शनिवार, 17 जुलाई 2010
रुपए की ब्रांडिंग की राह तलाशने जुटे ब्रांड एक्सपर्ट
रुपए के नए प्रतीक के आने के साथ ही ब्रांड विशेषज्ञ अब इसे लोकप्रिय बनाने के रास्ते तैयार करने में लग गए हैं। इन विशेषज्ञों का मानना है कि नए प्रतीक को भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए कई स्तर पर प्रचार का सहारा लेना चाहिए। इनमें तस्वीरों और वीडियो के जरिए प्रचार अभियान से लेकर सेलेब्रिटी को जोड़ने के विकल्प शामिल हैं। साथ ही विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि नोटों और सिक्कों में नए प्रतीक का इस्तेमाल कर इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है। कुछ विशेषज्ञों की राय है कि नए प्रतीक का महत्व तभी सामने आएगा जब इसे डॉलर, पौंड और यूरो की तरह कंप्यूटर के की-बोर्ड में जगह मिल जाएगी।
मेडिसन वर्ल्ड के सीएमडी सैम बलसारा का कहना है, 'रुपए के नए प्रतीक को स्थापित करने के लिए सरकार को कुछ कदम उठाने होंगे। अगर यह लोकप्रिय नहीं होगा तो इसकी स्वीकार्यता कम होगी। साथ ही नए प्रतीक को की-बोर्ड में जगह दिलाने के लिए कंप्यूटर और मोबाइल कंपनियों से भी बात करनी चाहिए, इससे नए प्रतीक की ब्रांड वैल्यू बढ़ेगी।'
फ्यूचर ब्रांड्स के सीईओ संतोष देसाई का मानना है कि लोगों को नए प्रतीक का कारण बताना सबसे पहली जरूरत है। वह कहते हैं, 'रुपए को वैश्विक मुद्रा बनाने का मकसद साफ-साफ जाहिर होना चाहिए ताकि लोग इस पर गर्व कर सकें और नए प्रतीक को स्वीकार कर सकें। नोटों और सिक्कों में नए प्रतीक को छापकर सबसे आसानी से लोगों में इसकी पहचान स्थापित की जा सकती है।'
कई विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार ने बिल्कुल सही समय पर नए प्रतीक का फैसला लिया है। मार्केटिंग कंसल्टेंसी कंपनी काउंसलेज इंडिया के मैनेजिंग पार्टनर सुहेल सेठ का कहना है, 'जब किसी चीज की फिर से ब्रांडिंग की जाती है तो आप यह संदेश देते हैं कि आप बढ़कर रहे हैं और आपमें स्थायित्व है और हमने बुरे दिनों को पीछे छोड़ दिया है। अभी तो कई देश ऐसे हैं जो वित्तीय संकट के दौर से गुजर रहे हैं।' सेठ का कहना है कि नए प्रतीक की अंतरराष्ट्रीय ब्रांडिंग ग्लोबल फाइनेंशियल टर्मिनल में रुपए के प्रतीक को शामिल करा कर किया जा सकता है। वह कहते हैं, 'यूरो को अभी भी प्रमोट किया जा रहा है। हालांकि, चीन की करेंसी कभी-कभी विवाद में फंस जाती है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभी यह लोकप्रिय नहीं है। इस मामले में हम चीन से आगे बढ़ गए हैं।'
आईआईएम बंगलुरु में मार्केटिंग के प्रोफेसर एस रमेश कुमार का मानना है कि सरकार को नए प्रतीक का सांस्कृतिक पहलू तलाश करना चाहिए। वह बताते हैं, 'पनीर हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है लेकिन जब हम इसे गाय के दूध से बना उत्पाद बताते हैं तो इसकी पहचान सामने आती है। ऐसा ही रुपए के साथ किया जाना चाहिए। करेंसी नोट के साथ लोगों के जुड़ाव को ध्यान में रखते हुए ऐसा प्रयास नए प्रतीक को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने में मदद करेगा।'
कैसे चुने गए यूरो और डॉलर के प्रतीक चिन्ह?
दुनिया की दो सबसे लोकप्रिय करेंसी डॉलर और यूरो के प्रतीकों की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग बातें सामने आती हैं। जहां यूरो के प्रतीक चिन्ह के डिजाइन के बारे में कई तरह की बातें कही जाती हैं, वहीं डॉलर के प्रतीक के बारे में भी कई किस्से सुनने को मिलते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि डॉलर का प्रतीक चिन्ह युनाइटेड स्टेट्स के शुरुआती अंग्रेजी के अक्षरों से लिया गया है। अंग्रेजी के बड़े एस पर यू को रखा गया है और इसके बाद यू के निचले हिस्से को लटका दिया गया है और इन सबके मेलजोल से डॉलर का प्रतीक चिन्ह तैयार किया गया है।
इसके बाद स्पेनिश पेसो से जुड़ा किस्सा है और इसकी भी तीन अलग-अलग कहानियां हैं। पहली कहानी यह है कि पेसो का अंग्रेजी का पहला अक्षर पी है और इस तरह बड़े पी के ऊपर और दाहिनी ओर एस रखा गया। इसे बाद में और सरल कर पी के ऊपर हिस्से को रखा गया और इसके ऊपर एस को डाल दिया गया और इस तरह डॉलर के प्रतीक को आकार मिला।
दूसरी कहानी के मुताबिक, जानेमाने स्पेनिश पेसो सिक्कों के उलटे भाग में दो पिलर थे, जो हरक्यूलस के पिलर के संकेत थे। इसके अलावा, शब्द 'प्लस अल्ट्रा' के जरिए यह संकेत दिया गया था कि हरक्यूलस के पिलर से परे कोई जमीन नहीं है। उत्तरी अमेरिका में ब्रिटिश उपनिवेशों में इस सिक्के को पिलर डॉलर कहा जाता था। हो सकता है कि दोनों पिलर डॉलर के प्रतीक चिन्ह के दो भाग रहे हों। तीसरी कहानी यह है कि पेसो को 8 वास्तविक भागों में बांट दिया गया था।
इसे संकेतक के रूप में क्क8 या /8/ की तरह पेश किया जाता था। आखिरकार 8 पर डंडा लिखे जाने का प्रचलन हो गया। दो डंडों के साथ 8 अंग्रेजी का एस अक्षर बन गया। चूंकि दो डंडों के साथ 8 ऐसे लगता था कि मानो इसे अलग कर दिया गया है, इसलिए आखिरकार एक डंडे को हटा लिया गया। डॉलर के इस प्रतीक को अमेरिकी क्लर्क 1788 से इस्तेमाल कर रहे हैं और इसका वर्तमान प्रतीक चिन्ह प्रचलन में इसके कुछ दिनों बाद आया। हालांकि इस बारे में लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं है कि यह ठीक-ठीक कब शुरू हुआ।
बहरहाल, यूरो के प्रतीक चिन्ह के शुरू होने के साल के बारे में कोई विवाद नहीं है। जी हां, यह 1995 में शुरू हुआ था। हालांकि इस बात पर विवाद अवश्य है कि इसके प्रतीक चिन्ह को आकार देने का श्रेय किसको जाता है। यूरोपीय यूनियन की वेबसाइट के मुताबिक, यूरो का प्रतीक चिन्ह ग्रीक अक्षर 'एप्सिलॉन' से प्रेरित होकर बनाया गया है। इस प्रतीक को पेश करते हुए यूरोपीय कमीशन के तत्कालीन प्रेसिडेंट जैक्स सैंटर ने कहा था, 'यह चिन्ह लैटिन वर्णमाला में यूरोप के पहले अक्षर को भी दिखाता है जबकि प्रतीक के साथ चलने वाली दो समानांतर लाइनें स्थायित्व का संकेतक हैं। यूरो के प्रतीक चिन्ह को चुनने की शुरुआती प्रक्रिया में 30 डिजाइन पर विचार किया गया। इसके बाद इन डिजाइन पर पब्लिक सर्वे के बाद 10 का चुनाव किया गया। फिर इनमें से 2 को चुना गया। इसके बाद सैंटर और यूरो के चयन के लिए जिम्मेदार यूरोपीय कमिश्नर वाई टी जी सिलगाय ने यूरो का प्रतीक चिन्ह का अंतिम चयन किया।
IIT के इंजीनियर ने दी रुपए को नई पहचान
धर्मलिंगम उदय कुमार को गुरुवार की सुबह गुवाहाटी के लिए उड़ान भरनी थी। शुक्रवार से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), गुवाहाटी के डिजाइन विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर उनकी नई जॉब शुरू हो रही है। पांच साल तक औद्योगिक डिजाइन में देश में पहली पीएचडी करने के बाद आईआईटी मुंबई के कैंपस को वह अलविदा कह रहे थे। उनके फोन पर कॉल्स की बाढ़ सुबह से ही आ चुकी थी। उन्होंने रुपए का जो डिजाइन बनाया था, उसे कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। उनके डिजाइन किए गए सिंबल में देवनागरी और रोमन स्क्रिप्ट दोनों के चिन्हों का इस्तेमाल किया गया है, इससे देश की उभरती हुई अर्थव्यवस्था का पता चलता है।
यह यूनिकोड, कंप्यूटर कीबोर्ड में भी लाया जाएगा। साथ ही, एक अलग कुंजी पर इस सिंबल को जगह दी जाएगी और इसके बाद इसे पूरी दुनिया में पहचाना जाएगा। कोई डिजाइनर किसी राष्ट्र की जिंदगी में केवल एक बार ही करेंसी के प्रतीक को डिजाइन करता है। पूरे दिन उनका फोन बजता रहा। उन्होंने फ्लाइट नहीं पकड़ी। शाम को टेलीविजन स्टूडियो में ले जाने के लिए कारें उनके दरवाजे पर थीं। वह अगले दिन गुवाहाटी जाएंगे। चेन्नई में 10 अक्टूबर 1978 को पैदा हुए कुमार का परिवार तंजावुर के एक कस्बे से आता है। मंदिरों में सदियों पुरानी चित्रकारी और डिजाइनों को देखकर ही शायद उनके मन में पहली बार कला और डिजाइन के लिए विचार पैदा हुए होंगे।
चेन्नई और तंजावुर के अद्भुत मंदिरों से ही उन्हें आर्किटेक्चर पढ़ने की प्रेरणा मिली होगी। उन्होंने आर्किचेक्चर की पढ़ाई अन्ना यूनिवर्सिटी में की। इसके बाद उन्होंने आर्किचेक्चर में मास्टर की डिग्री आईआईटी मुंबई से पूरी की। जब औद्योगिक डिजाइन सेंटर मुंबई के आईआईटी कैंपस में शुरू हुआ तो उन्होंने वहां से पीएचडी शुरू की। उन्होंने तमिल स्क्रिप्ट के प्रादुर्भाव पर अपना काम शुरू किया। कुमार ने ईटी को बताया, 'मैं तमिल टाइपोग्राफी के काम को जारी रखना चाहता हूं। मुझे लगता है कि हमारे प्रतीकों पर पश्चिम का भारी प्रभाव है। मैं भारतीय स्क्रिप्ट पर और काम करना चाहता हूं।'
डिजाइन के लिए उन्होंने कोरियाई वॉन, ब्रिटेन के पौंड स्टर्लिंग, यूरो, लीरा, पेसो और दूसरी करेंसी से प्रेरणा ली। डिजाइन के लिए अवॉर्ड जीतने पर उन्होंने कहा, 'अंतरराष्ट्रीय करेंसी सिंबल की बात करें तो यह उनसे जुड़ता हुआ नजर आता है। साथ ही साथ इसमें भारतीय विशिष्टता भी है।' अंतरराष्ट्रीय करेंसी में उन्हें सबसे ज्यादा येन पसंद है क्योंकि यह देश को सबसे ज्यादा प्रकट करता है। 31 साल के इस अविवाहित ने इंफोमीडिया के साथ दो साल तक सीनियर डिजाइनर के तौर पर काम किया है।
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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ह आपने बहुत अच्छी जानकारी दी ! आभार !
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