सोमवार, 12 जुलाई 2010
सरकार को शर्म क्यों नहीं आती?
डॉ. महेश परिमल
कितने शर्म की बात है कि जिन जवानों पर हम गर्व करते हैं, जिनके बल पर हम चैन की नींद सोते हैं, उनकी हालत कितनी बुरी है। देश के बाहरी और भीतरी दुश्मनों से लड़ने वाले ये जवान स्वयं कष्ट सहकर हमें निश्ंिचत कर देते हैं। पर ये भी इंसान हैं, इनकी भी भावनाएँ हैं, इन्हें भी पीड़ाओंे के समुंदर से गुजरना पड़ता है। इनका भी परिवार है, जहाँ बूढ़ी माँ, विवश पिता, शादी के लायक बहन और संतान की इच्छा रखने वाली पत्नी होगी। ये सभी सोचते हैं कि जवान जो कुछ भी कर रहे हैं, देश के लिए कर रहे हैं। उधर जवानों की हालत पर कोई आँसू बहाने वाला नहीं है। उनकी तकलीफों को जानने-समझने वाला भी कोई नहीं है। सरकार के पास घड़ियाली आँसू हैं, जिन्हें वह समय-समय पर इस्तेमाल करती है। पुराने हथियारों से हमारे ये जवान आधुनिक शस्त्रों से लैस दुश्मनों से ेलड़ते हैं। इस दौरान वे शहीद भी हो जाएँ, तो उनके शव को सही स्थान पर पहुँचाने की व्यवस्था सरकार के पास नहीं होती। आखिर सरकार कितनी विवश और लाचार क्यों होती हैं? सरकार के पास सहानुभूति जताने के लिए तमाम संसाधन हैं, लेकिन जवानों को किस हालात से गुजरना पड़ रहा है, यह जानने के लिए कोई संसाधन नहीं है। नक्सलियों से लड़ने वाले जवानों को भोजन-पानी के अलावा कई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है, ऐसा जवानों ने नहीं, बल्कि जवानों के एक शीर्षस्थ अधिकारी ने कहा है।
सीआरपीएफ की पत्रिका सीआरपीएफ समाचार में विशेष कार्यबल के महानिरीक्षक आशुतोष शुक्ला ने कहा है कि मैदान पर जवानों को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उनमें लंबी दूरी तक पैदल चलना, प्रतिकूल जमीनी हालात, उच्च आर्द्रता, गर्म जलवायु, खाने के आधारभूत सामान की कमी, पानी की कमी, भारी संख्या में मच्छरों की मौजूदगी, घने जंगल और सड़कें न होने के कारण आवागमन में परेशानी मुख्य तौर पर शामिल हैं। श्री शुक्ला ने इसके अलावा जिन चुनौतियों की पहचान की है, उनमें नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले लोग, माओवादियों द्वारा विकासात्मक कार्यों के लिए उपयोग में आने वाले कोष को हथिया लेना और दो प्रदेशों की सीमाओं पर कार्य करने में आने वाली परेशानियाँ शामिल हैं।
कितने शर्म की बात है कि छत्तीसगढ़ सरकार के पास नक्सलियों की गोली के शिकार जवानों के मृत शरीर को सही स्थान पर ले जाने के लिए वाहन नहीं मिले। यही राज्य है, जहाँ ढेर सारी कारों के साथ मुख्यमंत्री का काफिला चलता है। दो-तीन एकड़ की जमीन पर मुख्यमंत्री निवास होता है। 5 एकड़ की जमीन पर राजभवन होता है। दूसरी ओर टेंट में रहकर नक्सलियों का मुकाबला करने वाले जवानों को एक बोतल पानी के लिए 5 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का कुत्ता बीमार पड़ जाता है, तो उसे इलाज के लिए विशेष विमान से जबलपुर ले जाया जा सकता है। एक मंत्री बीमार पड़ जाए, तो तुरंत ही उसके लिए विशेष विमान की व्यवस्था हो जाती है। डॉक्टरों की फौज तैयार हो जाती है। पर नक्सलियों से जूझने के लिए हमारे जवानों को बिना किसी तैयारी के भेज दिया जाता है। जवान नाहक ही मारे जाते हैं। उसके बाद भी उनका सम्मान नहीं हो पाता। परिजन उनके मृत शरीर के अंतिम दर्शन के लिए तरसते रहते हैं और सरकारी लापरवाहियों के चलते मृत शरीर भी समय पर नहीं पहुँच पाते। किस बात पर आखिर हम गर्व करें कि हमारी सरकार संवेदनशील है। विमान से बाढ़ का दृश्य देखने वाले और कारों के काफिले के साथ चलने वाले देश के कथित वीआईपी आज हमारे लिए सबसे बड़े सरदर्द बन गए हैं।
इस देश को जितना अधिक वीआईपी ने नुकसान पहुँचाया है, उतना तो किसी ने नहीं। कितने वीआईपी ऐसे हैं, जिन्होंने बस्तर के जंगलों में जवानों के साथ रात बिताई है? उनकी जीवनचर्या को दिल से महसूस किया है? उनकी पीड़ाओं को समझने की छोटी-सी भी कोशिश की है? उनके साथ भोजन कर उनके सुख-दु:ख में शामिल होने का एक छोटा-सा प्रयास किया है। सरकारी अफसर जाते तो हैं, पर रेस्ट हाउस तक ही सीमित रहते हैं। थोड़ी-सी भी असुविधा उनके लिए बहुत बड़ी पीड़ा बन जाती है। कितने अफसर हैं, जो जमीन से जुड़े हैं, जिन्हें आदिवासियों की तमाम समस्याओं की जानकारी है। उनका निराकरण कैसे किया जाए, इसके लिए उनके पास क्या उत्तम विचार हैं? जवानों को नक्सलियों के सामने भेज देना ठीक वैसा ही है, जैसे शेर के सामने बकरी को भेजना। अत्याधुनिक हथियारों से लैस नक्सलियों के सामने जंग खाई हुई आदिकाल की बंदूकें भला कहाँ तक टिक पाएँगी?
कितना आपत्तिजनक होता है वीआईपी का सफर? जब इनका काफिला चलता है, तो सारे कानून कायदों से ऊपर होकर चलता है। पुलिस के कई जवान इनकी सुरक्षा में होते हैं। इन्हें किसी तरह की तकलीफ न हो, इसलिए पूरे साजो-सामान के साथ इनका काफिला आगे सरकता है। इस दौरान किसी को न तो सुरक्षा जवानों की हालत पर किसी को तरस आता है और न ही उनकी पीड़ाओं पर कोई मरहम लगाता है। अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उनका एक दौरा कितने के लिए त्रासदायी होता है, यह अभी तक किसी वीआईपी ने जानने की कोशिश नहीं की। ये वीआईपी शायद नहीं जानते कि समस्याओं को जानने के लिए आम आदमी बनना पड़ता है। आम आदमी बनकर ही अपनों की समस्याओं से वाकिफ हुआ जा सकता है। अपराधी को पकड़ने के लिए चुपचाप जाना पड़ता है, न कि चीखती हुई लालबत्ती गाड़ी में। ऐसे में अपराधी तो क्या उसका सुराग तक नहीं मिलेगा।
देश में जब सुरक्षा बलों की भर्ती होती है, तब उनसे तमाम प्रमाणपत्र माँगे जाते हैं, उनके शरीर का नाप लिया जाता है। उनके परिवार के लोगों की जानकारी ली जाती है। प्रशिक्षण के पहले कई परीक्षाएँ देनी होती हैं। इसके बाद गहन प्रशिक्षण का सिलसिला शुरू होता है। तब कहीं जाकर एक जवान तैयार होता है। लेकिन नक्सली बनने के लिए केवल एक ही योग्यता चाहिए, आपके भीतर पुलिस के खिलाफ कितनी ज्वाला है? इसी ज्वाला को वे लावा बनाते हैं? ताकि वह पुलिस वालों पर जब भी टूटे, लावा बनकर ही टूटे। यदि हमें नक्सलियों के खिलाफ जवान तैयार करने हैं, तो नक्सलियों द्वारा पीड़ित परिवार के सदस्यों को तैयार करना होगा। इनके भीतर की आग को बराबर जलाए रखना होगा, इनकी पूरी देखभाल करनी होगी। इस देखभाल करने में जरा भी चूक हुई कि वह नक्सलियों की शरण में चला जाएगा, फिर वहाँ उसका ऐसा ब्रेनवॉश होगा, जिससे उसे लगेगा कि उनके परिजनों को मारकर नक्सलियों ने ठीक ही किया।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि नक्सलियों के खिलाफ जिन्हें भी खड़ा करना है, पहले उसका विश्वास जीतें, फिर पूरे विश्वास के साथ उसे नक्सलियों के सामने भेजें, जवान को भी विश्वास होगा कि इस दौरान यदि मुझे कुछ हो जाता है, तो मेरे परिवार को समुचित सुविधा सरकार देगी। विश्वास की यह नन्हीं सी लौ जलती रहे, तो इसे विश्वास का सूरज बनते देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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bahut sahi kaha apne
जवाब देंहटाएंपॉल बाबा का रहस्य आप भी जानें
http://sudhirraghav.blogspot.com/
eposing post, the govt should think over it
जवाब देंहटाएंपरिमल जी ,देश के सैनिकों के प्रति आपकी चिंता जायज़ है.मैंने भी इस सब घटनाओं को करीब से देखा है. वैसे यदि आप भूले नहीं हों तो हमने पहले देशबंधु और फिर नवभारत में साथ काम किया है.मैं संजीव शर्मा हूँ.
जवाब देंहटाएंvisit my blog:www.jugaali.blogspot.com
शर्म यह किस चिड़िया का नाम है . अगर सरकारें शरमाने लगीं तो यह देश डूब जाएगा चुल्लू भर पानी में
जवाब देंहटाएंkisi ko to yaad aai. bhut bdiya ser ji.
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