डॉ. महेश परिमल
घर की गैलरी में चिड़ियों और कबूतरों का अक्सर आना लगा रहता है। उन्हें दाने देना रोज का काम है। कभी वे अपना घरौंदा भी बना लेते। कुछ समय बाद घोसले में चूजा दिखाई देता। दोनों चूजे को खूब लाड़-दुलार करते। उन्हें चूहे के साथ देखना बहुत अच्छा लगता। उसके पहले वे जिस तरह से अपना घरौंदा बनाते, उसमें उनकी कारीगरी देखने के काबिल होती। किस तरह से वे एक-एक तिनका चोंेच में दबाए आते, घोसले पर रखते और उसे बड़ी खूबसूरती के साथ जमाते। उनकी सहभागिता देखते ही बनती थी। इस समय चिड़ियों का कम किंतु कबूतरों का आना अधिक हो गया है। वे आते, काफी आवाज करते। कई बार झगड़ते भी। पर प्यार से रहना उन्हें आता है, इसलिए प्यार से रहते भी थे। इसके बाद भी वे अपना घरौंदा बनाना नहीं भूलते। पर इस बार उनकी हरकतों से मुझे आश्चर्य हुआ। अब वे तिनके नहीं, पर जंग लगे हुए छोटे-छोटे तार के टुकड़े लाने लगे। मैं हतप्रभ! क्या शहर में अब तिनकों की कमी हो गई। ये परिंदे अब जंग लगे तार क्यों ला रहे हैं, अपना घरौंदा बनाने के लिए?
तिनको के स्थान पर तार। यह एक चेतावनी हो सकती है, परिंदों द्वारा मनुष्यों को। हम तो तार के घर में रह लेंगे, पर क्या आप रह पाएंगे? कांक्रीट के इस जंगल में अब तिनके भी नहीं मिल रहे हैं। हद हो गई। मैंने उन जंग लगे तारों को फेंक दिया। किसी ने कहा-आखिर कुछ सोचकर वे ऐसा कर रहे हैं, वे रह लेंगे, तारों से बने घरौंदे में। ये ता ेउनकी बात, पर क्या जंग लगे तारों के बीच वे अपने चूजे के साथ रह पाएंगे? जंग लगे तार से हुई चोट खतरनाक होती है। अगर चूजे को तार कहीं चुभ गया, तो क्या होगा? तारों को फेंक देने के बाद परिंदों का आना कम हो गया। मैं दु:खी, आखिर क्यों? वे अपने खतरनाक घरौंदे में रहें, यह मैं नहीं चाहता था। शायद मेरी यही सोच ने आज मुझे परिंदों से कुछ दूर कर दिया। परिंदे अभी भी आते हैं कभी-कभी, मुझे शिकायत भरी दृटि से देखते हैं। कभी उलाहना देते हुए से लगते हैं। मैं क्या कर सकता हूं? मेरी चिंता यह है कि क्या मेरे शहर में घरौंदे बनाने के लिए तिनकों का अकाल हो गया? तिनके नहीं हैं, इसका मतलब यही हुआ कि दाने भी नहीं होंगे, जब दाने नहीं होंगे, तो फिर परिंदें क्या चुगेंगे? अगर कुछ नहीं चुगेंगे, तो फिर जीवित कैसे रहेंगे? कैसा होगा बिना परिंदों का हमारा जीवन? न चिड़ियों की चहचहाट, न कबूतरों की गुटर गूं, न कलरव और न ही आकाश में मुक्त विचरते पक्षी वंृद। वीरान हो जाएगी दुनिया, वीरान हो जाएगा हमारे भीतर का कोई कोना।
ये एक चेतावनी है हम सबके लिए। हम तो अपने स्वार्थो के बीच जी लेंगे, पर ये खामोश परिंदे कैसे जी पाएंगे, कैसे बनाएंगे अपना घरौंदा? अगर तारों से ये अपना घरौंदा बना भी लें, तो कितनी असुरक्षित होगी उनकी दुनिया? उन उस असुरक्षित दुनिया के बीच क्या हम सुरक्षित रह पाएंगे? आज उन्होंने हमारी देहरी पर जंग लगे तार बिछाए हैं, कल कुछ और भी ला सकते हैं। इसके पहले तिनके लाकर कभी चिंगारी नहीं लाए वे, पर इस बार उनके इरादे कुछ खतरनाक दिखाई दे रहे हैं। वे हमें बार-बार चेतावनी दे रहे हैं, हम गाफिल हैं अपनी ही दुनिया में। हम यह भूल गए हैं कि जो प्रकृृति के जितना करीब है, उतना ही रचनात्मक है। प्रकृति से दूर जाएंगे तो ऊसर हो जाएंगे, फिर हममें रचना के सारे स्रोत सूख जाएंगे। फिर जो रचनात्मक नहीं है, उसमें सामाजिकता की भी उतनी ही कमी होगी। आज के जीवन में जितने संकट हैं, उनका सबसे बड़ा कारण प्रकृति का निरादर ही है। हम न केवल प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं, बल्कि प्रकृति के साथ हमारा व्यवहार बहुत बर्बर किस्म का है। हमें न नदियों की चिंता है, न पहाड़ों की, न जंगल-हरियाली की और न पशु-पक्षियों की। क्या इसके बाद भी हम स्वयं को मानव कह पाएंगे? डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी तो बचा नहीं, क्या अब डूबते को तिनके का सहारा भी नहीं मिलेगा? बोलो, कुछ तो बोलो?
डॉ. महेश परिमल
घर की गैलरी में चिड़ियों और कबूतरों का अक्सर आना लगा रहता है। उन्हें दाने देना रोज का काम है। कभी वे अपना घरौंदा भी बना लेते। कुछ समय बाद घोसले में चूजा दिखाई देता। दोनों चूजे को खूब लाड़-दुलार करते। उन्हें चूहे के साथ देखना बहुत अच्छा लगता। उसके पहले वे जिस तरह से अपना घरौंदा बनाते, उसमें उनकी कारीगरी देखने के काबिल होती। किस तरह से वे एक-एक तिनका चोंेच में दबाए आते, घोसले पर रखते और उसे बड़ी खूबसूरती के साथ जमाते। उनकी सहभागिता देखते ही बनती थी। इस समय चिड़ियों का कम किंतु कबूतरों का आना अधिक हो गया है। वे आते, काफी आवाज करते। कई बार झगड़ते भी। पर प्यार से रहना उन्हें आता है, इसलिए प्यार से रहते भी थे। इसके बाद भी वे अपना घरौंदा बनाना नहीं भूलते। पर इस बार उनकी हरकतों से मुझे आश्चर्य हुआ। अब वे तिनके नहीं, पर जंग लगे हुए छोटे-छोटे तार के टुकड़े लाने लगे। मैं हतप्रभ! क्या शहर में अब तिनकों की कमी हो गई। ये परिंदे अब जंग लगे तार क्यों ला रहे हैं, अपना घरौंदा बनाने के लिए?
तिनको के स्थान पर तार। यह एक चेतावनी हो सकती है, परिंदों द्वारा मनुष्यों को। हम तो तार के घर में रह लेंगे, पर क्या आप रह पाएंगे? कांक्रीट के इस जंगल में अब तिनके भी नहीं मिल रहे हैं। हद हो गई। मैंने उन जंग लगे तारों को फेंक दिया। किसी ने कहा-आखिर कुछ सोचकर वे ऐसा कर रहे हैं, वे रह लेंगे, तारों से बने घरौंदे में। ये ता ेउनकी बात, पर क्या जंग लगे तारों के बीच वे अपने चूजे के साथ रह पाएंगे? जंग लगे तार से हुई चोट खतरनाक होती है। अगर चूजे को तार कहीं चुभ गया, तो क्या होगा? तारों को फेंक देने के बाद परिंदों का आना कम हो गया। मैं दु:खी, आखिर क्यों? वे अपने खतरनाक घरौंदे में रहें, यह मैं नहीं चाहता था। शायद मेरी यही सोच ने आज मुझे परिंदों से कुछ दूर कर दिया। परिंदे अभी भी आते हैं कभी-कभी, मुझे शिकायत भरी दृटि से देखते हैं। कभी उलाहना देते हुए से लगते हैं। मैं क्या कर सकता हूं? मेरी चिंता यह है कि क्या मेरे शहर में घरौंदे बनाने के लिए तिनकों का अकाल हो गया? तिनके नहीं हैं, इसका मतलब यही हुआ कि दाने भी नहीं होंगे, जब दाने नहीं होंगे, तो फिर परिंदें क्या चुगेंगे? अगर कुछ नहीं चुगेंगे, तो फिर जीवित कैसे रहेंगे? कैसा होगा बिना परिंदों का हमारा जीवन? न चिड़ियों की चहचहाट, न कबूतरों की गुटर गूं, न कलरव और न ही आकाश में मुक्त विचरते पक्षी वंृद। वीरान हो जाएगी दुनिया, वीरान हो जाएगा हमारे भीतर का कोई कोना।
ये एक चेतावनी है हम सबके लिए। हम तो अपने स्वार्थो के बीच जी लेंगे, पर ये खामोश परिंदे कैसे जी पाएंगे, कैसे बनाएंगे अपना घरौंदा? अगर तारों से ये अपना घरौंदा बना भी लें, तो कितनी असुरक्षित होगी उनकी दुनिया? उन उस असुरक्षित दुनिया के बीच क्या हम सुरक्षित रह पाएंगे? आज उन्होंने हमारी देहरी पर जंग लगे तार बिछाए हैं, कल कुछ और भी ला सकते हैं। इसके पहले तिनके लाकर कभी चिंगारी नहीं लाए वे, पर इस बार उनके इरादे कुछ खतरनाक दिखाई दे रहे हैं। वे हमें बार-बार चेतावनी दे रहे हैं, हम गाफिल हैं अपनी ही दुनिया में। हम यह भूल गए हैं कि जो प्रकृृति के जितना करीब है, उतना ही रचनात्मक है। प्रकृति से दूर जाएंगे तो ऊसर हो जाएंगे, फिर हममें रचना के सारे स्रोत सूख जाएंगे। फिर जो रचनात्मक नहीं है, उसमें सामाजिकता की भी उतनी ही कमी होगी। आज के जीवन में जितने संकट हैं, उनका सबसे बड़ा कारण प्रकृति का निरादर ही है। हम न केवल प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं, बल्कि प्रकृति के साथ हमारा व्यवहार बहुत बर्बर किस्म का है। हमें न नदियों की चिंता है, न पहाड़ों की, न जंगल-हरियाली की और न पशु-पक्षियों की। क्या इसके बाद भी हम स्वयं को मानव कह पाएंगे? डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी तो बचा नहीं, क्या अब डूबते को तिनके का सहारा भी नहीं मिलेगा? बोलो, कुछ तो बोलो?
डॉ. महेश परिमल