो गीर में सिंहों और इंसानों के बीच संघर्ष बढ़े, इसके पहले उन्हें दूसरे राज्यों में भेज देना चाहिए। यदि हम सचमुच ¨सहों को बचाना चाहते हैं, तो सिंह कहां रहकर बच सकते हैं, इससे बड़ा सवाल यह है कि सिंह बचे रहें। इसके लिए उन्हें दूसरे राज्यों में भेजा जाना आवश्यक है। सभी ¨सह तो गीर से बाहर नहीं जा रहे हैं, केवल पांच-सात सिंह मध्यप्रदेश या किसी और राज्य में भेज दिए जाएं, तो इसमें पर्यावरण का ही लाभ होगा। यदि मध्यप्रदेश से एलर्जी है, तो गुजरात में ही ऐसे स्थानों को विकसित किया जाए, जहां ¨सह रह सकते हों। मूल बात सिंहों के बस्ती के विस्तार की है, यदि वह दूसरे राज्यों में भेजकर हो सकती है, तो भेजा जाना कतई बुरा नहीं है। सिंहों को बचाए रखने का इससे बड़ा दूसरा कोई उपाय नहीं है। गुजरात सरकार को इस दिशा में सोचना होगा। तभी पर्यावरण की रक्षा हो पाएगी।
डॉ. महेश परिमल

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