डॉ. महेश परिमल
इन दिनों देश कुछ ऐसी घटनाओं से होकर गुजर रहा है, जिसे देख सुनकर मानवता भी रो पड़ती है। एक तरफ दुष्कर्म की घटनाएँ बढ़ रही हें, तो दूसरी तरफ सीमा पर नृशंस हत्या का दौर जारी है। यही नहीं अब देश के भीतर भी इस तरह की नृशंस हत्याएं हो रही हैं कि मानवता शर्मसार हो जाए। हाल में नक्सलियों ने जिस तरह से सीआरपीएफ के जवान को मारकर उसके भीतर विस्फोटक भर दिया, उससे यही स्पष्ट होता है कि सीमा के उस पार देश के दुश्मनों और देश के भीतर के दुश्मनों में कोई फर्क नहीं है। केंद्र सरकार न पाकिस्तान को कोई कड़ा संदेश दे पा रही है और न ही राज्य सरकारें नक्सलियों के खिलाफ किसी तरह की ठोस कार्रवाई कर रही है। सुस्ती दोनों ओर से है, यह चिंता का विषय है। आखिर हमारे जवान कब तक मरते रहेंगे और हम कब तक मौत की गिनती गिनते रहेंगे? उधर पाकिस्तानी सेना की हरकतें बढ़ती जा रही हैं। वह देश जानता है कि भारत कभी कुछ नहीं कर पाएगा। इसलिए हमें अपनी हरकतें जारी रखनी हैं। इधर नक्सली जो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए माने जाते हैं, उनकी इस तरह की हरकतें यही बताती है कि वे अब अपनी दिशा से भटक रहे हैं। अत्याचार के विरोध में उठाया गया उनका परचम अब ध्वस्त हो चुका है। अब वे भी अत्याचारी की पंक्ति में खड़े हो गए हैं। उनकी इस हरकत से उनके समर्थक भी उनकी मुखालिफत करने लगे हैं। पूरे घटनाक्रम में सरकार और राज्य की ढिलाई और सुस्ती सामने आ गई है। भारत से सर से बिखरे हुए रुस का वरदहस्त अब काम नहीं आ रहा है। इसलिए अमेरिकी दादागिरी को सहना देश की विवशता है। रुस मजबूत होता, तो आज हालात दूसरे ही होते। सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह के जोशीले बयान कुछ आशा बंधाते हैं, पर वे भी कहीं न कहीं किसी के प्रति जवाबदेह हैं, इसलिए कहा नहीं जा सकता कि उनकी फडु़कती भुजाएं कुछ विशेष कर पाएंगी। जब हमारे रक्षा मंत्री सख्त नहीं हुए, तो सेनाध्यक्ष के सख्त होने से क्या होगा? ढीले-ढाले, सुस्त बयान से किसी को हिम्मत तो कभी नही आ सकती, अलबत्ता बढ़ी हुई हिम्मत कम अवश्य हो सकती है। जब सेना के जवानों का खून खौल रहा था, तब दिल्ली से सुस्त बयान आ रहे थे। आखिर सेना के जवानों की हिम्मत जवाब दे गई।
उधर पाकिस्तान की नापाक हरकतों से पूरा देश बौखला रहा है। युवाओं का खून खौल रहा है। पर हम अब भी लाचार हैं। हर कोई यही सोच रहा है कि आखिर हम इतने लाचार क्यों हैं? कहा गया है कि कमजोरी एक बुराई है। इसे ताकत समझना भूल होगी। पाकिस्तान की अक्षम्य हरकत के खिलाफ हमने केवल बहुत ही नम्रता से अपनी बात कही है। स्पष्ट है कि उसे हमारी कोई चिंता नहीं है। सब कुछ अमेरिका पर ही निर्भर है। अब हमारा जमीर खौलने लगा है। पर हम लाचार हैं कुछ नहीं कर सकते। हमारी इसी लाचारगी का फायदा उठा रहा है पाकिस्तान। भारत आखिर क्यों कुछ नहीं कर पा रहा है, यह जानने को सभी बेताब हैं। बात यह है कि सन 2001 में जब हमारी संसद पर हमला हुआ था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि इसका करारा जवाब दिया जाएगा। इसके लिए वे तैयार भी थे कि अमेरिका से एक फोन आया। फिर वाजपेजी कुछ नहीं कर पाए। कुछ इसी तरह का फोन अभी आया होगा, इसलिए भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कोई कड़ा कदम उठाने की घोषणा नहीं की है। पाकिस्तानी हरकतों का कई देशों ने विरोध किया है। पर अमेरिका ने जिस तरह से अपना बयान दिया है, उससे लगता है कि वह इस हरकत के लिए पाकिस्तान को डरा भी नहीं सकता। अमेरिका का इस दिशा में बहुत ही कोमल व्यवहार यही दर्शाता है कि उसने भारत को भी इस दिशा में कुछ न करने के लिए कहा होगा। अब यह तय हो गया है कि पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध न करना हमारी मजबूरी है।
जर्मनी के चिंतक नीत्शे ने कहीं कहा है-विकलिंग इज एविल यानी कमजोरी एक तरह की बुराई है। यह बात हमारे नेताओं पर अच्छी तरह से लागू होती है। अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर जाकर समझौता कर आए और उसके बाद हमारे नेताओं ने यह तय कर लिया कि किसी भी हालत में हमारे संबंध पाकिस्तान से खराब नहीं होने चाहिए। पाकिस्तान एक के बाद एक हमारी पीठ पर खंजर घोंपता रहे, हम उससे माफी मांगते रहे। पाकिस्तान का दु:साहस इसी का परिणाम है। वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ भाईचारे की जो नीति शुरू की थी, उसे ही आगे बढ़ा रहे हैं हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह। इस नीति पर सन 2008 में एक छोटा सा विचलन आया था, पर अमेरिकी दबाव के कारण वह फिर मैत्री संबंध में बदल गई। दूसरी तरफ पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर तमाम समझौतों का उल्लंघन जारी है। पिछले एक महीने में पाकिस्तान सैनिकों द्वारा करीब एक दर्जन बार नियंत्रण रेखा पार की गई है। हर बार हम कमजोर साबित हुए, इसीलिए इस बार उसने भारतीय सैनिकों का गला ही काट दिया। एक सैनिक का माथा ही ले गए। अब वह हम पर आरोप लगा रहा है कि हमारे सैनिकों ने एक पाकिस्तानी सैनिक की हत्या की है। भारतीय सैनिकों की हत्या कर इस बार पाकिस्तानी सैनिकों ने सीमा पर जश्न मनाते हमारे सैनिकों ने देखा। सोचो, क्या गुजरी होगी हमारे सैनिकों के दिलों पर? हमारी कमजोरी इतनी अधिक कमजोर हो गई है कि हम विरोध करना ही भूल गए हैं। ये हमारे सैनिकों की कमजोरी नहीं, बल्कि लगातार दूसरों पर आश्रित होने के कारण हमारे नेताओं की कमजोरी है, जो बार-बार सामने आ रही है।
आखिर भारत के प्रति पाकिस्तान इतना अधिक आक्रामक क्यों है? इसके दो कारण हैं, पहला तो यही कि अब अमेरिका पाकिस्तान को फिर से सैन्य सहायता दे रहा है, अमेरिकी सैनिकों के बल पर ही पाकिस्तान इतना इतरा रहा है। वास्तविकता यह है कि अब अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिक लौटने लगे हैं। उसे भारतीय उपमहाद्वीप पर अपनी पकड़ कायम रखने के लिए पाकिस्तान की विशेष आवश्यकता है। इसीलिए अमेरिका ने हाल ही में पाकिस्तान को तीन अरब डॉलर की सैन्य सहायता की है। दूसरा कारण यह है कि अमेरिका के शस्त्रों के सौदागर पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा पर बार-बार घुसपैठ की जा रही है, इस कारण दोनों देशों के बीच तनाव कायम है। इस तनाव के कारण भारत को अमेरिका जैसे देशों से अरबों डॉलर के शस्त्र खरीदने पड़ रहे हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव हमेशा कायम रहें, यह अमेरिका चाहता है। उसकी मंशा यह है कि दोनों छोटी-छोटी बातों पर उलझते रहें, पर कभी युद्ध न करें। यदि दोनों के बीच युद्ध छिड़ जाए, तो दोनों देशों में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का धंधा ही चौपट हो जाएगा। जब भी भारत पाकिस्तानी हरकतों को देखते हुए सख्ती की, अमेरिका ने भारत का कान उमेंठा। हमारे नेता भी अमेरिका के सामने इतने अधिक दबे हुए हैं कि उसकी तमाम आज्ञाओं को शिरोधार्य करते हैं। पाकिस्तान बार-बार सीमाओं का उल्लंघन करता रहा है, हम शांति वार्ता से, क्रिकेट से, कलाकारों को परस्पर भेजने आदि से माहौल को खुशगवार बनाने की कोशिश करते रहे। हमारी इन कोशिशों को पाकिस्तान ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। आतंकवाद को पीछे धकेलकर हम शांति वार्ता करते रहे, यही हमारी सबसे बड़ी भूल थी। दूसरी भूल यह थी कि पाकिस्तान को आतंकवाद का दर्जा दिलाने के लिए हमारी कोई कोशिश कामयाब नहीं हो पाई, तीसरी भूल पाकिस्तान के साथ क्रिकेट जारी रखना थी, चौथी भूल दोनों देशों के बीच वीजा नियमों को हलका करना थी। ये सभी राहतें पाकिस्तान को हमने बिना मांगे दी। इससे वह यह मान बैठा कि भारत को गरज है, इसलिए वह ऐसा कर रहा है। रजनीति का यह नियम है कि शत्रु देश जब कमजोरी का प्रदर्शन करे, तब उसे दबाया जाए। बस पाकिस्तान यही कर रहा है।
अब समय है कि पाकिस्तान के साथ युद्ध छेड़ देना चाहिए। हालांकि इसकी कोई हिमायत नहीं कर रहा है। युद्ध किए बिना ही ऐसे कई दबाव हैं, जिससे बढ़ाया जा सकता है। भारत ने यह सब न करते हुए इस मामले पर पाकिस्तानी राजदूत को बुलाकर अपना विरोध ही चुपचाप दर्ज करवा दिया। ऐसा विरोध क्या काम का? इसे बांझ विरोध कहा जा सकता है। हमारा विरोध इतना अधिक प्रचंड होना था कि दुश्मन देश को माफी मांगने की नौबत आ जाए। पर हुआ इसके विपरीत। वह तो अब और गरियाने लगा है। हमारी लाचारगी यही बताती है कि भारत एक स्वतंत्र देश नहीं, बल्कि अमेरिका का एक खंडित राज्य है। भारत की विदेश नीति दिल्ली में नहीं, बल्कि वाशिंगटन में तय होती है। भारत-पाकिस्तान अमेरिका की कठपुतलियां हैं। भारत के नेता तो अमेरिका से पूछे बिना पानी तक नहीं पीते। इस हालात में भारत के बहादुर सैनिकों के पास अपमान का घूंट भरकर रह जाने के सिवाय और कोई चारा ही नहीं है। सैनिक तो मरने के लिए ही होते हैं, पर उनकी दर्दनाक मौत किसी को भी सहन नहीं होती।
डॉ. महेश परिमल
इन दिनों देश कुछ ऐसी घटनाओं से होकर गुजर रहा है, जिसे देख सुनकर मानवता भी रो पड़ती है। एक तरफ दुष्कर्म की घटनाएँ बढ़ रही हें, तो दूसरी तरफ सीमा पर नृशंस हत्या का दौर जारी है। यही नहीं अब देश के भीतर भी इस तरह की नृशंस हत्याएं हो रही हैं कि मानवता शर्मसार हो जाए। हाल में नक्सलियों ने जिस तरह से सीआरपीएफ के जवान को मारकर उसके भीतर विस्फोटक भर दिया, उससे यही स्पष्ट होता है कि सीमा के उस पार देश के दुश्मनों और देश के भीतर के दुश्मनों में कोई फर्क नहीं है। केंद्र सरकार न पाकिस्तान को कोई कड़ा संदेश दे पा रही है और न ही राज्य सरकारें नक्सलियों के खिलाफ किसी तरह की ठोस कार्रवाई कर रही है। सुस्ती दोनों ओर से है, यह चिंता का विषय है। आखिर हमारे जवान कब तक मरते रहेंगे और हम कब तक मौत की गिनती गिनते रहेंगे? उधर पाकिस्तानी सेना की हरकतें बढ़ती जा रही हैं। वह देश जानता है कि भारत कभी कुछ नहीं कर पाएगा। इसलिए हमें अपनी हरकतें जारी रखनी हैं। इधर नक्सली जो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए माने जाते हैं, उनकी इस तरह की हरकतें यही बताती है कि वे अब अपनी दिशा से भटक रहे हैं। अत्याचार के विरोध में उठाया गया उनका परचम अब ध्वस्त हो चुका है। अब वे भी अत्याचारी की पंक्ति में खड़े हो गए हैं। उनकी इस हरकत से उनके समर्थक भी उनकी मुखालिफत करने लगे हैं। पूरे घटनाक्रम में सरकार और राज्य की ढिलाई और सुस्ती सामने आ गई है। भारत से सर से बिखरे हुए रुस का वरदहस्त अब काम नहीं आ रहा है। इसलिए अमेरिकी दादागिरी को सहना देश की विवशता है। रुस मजबूत होता, तो आज हालात दूसरे ही होते। सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह के जोशीले बयान कुछ आशा बंधाते हैं, पर वे भी कहीं न कहीं किसी के प्रति जवाबदेह हैं, इसलिए कहा नहीं जा सकता कि उनकी फडु़कती भुजाएं कुछ विशेष कर पाएंगी। जब हमारे रक्षा मंत्री सख्त नहीं हुए, तो सेनाध्यक्ष के सख्त होने से क्या होगा? ढीले-ढाले, सुस्त बयान से किसी को हिम्मत तो कभी नही आ सकती, अलबत्ता बढ़ी हुई हिम्मत कम अवश्य हो सकती है। जब सेना के जवानों का खून खौल रहा था, तब दिल्ली से सुस्त बयान आ रहे थे। आखिर सेना के जवानों की हिम्मत जवाब दे गई।
उधर पाकिस्तान की नापाक हरकतों से पूरा देश बौखला रहा है। युवाओं का खून खौल रहा है। पर हम अब भी लाचार हैं। हर कोई यही सोच रहा है कि आखिर हम इतने लाचार क्यों हैं? कहा गया है कि कमजोरी एक बुराई है। इसे ताकत समझना भूल होगी। पाकिस्तान की अक्षम्य हरकत के खिलाफ हमने केवल बहुत ही नम्रता से अपनी बात कही है। स्पष्ट है कि उसे हमारी कोई चिंता नहीं है। सब कुछ अमेरिका पर ही निर्भर है। अब हमारा जमीर खौलने लगा है। पर हम लाचार हैं कुछ नहीं कर सकते। हमारी इसी लाचारगी का फायदा उठा रहा है पाकिस्तान। भारत आखिर क्यों कुछ नहीं कर पा रहा है, यह जानने को सभी बेताब हैं। बात यह है कि सन 2001 में जब हमारी संसद पर हमला हुआ था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि इसका करारा जवाब दिया जाएगा। इसके लिए वे तैयार भी थे कि अमेरिका से एक फोन आया। फिर वाजपेजी कुछ नहीं कर पाए। कुछ इसी तरह का फोन अभी आया होगा, इसलिए भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कोई कड़ा कदम उठाने की घोषणा नहीं की है। पाकिस्तानी हरकतों का कई देशों ने विरोध किया है। पर अमेरिका ने जिस तरह से अपना बयान दिया है, उससे लगता है कि वह इस हरकत के लिए पाकिस्तान को डरा भी नहीं सकता। अमेरिका का इस दिशा में बहुत ही कोमल व्यवहार यही दर्शाता है कि उसने भारत को भी इस दिशा में कुछ न करने के लिए कहा होगा। अब यह तय हो गया है कि पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध न करना हमारी मजबूरी है।
जर्मनी के चिंतक नीत्शे ने कहीं कहा है-विकलिंग इज एविल यानी कमजोरी एक तरह की बुराई है। यह बात हमारे नेताओं पर अच्छी तरह से लागू होती है। अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर जाकर समझौता कर आए और उसके बाद हमारे नेताओं ने यह तय कर लिया कि किसी भी हालत में हमारे संबंध पाकिस्तान से खराब नहीं होने चाहिए। पाकिस्तान एक के बाद एक हमारी पीठ पर खंजर घोंपता रहे, हम उससे माफी मांगते रहे। पाकिस्तान का दु:साहस इसी का परिणाम है। वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ भाईचारे की जो नीति शुरू की थी, उसे ही आगे बढ़ा रहे हैं हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह। इस नीति पर सन 2008 में एक छोटा सा विचलन आया था, पर अमेरिकी दबाव के कारण वह फिर मैत्री संबंध में बदल गई। दूसरी तरफ पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर तमाम समझौतों का उल्लंघन जारी है। पिछले एक महीने में पाकिस्तान सैनिकों द्वारा करीब एक दर्जन बार नियंत्रण रेखा पार की गई है। हर बार हम कमजोर साबित हुए, इसीलिए इस बार उसने भारतीय सैनिकों का गला ही काट दिया। एक सैनिक का माथा ही ले गए। अब वह हम पर आरोप लगा रहा है कि हमारे सैनिकों ने एक पाकिस्तानी सैनिक की हत्या की है। भारतीय सैनिकों की हत्या कर इस बार पाकिस्तानी सैनिकों ने सीमा पर जश्न मनाते हमारे सैनिकों ने देखा। सोचो, क्या गुजरी होगी हमारे सैनिकों के दिलों पर? हमारी कमजोरी इतनी अधिक कमजोर हो गई है कि हम विरोध करना ही भूल गए हैं। ये हमारे सैनिकों की कमजोरी नहीं, बल्कि लगातार दूसरों पर आश्रित होने के कारण हमारे नेताओं की कमजोरी है, जो बार-बार सामने आ रही है।
आखिर भारत के प्रति पाकिस्तान इतना अधिक आक्रामक क्यों है? इसके दो कारण हैं, पहला तो यही कि अब अमेरिका पाकिस्तान को फिर से सैन्य सहायता दे रहा है, अमेरिकी सैनिकों के बल पर ही पाकिस्तान इतना इतरा रहा है। वास्तविकता यह है कि अब अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिक लौटने लगे हैं। उसे भारतीय उपमहाद्वीप पर अपनी पकड़ कायम रखने के लिए पाकिस्तान की विशेष आवश्यकता है। इसीलिए अमेरिका ने हाल ही में पाकिस्तान को तीन अरब डॉलर की सैन्य सहायता की है। दूसरा कारण यह है कि अमेरिका के शस्त्रों के सौदागर पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा पर बार-बार घुसपैठ की जा रही है, इस कारण दोनों देशों के बीच तनाव कायम है। इस तनाव के कारण भारत को अमेरिका जैसे देशों से अरबों डॉलर के शस्त्र खरीदने पड़ रहे हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव हमेशा कायम रहें, यह अमेरिका चाहता है। उसकी मंशा यह है कि दोनों छोटी-छोटी बातों पर उलझते रहें, पर कभी युद्ध न करें। यदि दोनों के बीच युद्ध छिड़ जाए, तो दोनों देशों में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का धंधा ही चौपट हो जाएगा। जब भी भारत पाकिस्तानी हरकतों को देखते हुए सख्ती की, अमेरिका ने भारत का कान उमेंठा। हमारे नेता भी अमेरिका के सामने इतने अधिक दबे हुए हैं कि उसकी तमाम आज्ञाओं को शिरोधार्य करते हैं। पाकिस्तान बार-बार सीमाओं का उल्लंघन करता रहा है, हम शांति वार्ता से, क्रिकेट से, कलाकारों को परस्पर भेजने आदि से माहौल को खुशगवार बनाने की कोशिश करते रहे। हमारी इन कोशिशों को पाकिस्तान ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। आतंकवाद को पीछे धकेलकर हम शांति वार्ता करते रहे, यही हमारी सबसे बड़ी भूल थी। दूसरी भूल यह थी कि पाकिस्तान को आतंकवाद का दर्जा दिलाने के लिए हमारी कोई कोशिश कामयाब नहीं हो पाई, तीसरी भूल पाकिस्तान के साथ क्रिकेट जारी रखना थी, चौथी भूल दोनों देशों के बीच वीजा नियमों को हलका करना थी। ये सभी राहतें पाकिस्तान को हमने बिना मांगे दी। इससे वह यह मान बैठा कि भारत को गरज है, इसलिए वह ऐसा कर रहा है। रजनीति का यह नियम है कि शत्रु देश जब कमजोरी का प्रदर्शन करे, तब उसे दबाया जाए। बस पाकिस्तान यही कर रहा है।
अब समय है कि पाकिस्तान के साथ युद्ध छेड़ देना चाहिए। हालांकि इसकी कोई हिमायत नहीं कर रहा है। युद्ध किए बिना ही ऐसे कई दबाव हैं, जिससे बढ़ाया जा सकता है। भारत ने यह सब न करते हुए इस मामले पर पाकिस्तानी राजदूत को बुलाकर अपना विरोध ही चुपचाप दर्ज करवा दिया। ऐसा विरोध क्या काम का? इसे बांझ विरोध कहा जा सकता है। हमारा विरोध इतना अधिक प्रचंड होना था कि दुश्मन देश को माफी मांगने की नौबत आ जाए। पर हुआ इसके विपरीत। वह तो अब और गरियाने लगा है। हमारी लाचारगी यही बताती है कि भारत एक स्वतंत्र देश नहीं, बल्कि अमेरिका का एक खंडित राज्य है। भारत की विदेश नीति दिल्ली में नहीं, बल्कि वाशिंगटन में तय होती है। भारत-पाकिस्तान अमेरिका की कठपुतलियां हैं। भारत के नेता तो अमेरिका से पूछे बिना पानी तक नहीं पीते। इस हालात में भारत के बहादुर सैनिकों के पास अपमान का घूंट भरकर रह जाने के सिवाय और कोई चारा ही नहीं है। सैनिक तो मरने के लिए ही होते हैं, पर उनकी दर्दनाक मौत किसी को भी सहन नहीं होती।
डॉ. महेश परिमल