दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में आज प्रकाशित मेरा आलेख
चिंतन और चिंता में दूरी ही कितनी?
डॉ. महेश परिमल
जयपुर में कांग्रेस का चिंतन शिविर समाप्त हो गया। आगामी चुनाव के लिए दिशा खोजने की जद्दोजहद में कांग्रेस स्वयं ही दिशाहीन दिखाई दे रही है। राजनीति को जहर मानने वाली कांग्रेस इतने साल से सत्ता में रहने के बाद भी यह समझ नहीं पाई है कि आम आदमी से दूर होकर पार्टी कभी भी सबल नही हो सकती। पिछले 9 वर्षो में आम आदमी को स्वयं से दूर रखने वाली कांग्रेस आज आम आदमी की बातें कर रही है। यह शर्मनाक है। आम आदमी हमेशा ही हाशिए पर होता है। यह बात अच्छी रही कि कांग्रेस ने इस शिविर में अपनी गलतियों को माना। केवल मान लेने से कुछ नहीं होता, यदि वही गलतियां दोहराई जाएं, तो फिर गलती मानने को कोई अर्थ ही नहीं। वास्तव में कांग्रेस को अब अपनी चिंता होने लगी है, इसलिए चिंतन शिविर का आयोजन करना पड़ा। वैसे चिंतन और चिंता में अधिक अंतर नहीं है। ¨चता के बाद ही चिंतन शुरू होता है। ¨चता का आशय यही है कि आपने भूलें की हैं, चिंतन में उन भूलों पर पछतावा किया जा सकता है। पर भूल तो भूल है, उसे यदि दोहराया न जाए, तो चिंतन का अर्थ है, अन्यथा बेकार। हर मोर्चे पर विफल सरकार अब यदि आम आदमी की चिंता कर रही है, तो उसे सबसे पहले महंगाई पर काबू पाना होगा, आम आदमी को करीब लाने का यह सबसे अमोघ शस्त्र है। आम आदमी को खुश करने का दूसरा तरीका यह है कि उसे अपने ईमानदार काम के लिए रिश्वत न देनी पड़े। पर क्या आज यह संभव है। राहुल गांधी के पिता यह कहते रहे कि एक रुपए में से गरीब आदमी तक 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि ऐसा नहीं होगा, अब 99 पैसे गरीब आदमी तक पहुंचेंगे। यहां भी उन्होंने एक पैसा बेईमानों को देने के लिए राजी हो गए। वैसे यह भी एक वादा ही है और वादे तो केवल तोड़ने के लिए ही होते हैं। फिर वादे करना और उसे भूल जाना तो नेताओं का जन्म सिद्ध अधिकार है। इसलिए राहुल के बयान को गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। केवल उनके कह देने से कुछ भी संभव नहीं है। वैसे भी उन्होंने ही हाल के चुनाव के पूर्व कई वादे किए थे, जरा उन वादों पर गौर कर लें, यही काफी होगा।
अधिवेशन के पहले दिन सोनिया गांधी ने युवा मतदाताओं को आकषिर्त करने पर जोर डाला। उन्होंने सोशल मीडिया की सक्रियता पर भी आश्चर्य व्यक्त किया। वास्तविकता यह है कि आज सोशल मीडिया पर करोड़ों भारतीय अपने-अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि से लोग रोज ही अपने विचारों को शब्द देने लगे हैं। विभिन्न नेता भी आज अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया का ही इस्तेमाल करने लगे हैं। लेकिन आज सोशल मीडिया से जुड़े रहना ही पर्याप्त नहीं माना जाता। अन्ना और सिविल सोसायटी इसके ताजा उदाहरण हैं। एक समय ऐसा भी था जब टीम अन्ना को सोशल मीडिया में ही भारी समर्थन मिल रहा था। उसके बाद लोगों की उनमें दिलचस्पी कम होती गई। सोशल मीडिया से अपनी आवाज को बुलंद तो किया जा सकता है, पर उस आवाज में लोगों की दिलचस्पी, समझ और अभिव्यक्ति का अनुशासन होना आवश्यक है। जो इस समय देखने में नहीं आ रही है। सोनिया गांधी ने जब कांग्रेसियों से सोशल मीडिया के महत्व को समझने का आह्वान किया, परंतु वे यह भूल गई कि कांग्रेसियों की सबसे बड़ी आवश्यकता आज जनता से सीधे संवाद की है। वह युवाओं की ताकत और प्रभाव को तो पहचानती हैं, साथ ही सोशल मीडिया के प्रभुत्व को भी स्वीकारती हैं। इस स्तर पर सबसे बड़ी बात यह है कि आज जिसे आम कांग्रेसी भविष्य के नेता के रूप में स्वीकार कर रहे हैं, वही राहुल गांधी सोशल मीडिया में कहीं नहीं दिखाई देते। उनकी तुलना में नरेंद्र मोदी, अखिलेश यादव, उमर अब्दुल्ला, नीतिश कुमार, जगमोहन रेड्डी, ममता बनर्जी आदि ने न जाने कब से फेसबुक और ट्विटर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं।
अब वे दिन लद गए, जब प्रेस वार्ता में अपनी बात कहकर श्रेय लूट लिया जाता था। अब तो यह हाल है कि घटना होते ही नेताओं को तुरंत अपनी राय देनी होती है। मीडिया उसके लिए हमेशा तत्पर रहता है। आज नेताओं के लिए फेसबुक, ट्विटर जैसे माध्यम एक चुनौती के रूप में हैं। अपनी छबि बनाने का एक जरिया भी हैं। कई नेता यह समझ चुके हैं, इसलिए कोई घटना होते ही तुरंत इन माध्यमों से अपने विचारों का प्रचार-प्रसार कर देते हैं। दिल्ली गेंगरेप का मामला हो या फिर विदेशी बैंकों में काला धन का मामला, इसके पहले जनलोकपाल जैसे मुद्दे पर सोशल मीडिया पर समग्र देश गर्मा-गर्म चर्चा हुई। इसमें सभी ने अपने विचार दिए। दूसरी ओर युवा होने के बाद भी राहुल गांधी इस मुद्दे पर मौन ही रहे। सोनिया गांधी ने स्वीकारा कि हमें युवाओं के बढ़ते आक्रोश को समझना होगा। आज के युवा त्वरित प्रतिक्रिया करते हैं, तब हमें उसे धर्य के साथ सुननी चाहिए। पर इन सूफियानी वाक्यों को वास्तव में समझने के लिए कांग्रेस की तैयारी कैसी है, यह तो उसकी वेबसाइट देखकर ही पता चल जाता है। जो न जाने कब से अपडेट ही नहीं हुई है। आज भी उसमें पुरानी जानकारियां ही भरी पड़ी हैं। जब हम युवाओं को जोड़ने की बात करते हैं, तो सबसे पहले स्वयं को अपडेट करना होगा। वेबसाइट ही कांग्रेस के अपडेट की पोल खोलती है।
लोकसभा चुनाव में मुख्य रूप से दो लोगों को सामने रखकर लड़ा जाएगा, यह तय है। इसमें एक हैं नरेंद्र मोदी और दूसरे हैं राहुल गांधी। इन दोनों में से सोशल मीडिया में आज भी नरेंद्र मोदी का डंका बजता है। वे अपनी हर बात अपने सोशल मीडिया के साथ शेयर करते हैं। मोदी की कार्यशैली की जितनी भी आलोचना की जाए, पर इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उसका प्रचार अभियान हमेशा ही लोगों को आकर्षित करता है। प्रचार-प्रसार के लिए वे हर तरह की उपयोगी टेक्नालॉजी का इस्तेमाल करने में नहीं चूकते। दूसरी ओर राहुल गांधी अभी फेसबुक में ही पूरी तरह से अपडेट नहीं हैं। यही बात कांग्रेस को दिशाहीन बनाती है। सोनिया जी कहती हैं कि केंद्र सरकार की कितनी ही हितकारी योजनाओं की जानकारी आम आदमी को नहीं है। केंद्र की योजनाओं की जानकारी जब कांग्रेस के नेताओं को ही नहीं मालूम, तो फिर आम जनता को किस तरह से पता चलेंगी। कितने कांग्रेसी ऐसे हैं, जिनका जनता से सीधा संवाद है? क्या इस सवाल का जवाब सोनिया गांधी समेत किसी नेता के पास है? गले पर कांग्रेसी होने का पट्टा लगाकर अपना प्रचार करने का जमाना अब नहीं है। गुजरात में भाजपा, बिहार में जनता दल, कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस, बंगाल में तृणमूल, महाराष्ट्र में मनसे के कार्यकर्ताओं से कांग्रेस को प्रेरणा लेनी चाहिए। ताकि वह यह समझ सके कि किस तरह से जमीन से जुउ़ा जाता है। इन प्रांतों में सभी कार्यकर्ताओं के लिए ट्विटर या फेसबुक की सदस्यता अनिवार्य कर दी गई है। ताकि पार्टी की नीति का प्रचार किया जा सके। उसमें सभी कार्यकर्ता यह बताते हैं कि पिछले सप्ताह उन्होंने पार्टी के लिए क्या किया। अगले पखवाड़े क्या करना है।
ये लोग हमेशा फेसबुक पर अपडेट रहते हैं। नागरिकों के सवालों का जवाब देने, साप्ताहिक बैठकों में अपनी सक्रियता बतानी होती है। यही नहीं इसके अलावा किस मुद्दे पर आक्रामक होना है, किस पर शांति से बात करना है और किस मुद्दे पर पतली गली से निकल जाना है, यह सब कार्यकर्ता आपस में तय कर लेते हैं। नए कार्यकर्ताओं को बाकायदा इसका प्रशिक्षण दिया जाता है। दूसरी ओर कांग्रेस कार्यकर्ता अभी भी शान से खुली जीप में रोज कार्यालय का चक्कर लगाते हैं, ताकि खुद के सक्रिय होने का प्रमाण पत्र प्राप्त किया जा सके। गांव ही नहीं, अपने क्षेत्र में इन्हें कितने लोग जानते हैं, यह पूछो तो वे बगलें झांकने लगते हैं। कांग्रेस का कोई कार्यकर्ता जमीन से नहीं जुड़ा है। उनकी बातें हवा हवाई ही होती हैं।
एक समय ऐसा भी था, जब लोग अपने घर की दीवारों पर संदेश लिखते थे, अब इन दीवारों का रूप बदल गया है। अब ये दीवारें फेसबुक की वाल के रूप में हमारे सामने हैं, जिस पर अपने विचार ही व्यक्त करना नहीं, बल्कि दूसरों के विचारों को जानना आवश्यक है। लोग किस विषय पर क्या विचार रखते हैं, यह फेसबुक से ही जाना जाता है। राहुल गांधी पहले स्वयं फेसबुक पर अपडेट होना सीखें। सर पर कांटों का ताज पहन लिया है। अब चुनौतियां उनका इंतजार कर रही हैं। जब वे सच्चई जानते हैं कि विधायक थोपा जाता है, बाहरी आदमी को अधिक प्राथमिकता मिलती है, जिला संगठक को कोई नहीं पूछता, दूसरी पार्टी से आए लोगों को हाथों-हाथ लिया जाता है, तो ये बुराइयां दूर होंगी, तभी कार्यकर्ता स्वयं को महत्वपूर्ण मानेंगे। राशन दुकानों से गरीबों को सही समय पर सही अनाज मिल रहा है या नहीं, शासन की हितकारी योजनाएं सुदूर गावों में कहीं दम तो नहीं तोड़ रही हैं। इस तरह की बहुत सी चुनौतियां राहुल गांधी के सामने हैं, पर इन्हें प्राथमिकता के साथ हल करना उनका कर्तव्य है। यदि सत्ता जहर है, तो करीब 50 साल तक को कांग्रेस ने इसका स्वाद चखा ही है, इस तरह से देखा जाए तो अब कांग्रेस नीलकंउ हो गई है। इस पर जहर का कोई असर नहीं होता। पर देश के नागरिकों को महंगाई का असर तुरंत होता है। महंगाई और भ्रष्टाचार पर काबू पाना आज देश की सबसे बड़ी जरुरत है। जो भी दल इस पर लगाम लगा सकता है, वही दल अगले चुनाव में अपने पैरों पर खड़ा होकर सत्ता प्राप्त कर सकता है। इन दो मुद्दों को जिसने भी अनदेखा किया, उसे जनता कभी नहीं छोड़ेगी, यह निकट भविष्य में होने वाले चुनाव परिणाम ही बताएंगे।
डॉ. महेश परिमल