डॉ. महेश परिमल
देश में जब कहीं भी प्राकृतिक आपदा आती है, तो लोगों में पीड़ितों को राहत देने की इच्छा होती है। इस दौरान कई सेवा भावी संस्थाएं काम में लग जाती हैं। कर्मचारियों के वेतन से एक दिन की रोजीे काट ली जाती है। जो पीड़ितों को पहुंचाई जाएगी, इसका भरोसा दिया जाता है। लोग अपने दु:ख भूलकर उन्हें थोड़ी-सी खुशी देने में लग जाते हैं। केदारनाथ में हुई तबाही के बाद लोगों ने खुले दिल से राहत देने की योजना बनाई। आवश्यक चीजें जमा की गई, ट्रकों से भेजा भी गए। खाद्य सामग्री के पेकेट भी भेज गए। पर सरकार की इस दिशा में कोई योजना न होने के कारण भेजी गई राहत सामग्री अब सड़ने लगी है। जब गुजरात में भूकम्प आया था, तब भी बोर्नविटा और दूध पावडर के ढेर हो गए थे, जो बाद में बेकार हो गए। इस तरह से अब केदारनाथ पहुंचने वाली सामग्री का हो रहा है। सामंजस्य की कमी के कारण चीजें बरबाद हो रही हैं। सरकार उन चीजों को सही हाथों तक पहुंचाने में नाकाम रही। राहत सामग्री लेकर गए ट्रक अब वापस आने लगे हैं। उन ट्रकों की सामग्री अब किसी काम की न रही। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर हमारी संवेदनाओं का क्या होगा? वैसे भी लोगों पर यह आरोप है कि उनकी संवेदनाएं मर गई है। यदि किसी भी तरह से वे कुछ देर के लिए जागी भी, तो उस दौरान हमारे द्वारा किए गए अच्छे कार्य का हश्र क्या होता है? क्या केवल इसलिए कि सरकार के पास राहत सामग्री पहुंचाने के लिए संसाधन की कमी है।
सामान्य रूप से प्राकृतिक आपदा के बाद दान का प्रवाह बढ़ जाता है। कोई धनराशि से तो कोई चीजों से सहायता करता है। लोगों की संवेदना दान के रूप में बाहर आती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि खाद्य सामग्री पर फंगस जम जाती है, जिसे बाद में फेंकना पड़ता है। आपदा के 15 दिनों तक खाद्य सामग्री के पेकेट की मांग रहती है। उसके बाद पीड़ित भ इसे लेने से इंकार कर देते हैं। राहत सामग्री की इस कीट में दूध पावडर, चाय, शक्कर, स्टोव, केरोसीन की बोतल, गद्दे, माचिस, साबुन आदि होते हैं। जहां इस तरह की आपदा आती है, वहां यदि महीने भर बाद जाओ, तो पता चलता है कि कई घरों में ढेरों गद्दे, स्टोव आदि होते हैं। यानी जिन्हें आवश्यकता नहीं भी होती, उन्हें वे चीजें जबर्दस्ती दे दी जाती हैं, ताकि सरकार यह बताए कि इतने लोगों तक राहत सामग्री पहुंची। यदि सही सामंजस्य हो, तो आपदाग्रस्त लोगों को सही समय पर सही सामग्री मिल जाती है। लोग यह सोचकर दान देते हैं कि पीड़ित एकदम से खाली हो गए हैं, उनके घर बरबाद हो गए हैं, वे लाचार हैं। इसलिए राहत सामग्री देने का सैलाब ही उमड़ पड़ता है। पर सही सामंजस्य के अभाव में राहत सामग्री सही लोगों तक सही समय पर नहीं पहुंच पाती। फिर इसका व्यापार शुरू हो जाता है। फिर सम्पन्न लोग भी पीड़ितों से इन चीजों को खरीदना शुरू कर देते हैं। लोग ऐसे ही कमाई शुरू कर देते हैं। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू बहुत ही विकराल है। इस दौरान ऐसे लोग भी सक्रिय हो जाते हैं, जिनका आपदा से कोई सीधा संबंध नहीं होता। वे आपदाग्रस्त क्षेत्रों में आने वाली सामग्री का कालाबाजार शुरू कर देते हैं। सरकार से सहायता के नाम परा सामग्री लेते हैं, फिर उसे पीड़ितों को ही बेचने लगते हैं।
राहत सामग्री देकर या फिर चंदा देकर लोग स्वयं को थोड़ी देर के लिए संतुष्ट समझते हैं कि हमने कुछ किया। पर यह सोचना हमारी भूल होगी। कितने ही सेवाभावी यह मानते हैं कि यदि हमने सामग्री के बजाए नगद राशि राहत कोष में दी होती, तो बेहतर होता। राशि सही रूप से सही लोगों को मिलती है। वैसे देखा जाए तो राशि का वितरण भी सही न हो, तो वह राशि अनजाने या फिर स्वार्थी हाथों में पहुंच जाती है। ऐसे अवसरों में बहुत सी स्वार्थी सेवाभावी संस्थाएं ऊग आती हैं, जो सरकार के साथ मिलकर राहत सामग्री बॉटने का काम करती हैं। पर ये संस्थाएं अपने स्वार्थ के कारण राहत सामग्री सही हाथों तक नहीं पहुंचाती। उत्तराखंड में यही हो रहा है। खाद्य वस्तुएं लेकर बउ़े-बड़े ट्रक देहरादून तक पहुंच गए, पर आगे पहाड़ की चढ़ाई नहीं चढ़ पाए। इन ट्रकों में अचार, पूड़ी आदि चीजें थीं। सामंजस्य के अभाव में यह चीजें सही हाथों तक नहीं पहुंच पाई और बेकार हो गई। ट्रक वापस आने लगे हैं। क्योंकि उस सामग्री को लेने के लिए कोई तैयार ही नहीं था। देहरादून के रास्तों पर आज भी कई चीजें बेकार पड़ी हैं। ये वे चीजें हैं, जो राहत सामग्री के रूप में उत्तराखंड तक पहुंची थी, पर वहां कोई लेने वाला नहीं था, इसलिए वापसी के समय उन चीजों को रास्ते में ही फेंक दिया गया। अब इन सामग्री को पशु भी नहीं खा रहे हैं। ये चीजें सड़कर अब बीमारी फैलाने का ही काम कर रहीं हैं।
वैसे देखा जाए, तो राहत सामग्री भेजने का समय अभी है। क्योंकि अब तक काफी लोगों को बचाया जा चुका है। अब लोग अपने घरों में या राहत शिविरों में लौटने लगे हैं। इस समय यदि उन्हें खाद्य सामग्री या फिर गद्दे, स्टोव, केरोसीन आदि मिल जाए, तो जिंदगी की गाड़ी फिर चलने लगे। उत्तराखंड सरकार अभी तो लोगों को निकालने में ही लगी है। सेना ने अब यह काम बंद कर दिया है। अब पूरी भीडृ राहत शिविरों में है, लोग घरों तक लौटने लगे हैं, तब राहत सामग्री अधिक उपयोगी साबित होगी। उत्तराखंड सरकार को केंद्र सरकार समेत कई संस्थाओं ने राहत राशि देने की घोषणा की है। अब यदि एक को-आर्डिनेशन सिस्टम तैयार किया जाए और दान में मिली राशि को आपदा पीड़ितों तक पहुंचाने का प्रयास किया जाए, तो यह प्रयास सराहनीय होगा। यह आज की आवश्यकता भी है। वैसे भी उत्तराखंड सरकार पर तमाम आरोप लग रहे हैं, क्योंकि उसने सही समय पर सही कदम नहीं उठाया। तबाही के तीन दिनों तक सरकार पर सोते रहने का आरोप है। सचमुच हुआ भी यही। अब यदि वहां के मुूख्यमंत्री यह कहें कि इस तबाही में मृतक संख्या कभी भी नहीं बताई जा सकती, तो वे शायद गलत नहीं हैं। पर भविष्य में इस तरह की आपदा से किस तरह से निपटा जाए, इसका भी उत्तर उनके पास नहीं है।
डॉ. महेश परिमल
देश में जब कहीं भी प्राकृतिक आपदा आती है, तो लोगों में पीड़ितों को राहत देने की इच्छा होती है। इस दौरान कई सेवा भावी संस्थाएं काम में लग जाती हैं। कर्मचारियों के वेतन से एक दिन की रोजीे काट ली जाती है। जो पीड़ितों को पहुंचाई जाएगी, इसका भरोसा दिया जाता है। लोग अपने दु:ख भूलकर उन्हें थोड़ी-सी खुशी देने में लग जाते हैं। केदारनाथ में हुई तबाही के बाद लोगों ने खुले दिल से राहत देने की योजना बनाई। आवश्यक चीजें जमा की गई, ट्रकों से भेजा भी गए। खाद्य सामग्री के पेकेट भी भेज गए। पर सरकार की इस दिशा में कोई योजना न होने के कारण भेजी गई राहत सामग्री अब सड़ने लगी है। जब गुजरात में भूकम्प आया था, तब भी बोर्नविटा और दूध पावडर के ढेर हो गए थे, जो बाद में बेकार हो गए। इस तरह से अब केदारनाथ पहुंचने वाली सामग्री का हो रहा है। सामंजस्य की कमी के कारण चीजें बरबाद हो रही हैं। सरकार उन चीजों को सही हाथों तक पहुंचाने में नाकाम रही। राहत सामग्री लेकर गए ट्रक अब वापस आने लगे हैं। उन ट्रकों की सामग्री अब किसी काम की न रही। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर हमारी संवेदनाओं का क्या होगा? वैसे भी लोगों पर यह आरोप है कि उनकी संवेदनाएं मर गई है। यदि किसी भी तरह से वे कुछ देर के लिए जागी भी, तो उस दौरान हमारे द्वारा किए गए अच्छे कार्य का हश्र क्या होता है? क्या केवल इसलिए कि सरकार के पास राहत सामग्री पहुंचाने के लिए संसाधन की कमी है।
सामान्य रूप से प्राकृतिक आपदा के बाद दान का प्रवाह बढ़ जाता है। कोई धनराशि से तो कोई चीजों से सहायता करता है। लोगों की संवेदना दान के रूप में बाहर आती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि खाद्य सामग्री पर फंगस जम जाती है, जिसे बाद में फेंकना पड़ता है। आपदा के 15 दिनों तक खाद्य सामग्री के पेकेट की मांग रहती है। उसके बाद पीड़ित भ इसे लेने से इंकार कर देते हैं। राहत सामग्री की इस कीट में दूध पावडर, चाय, शक्कर, स्टोव, केरोसीन की बोतल, गद्दे, माचिस, साबुन आदि होते हैं। जहां इस तरह की आपदा आती है, वहां यदि महीने भर बाद जाओ, तो पता चलता है कि कई घरों में ढेरों गद्दे, स्टोव आदि होते हैं। यानी जिन्हें आवश्यकता नहीं भी होती, उन्हें वे चीजें जबर्दस्ती दे दी जाती हैं, ताकि सरकार यह बताए कि इतने लोगों तक राहत सामग्री पहुंची। यदि सही सामंजस्य हो, तो आपदाग्रस्त लोगों को सही समय पर सही सामग्री मिल जाती है। लोग यह सोचकर दान देते हैं कि पीड़ित एकदम से खाली हो गए हैं, उनके घर बरबाद हो गए हैं, वे लाचार हैं। इसलिए राहत सामग्री देने का सैलाब ही उमड़ पड़ता है। पर सही सामंजस्य के अभाव में राहत सामग्री सही लोगों तक सही समय पर नहीं पहुंच पाती। फिर इसका व्यापार शुरू हो जाता है। फिर सम्पन्न लोग भी पीड़ितों से इन चीजों को खरीदना शुरू कर देते हैं। लोग ऐसे ही कमाई शुरू कर देते हैं। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू बहुत ही विकराल है। इस दौरान ऐसे लोग भी सक्रिय हो जाते हैं, जिनका आपदा से कोई सीधा संबंध नहीं होता। वे आपदाग्रस्त क्षेत्रों में आने वाली सामग्री का कालाबाजार शुरू कर देते हैं। सरकार से सहायता के नाम परा सामग्री लेते हैं, फिर उसे पीड़ितों को ही बेचने लगते हैं।
राहत सामग्री देकर या फिर चंदा देकर लोग स्वयं को थोड़ी देर के लिए संतुष्ट समझते हैं कि हमने कुछ किया। पर यह सोचना हमारी भूल होगी। कितने ही सेवाभावी यह मानते हैं कि यदि हमने सामग्री के बजाए नगद राशि राहत कोष में दी होती, तो बेहतर होता। राशि सही रूप से सही लोगों को मिलती है। वैसे देखा जाए तो राशि का वितरण भी सही न हो, तो वह राशि अनजाने या फिर स्वार्थी हाथों में पहुंच जाती है। ऐसे अवसरों में बहुत सी स्वार्थी सेवाभावी संस्थाएं ऊग आती हैं, जो सरकार के साथ मिलकर राहत सामग्री बॉटने का काम करती हैं। पर ये संस्थाएं अपने स्वार्थ के कारण राहत सामग्री सही हाथों तक नहीं पहुंचाती। उत्तराखंड में यही हो रहा है। खाद्य वस्तुएं लेकर बउ़े-बड़े ट्रक देहरादून तक पहुंच गए, पर आगे पहाड़ की चढ़ाई नहीं चढ़ पाए। इन ट्रकों में अचार, पूड़ी आदि चीजें थीं। सामंजस्य के अभाव में यह चीजें सही हाथों तक नहीं पहुंच पाई और बेकार हो गई। ट्रक वापस आने लगे हैं। क्योंकि उस सामग्री को लेने के लिए कोई तैयार ही नहीं था। देहरादून के रास्तों पर आज भी कई चीजें बेकार पड़ी हैं। ये वे चीजें हैं, जो राहत सामग्री के रूप में उत्तराखंड तक पहुंची थी, पर वहां कोई लेने वाला नहीं था, इसलिए वापसी के समय उन चीजों को रास्ते में ही फेंक दिया गया। अब इन सामग्री को पशु भी नहीं खा रहे हैं। ये चीजें सड़कर अब बीमारी फैलाने का ही काम कर रहीं हैं।
वैसे देखा जाए, तो राहत सामग्री भेजने का समय अभी है। क्योंकि अब तक काफी लोगों को बचाया जा चुका है। अब लोग अपने घरों में या राहत शिविरों में लौटने लगे हैं। इस समय यदि उन्हें खाद्य सामग्री या फिर गद्दे, स्टोव, केरोसीन आदि मिल जाए, तो जिंदगी की गाड़ी फिर चलने लगे। उत्तराखंड सरकार अभी तो लोगों को निकालने में ही लगी है। सेना ने अब यह काम बंद कर दिया है। अब पूरी भीडृ राहत शिविरों में है, लोग घरों तक लौटने लगे हैं, तब राहत सामग्री अधिक उपयोगी साबित होगी। उत्तराखंड सरकार को केंद्र सरकार समेत कई संस्थाओं ने राहत राशि देने की घोषणा की है। अब यदि एक को-आर्डिनेशन सिस्टम तैयार किया जाए और दान में मिली राशि को आपदा पीड़ितों तक पहुंचाने का प्रयास किया जाए, तो यह प्रयास सराहनीय होगा। यह आज की आवश्यकता भी है। वैसे भी उत्तराखंड सरकार पर तमाम आरोप लग रहे हैं, क्योंकि उसने सही समय पर सही कदम नहीं उठाया। तबाही के तीन दिनों तक सरकार पर सोते रहने का आरोप है। सचमुच हुआ भी यही। अब यदि वहां के मुूख्यमंत्री यह कहें कि इस तबाही में मृतक संख्या कभी भी नहीं बताई जा सकती, तो वे शायद गलत नहीं हैं। पर भविष्य में इस तरह की आपदा से किस तरह से निपटा जाए, इसका भी उत्तर उनके पास नहीं है।
डॉ. महेश परिमल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें