बुधवार, 3 जुलाई 2013

महाराष्ट्र में दबे पांव आती अकाल की विभीषिका


डॉ. महेश परिमल

महाराष्ट्र अपनी समृद्धि के लिए जाना जाता है। इसी समृद्धि के पीछे छिपी है सच्चई अकाल की। जो दबे पांव इस प्रदेश में आ रही है। निश्चित रूप से यह पूरे देश को प्रभावित करेगी। पर महाराष्ट्र के नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी दिनचर्या में ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं देता कि वे राज्य में फैले अकाल से दु:खी हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मुम्बई की यात्रा की और कई नसीहतें देकर चले गए। अकाल ही नहीं, इस प्रदेश में राजनीतिक विवाद भी उतने ही गहरे हैं। कांग्रेस में गुटबाजी जारी है। अजीत पवार और राज ठाकरे के बीच प्रतिस्पर्धा जारी है। उधर राज ठाकरे-उद्धव ठाकरे के मिलने की भी खबरें पर्दे के पीछे चल रही है। क्ष्ेत्रीय दल इसका लाभ उठाने के लिए तत्पर हैं। यदा-कदा में अपनी राजनीतिक ताकत का परिचय देते रहते हैं। एनसीपी नेता अजीत पवार और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे के बीच राजनीतिक खींचतान महाराष्ट्र की राजनीति को डगमगा रही है। राज ठाकरे के काफिले पर हुए हमले के बाद राज ठाकरे के समर्थकों ने एनसीपी को निशाना बनाया था। इस तरह की घटनाओं का असर मुम्बईवासियों के रोजमर्रा के जीवन पर भी पड़ता है। दोनों युवा नेता अपने राजनीतिक पांव को मजबूत बना रहे हैं। अजीत पवार को मानो खुले हाथ मिल गए हैं, ऐसा उनकी कार्यशैली से लगता है।
महराष्ट्र में अकाल की समस्याओं के समाधान का किसी के पास समय नहीं है। कितने ही स्थान ऐसे हैं, जहां पानी की समस्या बनी हुई है। यहां दो-तीन महीने में ही स्थिति और भी भयावह हो जाएगी, यह तय है। यह अकाल कम बारिश के कारण हुआ है। अभी ठंड विदा ले रही है, गर्मी की दस्तक शुरू हो गई है। अब अकाल अपने विकराल रूप में सामने आएगा। अकाल से निपटने में महाराष्ट्र सरकार पूरी तरह से निष्फल साबित हुई है। संभावित अकाल के संबंध में तो साल भर पहले से ही निर्णय ले लिया जाना था। अकाल कोई अचानक नहीं आया। कम बारिश से अकाल की आशंका हो गई थी। यदि समय रहते निर्णय लिए जाते, तो इसका असर कम होता। पर अब बहुत ही देर हो चुकी है। विदर्भ में कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं। विदर्भ की हालत इस समय बहुत ही खराब है। स्थिति इतनी अधिक दारुण है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। सरकारी राहत इन क्षेत्रों में आ रही है, पर वह राहत जरुरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रही है। एक तरफ महाराष्ट्र बहुत ही समृद्ध है। वाणिज्य की राजधानी कहा जाता है इसे, मायानगरी भी कहा जाता है। लेकिन दूसरी ओर यहां अकाल अपने डैने पसार रहा है।
राहुल गांधी ने यहां आकर कांग्रेसियों की क्लास ली। क्या करना है, क्या नहीं करना है, कब करना है, पार्टी क्या चाहती है, यह उन्होंने समझाया। कांग्रेसियों ने उन्हें पूरे उत्साह के साथ सुना। सभी को यह लगा कि राहुल कोई जादू की छड़ी लेकर आएंगे, कुछ ऐसा करेंगे जिससे पार्टी में गुटबाजी खत्म हो जाए। कांग्रेस पिछले एक साल से अध्यक्ष को खोज रही है। पर सभी को संतुष्ट करने वाला अध्यक्ष नहीं मिला। राहुल गांधी कोई घोषणा करेंगे, यह भी सोचा था कांग्रेसियों ने, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। राहुल गांधी को पूरा जोर अनुशासन पर ही था। इधर राहुल गए, उधर गुटबाजी फिर उभरकर सामने आई। राहुल की सारी नसीहतें ताक पर रख दी गई। उनकी सलाह पर कांग्रेस की गुटबाजी ने ही पानी फेर दिया। वैसे महाराष्ट्र कांग्रेस में गुटबाजी कोई नई बात नहीं है। गुटबाजी के ये वाइरस भाजपा में भी फैल गए हैं। यहां कांग्रेस एनसीपी के बिना सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, तो भाजपा बिना शिवसेना के सरकार के सरकार नहीं बना सकती। उद्धव-राज के बीच वार्ता चल रही है। दोनों कभी भी मिल सकते हैं, इसकी चर्चा जोरों पर है। दोनों का राज्य में अपना महत्व है, अच्छी बात यह है कि दोनों ने अभी तक एक-दूसरे पर किसी तरह का कोई खुलेआम आक्षेप नहीं लगाया है, न ही किसी तरह का अनर्गल प्रलाप किया है। उद्धव स्वभाव से सौम्य हैं, तो राज थोड़े आक्रामक हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में राज ठाकरे ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है, वे अपना विस्तार भी कर रहे हैं। अजीत पवार पर एक साथी होने के नाते कांग्रेस उन्हें सावधान करते रहती है। पर इसका कोई असर उन पर होता दिखाई नहीं दे रहा है।
केंद्र में भी यूपीए के महत्वपूर्ण साथियों में एक एनसीपी भी है। शरद पवार की राजनीतिक इच्छाओं का सीधा लाभ अजीत पवार को भी मिल रहा है। भ्रष्टाचार के आक्षेपों के बीच हाल ही में उन्हें इस्तीफा दे दिया था, किंतु फिर उन्हें क्लीन चिट मिल गई, तब उन्होंने दुबारा शपथ ली। कांग्रेस-एनसीपी के बीच भी कम मतभेद नहीं है। दोनों ही यह मानते हैं कि वे अपने बल पर चुनाव जीत सकते हैं, और सरकार भी बना सकते हैं। उनके इस तरह के मतभेद और अतिआत्मविश्वास का पूरा लाभ भाजपा उठाना चाहती है। पर वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही है। असली तस्वीर अभी काफी धुंधली है, पर चुनाव आते-आते साफ हो जाएगी, यह तय है। अकाल को देखते हुए यदि राज्य के नेता आपसी मतभेद भुलाकर कुछ ऐसा करें, जिससे जनता को लगे कि सरकार उनके लिए भी कुछ कर रही है। पर इस तरह के संदेश अभी नहीं जा रहे हैं। गुटबाजी में फंसे नेता अपने में ही खुश हैं। चुनाव आते ही उन्हें नागरिकों की पीड़ा समझ में आएगी। अभी उनकी सारी संवेदनाएं सोयी हुई हैं। चुनाव की दस्तक उनकी संवेदनाओं को जगाने का काम करेगी। तब तक लोगों को राह देखनी ही होगी, भले ही अकाल अपने पूरे तेवर में आ जाए। जब सरकार जन हितार्थ फैसले लेने लगे, तब सोच लेना चाहिए कि चुनाव आने वाले हैं।
डॉ. महेश परिमल

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