गुरुवार, 10 मार्च 2011
मौत का कारण बनते अमेरिकी डॉक्टर
डॉ. महेश परिमल
हाल ही में अमेरिका में एक किताब आई है, इस किताब ने डॉक्टरों में हलचल पैदा कर दी है। किताब के लेखक भी एक डॉक्टर ही हैं। अपनी किताब में उन्होंने न केवल डॉक्टरों, बल्कि अमेरिकी सरकार और उस पर हावी दवा कंपनियों को भी आड़े हाथों लिया है। किताब ने अमेरिकी सरकार के सामने कई सवालिया निशान लगा दिए हैं। सरकार और चिकित्सकीय पेशे से जुड़े लोग हैरत में हैं कि आखिर एक डॉक्टर भला दूसरे डॉक्टरों की पोल कैसे खोल सकता है? इस विवादास्पद किताब का नाम है डेथ बॉय प्रिस्किप्शन’, और इसके लेखक हैं डॉ. रे ट्रेण्ड। अपनी किताब में डॉ. ट्रेण्ड ने लिखा है कि अमेरिका में एलोपेथी दवाओं से हर वर्ष 90 हजार मरीजों की मौत होती है। किताब में यह आरोप लगाया गया है कि अमेरिका सरकार फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन(एफडीए) के हाथों की कठपुतली बन गई है। यही कारण है कि लोग डॉक्टरों की दवाओं को ग्रहण करने के बाद अधिक मर रहे हैं।
कुछ दिनों पहले ही यूरोपीय देशों में भारत की आयुर्वेदिक दवाओं को बदनाम करने का अभियान चलाया जा रहा है। यह अभियान विदेशी दवा कंपनियाँ चला रही हैं। भारत सरकार को इसकी जानकारी हे, वह भी विदेशी दवाओं पर देश में प्रतिबंध लगाकर इसका जवाब दे सकती है। किंतु प्रबल विरोधी और घोटालों के बीच फँसी सरकार को इस ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिल रहा है। इस किताब में यह दावा किया गया है कि अमेरिका में डॉक्टर के प्रिस्किप्शन के अनुसार दवा लेने के कारण हर वर्ष 20 लाख मरीज इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराए जाते हैं। इनमें से 90 हजार मरीजों की मौत हो जाती है। भारत में एलोपैथी से कितने मरीजों की मौत हर साल होती है, इसका सर्वेक्षण अभी तक नहीं कराया गया है। यदि ईमानदारी से इस दिशा में सर्वेक्षण कराया जाए, तो हमारे देश का आँकड़ा अमेरिका के आँकडुे को पार कर जाएगा, यह तय है।
डॉ. रे स्ट्रेण्ड ने इस किताब को लिखने के पहले 1998 मेंअमेरिकन मेडिकल ऐसोसिएशन जर्नल में प्रकाशित एक लेख पढ़ा, जिसमें यह बताया गया था कि डॉक्टर द्वारा लिखे गए परचे के अनुसार दवाएँ लेने के कारण अमेरिका में इतने अधिक मरीजों की मौत होती है, जो पूरे अमेरिका में होने वाली मौतों में यह चौथे नम्बर का कारण है। यदि इसमें गलत तरीके से लिखे गए प्रिस्क्रिप्शन से होने वाली मौतों को भी शामिल कर लिया जाए, तो यह आँकड़ा पूरी मौतों में से तीसरे नम्बर का कारण बन सकता है। इस लेख को पढ़ने के बाद डॉ. स्ट्रेण्ड को लगा कि एक ऐसी किताब लिखी जानी चाहिए, जिसमें इस तरह की मौतों का जिक्र हो। इन्होंने अपनी किताब में दवा कंपनियों के डॉक्टरों और अमेरिकी सरकार के फूड एवं ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन पर जरा भी विश्वास न करने की चेतावनी दी है। डॉ. का कहना है कि इंसान को पूरी कोशिश करनी चाहिए कि इस तरह की दवाएँ ली ही न जाएँ। अपनी किताब में डॉ.स्ट्रेण्ड ने अमेरिकी फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि जब भी कोई नई दवा बाजार में आती है, तो उसके पहले एफडीए उस दवा को बेचने की अनुमति देती है। कई बार इसमें उससे गलती हो जाती है। दवा के साइड इफैक्ट की जानकारी न होने के कारण दवा कंपनियाँ इंसानों पर इसका प्रयोग करती हैं, कहीं यह इंसानों के लिए हानिप्रद तो नहीं? इसके बाद भी यदि किसी दवा के कारण इंसानों को हानि होती है, तो इसके लिए न तो डॉक्टरों को दोषी माना जाता है और न ही किसी अन्य को। जबकि नियम यह है कि जब भी कोई दवा हानिकारक लगे, तो डॉक्टरों का यह कर्तव्य है कि वह एफडीए को इसकी सूचना दे।
एक दवा का उदाहरण देते हुए डॉ. स्ट्रेण्ड कहते हैं कि सेल्डेन नामक एक दवा है, इसका संयोजन ऐरिथ्रोमाइसिन नाम दवाई के साथ किया जाता है। इस कारण यह दवा सर्दी, एलर्जी होने लगी, इस दवा को बाजार से पीछे खिंचने में सरकार को 12 वर्ष लग गए, इस दौरान हजारों लोग मौत के शिकार हो गए। इसी तरह बायडोल नामक दवा लेने के कारण कई लोगों की किडनी फेल हो गई, इसकी जानकारी कई साल बाद हुई। अभी दो वर्ष पहले ही इस दवा को बाजार से वापस खींचा गया है।
आज बाजार में ऐसी कई दवाएँ हैं, जिससे मानव शरीर को नुकसान हो रहा है, इसकी जानकारी हमें नहीं है। इन दवाओं के दूरगामी दुष्परिणाम की जानकारी डॉक्टरों को भी नहीं होती। कई बार ऐसा भी होता है कि अमेरिका के एफडी विभाग की सतर्कता के कारण वहाँ हानिकारक दवाएँ अमेरिकी बाजार से वापस खीेच ली जाती हैं, किंतु वही दवाएँ हमारे देश में खुलेआम बिकती हैं और दवा कंपनियाँ करोड़ों के वारे-न्यारे करती हैं। जब भावी डॉक्टर मेडिकल कॉलेज में होते हैं, तो उन्हें यह कहा जाता है कि जब भी आपके सामने कोई मरीज आता है, तो उसे तुरंत दवाएँ न दें, पहले उसकी जीवन शैली समझें, फिर उसे जीवन शैली को बदलने की सलाह दें। मान लो कोई मरीज उच्च रक्तचाप या मोटापे का शिकार है, तो डॉक्टर उसे अपनी जीवन शैली बदलने की सलाह दे, ताकि वह आराम महसूस करे। यदि उसे तुरंत दवाएँ दे दी जाएँ, तो संभव है कि उक्त दवाओं का उस पर गलत असर हो। ऐसे मरीजों के लिए कई बार डॉक्टर गैरजरुरी दवाएँ लिख देते हैं, इसके लिए दवा कंपनियों के दलाल ही दोषी हैं, जो डॉक्टरों को कई प्रकार के लुभावने गिफ्ट देकर उन्हें इस तरह की दवाएँ लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। एक अंदाज के मुताबिक फार्मास्यूटिकल कंपनी अपनी दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए एक डॉक्टर पर हर वर्ष करीब दस हजार डॉलर(चार लाख रुपए) खर्च करती है। इसे ही दूसरे शब्दों में कहें, तो दवा कंपनियाँ हर डॉक्टर को हर वर्ष चार लाख रुपए रिश्वत के रूप में देती हैं।
असल में डॉ. स्ट्रेण्ड को यह किताब लिखने की आवश्यकता इसलिए आन पड़ी, क्योंकि वे स्वयं भी इस हालात से गुजर चुके थे। हुआ यूँ कि डॉ. स्ट्रेण्ड की पत्नी 20 वर्षो से क्रोनिक फटिंग(थकावट) से पीड़ित थीं। उनका इलाज अमेरिका के बड़े डॉक्टर कर रहे थे। इन सभी डॉक्टरों की दवाओं से उनकी पत्नी को कोई लाभ नहीं हुआ। दिनों-दिन उनकी हालत बिगड़ती गई। इन दवाओं का असर यह हुआ कि उनकी पत्नी को निमोनिया हो गया। बड़ी मुश्किल से वे ठीक तो हुई, पर उन्हें कमजोरी हो गई। हालत यह हो गई कि वे बिस्तर के केवल दो घंटे के लिए ही उठ पाती। आखिर दवाओं से तंग आकर डॉ. स्ट्रेण्ड ने पत्नी का इलाज स्वयं करने का निश्चय किया। वे अब पत्नी को केवल पौष्टिक आहार ही देने लगे। इसका असर 6 महीने में ही दिखने लगा। चमत्कारिक रूप में उनकी पत्नी ठीक हो गईं। बस तब से ही डॉ. स्ट्रेण्ड सोचने लगे कि आखिर डॉक्टरों द्वारा लिखी गई दवाओं का असर मरीज पर कितना भारी होता है। अपने अनुभवों से गुजरते हुए डॉ. स्ट्रेण्ड कहते हैं कि अमेरिका का एएफडी प्रशासन फार्मास्यूटिकल कंपनियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है।
डॉ. स्ट्रेण्ड की किताब को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार भी देश में एलोपैथी दवाओं पर प्रतिबंध लगाकर यदि आयुर्वेदिक दवाओं को प्रोत्साहन दे, तो असमय होने वाली हजारों मौतों को रोका जा सकता है। आजकल हो यही रहा है कि कुछ लोग इलाज के अभाव में मर रहे हैं, तो कुछ लोग इलाज करवाकर मौत के आगोश में जा रहे हैं। यदि डॉक्टरों का लालच सामने न आए, तो कई मरीज ऐसे ही बच जाएँ। आखिर कब तक चलता रहेगा जिंदगी और मौत के बीच रिश्वत का यह सिलसिला?
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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यह बात तो सही है कि एलोपैथी दवायों के उपयोग के साथ कई शर्तें जुड़ी रहती है जिन्हें आम तौर पर डॉक्टर नहीं बताते.
जवाब देंहटाएंजबकि होम्योपैथी में डॉक्टर एक एक चीज बताते हैं
वैसे, साइड इफेक्ट तो हर उस चीज का होता है
जिसकी अति हो जाती है
या
जो आदत में शुमार हो जाती है
फिर चाहे वह दवा हो या दारू :-)