डॉ. महेश परिमल
पिछले कुछ समय से सभी दल देश के भावी प्रधानमंत्री के बारे में अपनी-अपनी राय दे रहे हैं। कोई नरेंद्र मोदी का नाम ले रहा है, कोई आडवाणी का, कोई चिदम्बरम का, कोई राहुल गांधी का। पर शायद कोई नहीं चाहता कि दो बार प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले डॉ. मनमोहन सिंह तीसरी बार प्रधानमंत्री बनें। आखिर ऐसी क्या बात है उनमें कि लोग उन्हें इस पद पर एक बार और नहीं देख सकते। देखा जाए तो डॉ. मनमोहन सिंह एक कुशल राजनीतिज्ञ नहीं हैं। सबसे पहले तो वे कुशल अर्थशास्त्री हैं, उनकी दूसरी विशेषता यह है कि वे रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके हैं। एक और बात यह है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं कि वे विश्व के सभी प्रधानमंत्रियों से अधिक पढ़े-लिखे हैं। इतनी विशेषताओं के बाद भी उन्हें अब कोई प्रधानमंत्री के रूप में देखना नहीं चाहता। आखिर बात क्या है?
दरअसल बात यह है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने पद पर रहते हुए वह सब कुछ नहीं कर पाए, जो वे करना चाहते थे, नहीं कर पाए। एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें जो प्रतिष्ठा मिलनी थी, वह नहीं मिल पाई। एक तरह से उनकी छवि पिछलग्गू की तरह ही सामने आई। उन पर खुशवंत सिंह जैसे स्तंभकार ने भी जोक्स बनाए। वास्तव में वे अपने प्रधानमंत्रित्व काल में न तो बेहतर प्रधानमंत्री रहे, न कुशल अर्थशास्त्री और न ही अच्छे वक्ता। बोलते समय उनकी वाणी बहुत ही संयमित रहती। उन्हें सुनकर किसी तरह का जोश आने या राष्ट्रभक्ति में डूब जाने की इच्छा नहीं होती है। आज कांग्रेस में प्रखर वक्ता, कुशल प्रशासक, अपने भाषणों से भीड़ खींचने वाले नेताओं की भारी कमी है। ऐसे में डौ. मनमोहन सिंह को लोग अब उतनी गंभीरता के साथ नहीं लेते। राजनीति ने एक कुशाग्र बुद्धि का अर्थशास्त्री हमसे छीन लिया। अपने सीधेपन के कारण लोगों को वे नहीं भाते। प्रधानमंत्री के रूप में जो छवि उभरनी चाहिए, वह डॉ. सिंह को देखकर नहीं उभरती। उनके ही कार्यकाल में कई घोटाले सामने आए। जो उनके ही साथियों ने किए। कुछ जेल गए, कुछ पर अभी तक केवल आरोप ही हैं। लोगों को आश्चर्य इस बात का होता है कि जिस बात को देश का बच्च-बच्च जानता समझता है, वह बात हमारे प्रधानमंत्री को पता नहीं होती। सभी जानते हैं कि उनके कार्यकाल में हुए घोटालों में वे कतई शामिल नहीं हैं, पर सच यह भी है कि जब घोटाले हो रहे थे, तब वे क्या कर रहे थे? कई बार गलत लोगों का साथ सही व्यक्ति को भी गलत साबित कर देता है। डॉ. मनमोहन सिंह के साथ भी यही हो रहा है।
विभिन्न अवसरों पर हम सबने टीवी पर प्रधानमंत्री को बोलते सुना। उनके अंग्रेजी और हिंदी भाषण सुनकर ऐसा नहीं लगा कि ये हमारे देश के अग्रणी नेता बोल रहे हैं। आवाज में ओज नहीं, बाडी लैग्वेज भी आकर्षित न करने वाली और न ही भाषण में रोचकता। वे जो कुछ भी कहते रहे, वह सब कुछ पहले ही अखबारों में आ चुका होता है। किसी तरह की नई बात या फिर नई घोषणा उनसे नहीं सुनी। चाहे वे विदेश में अपनी ओजस्वी वाणी के कारण पहचाने जाते हों, पर सच तो यह है कि देश ने अब तक उनके जैसा दूसरा कोई लाचार प्रधानमंत्री नहीं देखा। देश ऐसे बेबस प्रधानमंत्री को देखना भी नहीं चाहता, इसलिए उनका नाम इस पद के लिए सामने नहीं आ रहा है। देश का कोई नेता ही नहीं, बल्कि आम जनता भी नहीं चाहती कि वे अगली बार भी प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित करें। नेता अपनी वाणी या वाकपटुता से पहचाने जाते हैं। हम अपने प्रधानमंत्री को किस रूप में पहचानें? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब किसी के पास नहीं। उन्होंने जब भी कोई बयान दिया, तो अपने मंत्रियों को बचाने के लिए ही दिया। आखिर भ्रष्ट मंत्रियों को बचाने की उनकी क्या विवशता थी, यह देश की जनता जानना चाहती है, पर जनता का इसका जवाब शायद ही मिले।
देश की जनता एक ऐसा प्रधानमंत्री चाहती है, जो जब बोलने के लिए तैयार हो, तो लोग शांत होकर उसकी बात सुनें। वह गरजे, तो पड़ोसी देश में हड़कम्प मच जाए। उसके प्रधानमंत्री बनते ही दूसरे देश अपनी विदेश नीतियों में परिवर्तन करने लगे। एक ऐसा सख्त किंतु सबका खयाल रखने वाला प्रधानमंत्री जो आम आदमी के बीच उतना ही लोकप्रिय हो, जितना विदेशों में अपने भाषण को लेकर चर्चित हो। उसकी गरज भरी आवाज से देश में उत्साह का संचार हो। उनकी एक आवाज पर लोग सड़कों पर उतर आएं और आतंकवादियों का बेनकाब करने लगें। उनकी एक धमकी से जमाखोरों की बन आए। अपराध करने के पहले अपराधी एक बार यह अवश्य सोचे कि हमारे प्रधानमंत्री बहुत ही सख्त हैं, यदि पकड़े गए तो कहीं के नहीं रहेंगे। इस भाव से वह अपराध करना ही छोड़ दे। इसी तरह घोटाले करने वाले मंत्रियों को भी ऐसा लगे कि हमारे प्रधानमंत्री की सख्ती के कारण हम कुछ गलत नहीं कर पा रहे हैं। देश में ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति सबसे अधिक सुखी हो, यह संदेश जाना चाहिए। डॉ. सिंह ने जब भी टीवी पर आम नागरिकों को संबोधित किया, उससे ऐसा लगा कि वे गठबंधन की विवशता पर अधिक जोर दे रहे हैं। मानो सरकार के सहयोगी दलों को घोटाले करने की पूरी छूट मिली हुई है। यह सच है कि गठबंधन की राजनीति की विवशताएं हो सकती हैं, पर इसके लिए देश की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगा देना कहां तक उचित है? घोटालों के कारण देश की प्रतिष्ठा पर आंच आई है, देश का विकास प्रभावित हुआ है। यहां तक कि विदेशों में भी काफी किरकिरी हुई है। इनके कार्यकाल में मंत्रियों का यह रवैया रहा कि घोटाले करते जाओ, कोई रोकने वाला नहीं है। इनके शासनकाल में जितने घोटाले उजागर हुए, उतने घोटाले किसी अन्य प्रधानमंत्री के कार्यकाल में नहीं हुए। इसलिए डॉ. सिंह की छवि उतनी उज्जवल नहीं कही जा सकती, जिस पर गर्व किया जा सके।
डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में यह बात सामने आई कि जो सक्षम हैं, वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं, जबकि जनता के प्रति उनकी जवाबदेही है और जिन्हें करना चाहिए वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं, जबकि जनता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। बात इशारों मे ंकही गई है, पर सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री रंगमंच पर हैं, पर उन्हें संचालित किया जा रहा है। वे किन हाथों से संचालित हो रहे हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। पर सच यही है कि हमारे प्रधानमंत्री और सक्षम हो सकते थे, पर विवशताओं ने उन्हें वह नहीं करने दिया, जैसा वह चाहते थे। इसीलिए कोई उन्हें तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहता। इस दौरान न तो उनकी विद्वता काम आई, न ही उनका अर्थशास्त्री का पक्ष सामने आया। एक निरीह और लाचार प्रधानमंत्री देश अब फिर नहीं देखना चाहता।
डॉ. महेश परिमल
पिछले कुछ समय से सभी दल देश के भावी प्रधानमंत्री के बारे में अपनी-अपनी राय दे रहे हैं। कोई नरेंद्र मोदी का नाम ले रहा है, कोई आडवाणी का, कोई चिदम्बरम का, कोई राहुल गांधी का। पर शायद कोई नहीं चाहता कि दो बार प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले डॉ. मनमोहन सिंह तीसरी बार प्रधानमंत्री बनें। आखिर ऐसी क्या बात है उनमें कि लोग उन्हें इस पद पर एक बार और नहीं देख सकते। देखा जाए तो डॉ. मनमोहन सिंह एक कुशल राजनीतिज्ञ नहीं हैं। सबसे पहले तो वे कुशल अर्थशास्त्री हैं, उनकी दूसरी विशेषता यह है कि वे रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके हैं। एक और बात यह है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं कि वे विश्व के सभी प्रधानमंत्रियों से अधिक पढ़े-लिखे हैं। इतनी विशेषताओं के बाद भी उन्हें अब कोई प्रधानमंत्री के रूप में देखना नहीं चाहता। आखिर बात क्या है?
दरअसल बात यह है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने पद पर रहते हुए वह सब कुछ नहीं कर पाए, जो वे करना चाहते थे, नहीं कर पाए। एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें जो प्रतिष्ठा मिलनी थी, वह नहीं मिल पाई। एक तरह से उनकी छवि पिछलग्गू की तरह ही सामने आई। उन पर खुशवंत सिंह जैसे स्तंभकार ने भी जोक्स बनाए। वास्तव में वे अपने प्रधानमंत्रित्व काल में न तो बेहतर प्रधानमंत्री रहे, न कुशल अर्थशास्त्री और न ही अच्छे वक्ता। बोलते समय उनकी वाणी बहुत ही संयमित रहती। उन्हें सुनकर किसी तरह का जोश आने या राष्ट्रभक्ति में डूब जाने की इच्छा नहीं होती है। आज कांग्रेस में प्रखर वक्ता, कुशल प्रशासक, अपने भाषणों से भीड़ खींचने वाले नेताओं की भारी कमी है। ऐसे में डौ. मनमोहन सिंह को लोग अब उतनी गंभीरता के साथ नहीं लेते। राजनीति ने एक कुशाग्र बुद्धि का अर्थशास्त्री हमसे छीन लिया। अपने सीधेपन के कारण लोगों को वे नहीं भाते। प्रधानमंत्री के रूप में जो छवि उभरनी चाहिए, वह डॉ. सिंह को देखकर नहीं उभरती। उनके ही कार्यकाल में कई घोटाले सामने आए। जो उनके ही साथियों ने किए। कुछ जेल गए, कुछ पर अभी तक केवल आरोप ही हैं। लोगों को आश्चर्य इस बात का होता है कि जिस बात को देश का बच्च-बच्च जानता समझता है, वह बात हमारे प्रधानमंत्री को पता नहीं होती। सभी जानते हैं कि उनके कार्यकाल में हुए घोटालों में वे कतई शामिल नहीं हैं, पर सच यह भी है कि जब घोटाले हो रहे थे, तब वे क्या कर रहे थे? कई बार गलत लोगों का साथ सही व्यक्ति को भी गलत साबित कर देता है। डॉ. मनमोहन सिंह के साथ भी यही हो रहा है।
विभिन्न अवसरों पर हम सबने टीवी पर प्रधानमंत्री को बोलते सुना। उनके अंग्रेजी और हिंदी भाषण सुनकर ऐसा नहीं लगा कि ये हमारे देश के अग्रणी नेता बोल रहे हैं। आवाज में ओज नहीं, बाडी लैग्वेज भी आकर्षित न करने वाली और न ही भाषण में रोचकता। वे जो कुछ भी कहते रहे, वह सब कुछ पहले ही अखबारों में आ चुका होता है। किसी तरह की नई बात या फिर नई घोषणा उनसे नहीं सुनी। चाहे वे विदेश में अपनी ओजस्वी वाणी के कारण पहचाने जाते हों, पर सच तो यह है कि देश ने अब तक उनके जैसा दूसरा कोई लाचार प्रधानमंत्री नहीं देखा। देश ऐसे बेबस प्रधानमंत्री को देखना भी नहीं चाहता, इसलिए उनका नाम इस पद के लिए सामने नहीं आ रहा है। देश का कोई नेता ही नहीं, बल्कि आम जनता भी नहीं चाहती कि वे अगली बार भी प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित करें। नेता अपनी वाणी या वाकपटुता से पहचाने जाते हैं। हम अपने प्रधानमंत्री को किस रूप में पहचानें? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब किसी के पास नहीं। उन्होंने जब भी कोई बयान दिया, तो अपने मंत्रियों को बचाने के लिए ही दिया। आखिर भ्रष्ट मंत्रियों को बचाने की उनकी क्या विवशता थी, यह देश की जनता जानना चाहती है, पर जनता का इसका जवाब शायद ही मिले।
देश की जनता एक ऐसा प्रधानमंत्री चाहती है, जो जब बोलने के लिए तैयार हो, तो लोग शांत होकर उसकी बात सुनें। वह गरजे, तो पड़ोसी देश में हड़कम्प मच जाए। उसके प्रधानमंत्री बनते ही दूसरे देश अपनी विदेश नीतियों में परिवर्तन करने लगे। एक ऐसा सख्त किंतु सबका खयाल रखने वाला प्रधानमंत्री जो आम आदमी के बीच उतना ही लोकप्रिय हो, जितना विदेशों में अपने भाषण को लेकर चर्चित हो। उसकी गरज भरी आवाज से देश में उत्साह का संचार हो। उनकी एक आवाज पर लोग सड़कों पर उतर आएं और आतंकवादियों का बेनकाब करने लगें। उनकी एक धमकी से जमाखोरों की बन आए। अपराध करने के पहले अपराधी एक बार यह अवश्य सोचे कि हमारे प्रधानमंत्री बहुत ही सख्त हैं, यदि पकड़े गए तो कहीं के नहीं रहेंगे। इस भाव से वह अपराध करना ही छोड़ दे। इसी तरह घोटाले करने वाले मंत्रियों को भी ऐसा लगे कि हमारे प्रधानमंत्री की सख्ती के कारण हम कुछ गलत नहीं कर पा रहे हैं। देश में ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति सबसे अधिक सुखी हो, यह संदेश जाना चाहिए। डॉ. सिंह ने जब भी टीवी पर आम नागरिकों को संबोधित किया, उससे ऐसा लगा कि वे गठबंधन की विवशता पर अधिक जोर दे रहे हैं। मानो सरकार के सहयोगी दलों को घोटाले करने की पूरी छूट मिली हुई है। यह सच है कि गठबंधन की राजनीति की विवशताएं हो सकती हैं, पर इसके लिए देश की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगा देना कहां तक उचित है? घोटालों के कारण देश की प्रतिष्ठा पर आंच आई है, देश का विकास प्रभावित हुआ है। यहां तक कि विदेशों में भी काफी किरकिरी हुई है। इनके कार्यकाल में मंत्रियों का यह रवैया रहा कि घोटाले करते जाओ, कोई रोकने वाला नहीं है। इनके शासनकाल में जितने घोटाले उजागर हुए, उतने घोटाले किसी अन्य प्रधानमंत्री के कार्यकाल में नहीं हुए। इसलिए डॉ. सिंह की छवि उतनी उज्जवल नहीं कही जा सकती, जिस पर गर्व किया जा सके।
डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में यह बात सामने आई कि जो सक्षम हैं, वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं, जबकि जनता के प्रति उनकी जवाबदेही है और जिन्हें करना चाहिए वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं, जबकि जनता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। बात इशारों मे ंकही गई है, पर सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री रंगमंच पर हैं, पर उन्हें संचालित किया जा रहा है। वे किन हाथों से संचालित हो रहे हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। पर सच यही है कि हमारे प्रधानमंत्री और सक्षम हो सकते थे, पर विवशताओं ने उन्हें वह नहीं करने दिया, जैसा वह चाहते थे। इसीलिए कोई उन्हें तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहता। इस दौरान न तो उनकी विद्वता काम आई, न ही उनका अर्थशास्त्री का पक्ष सामने आया। एक निरीह और लाचार प्रधानमंत्री देश अब फिर नहीं देखना चाहता।
डॉ. महेश परिमल