डॉ. महेश परिमल
उत्तराखंड में हुई तबाही को एक महीना हो गया। आंखों के सामने से अभी तक तबाही के वे मंजर नहीं हट पाए हें। पवित्रधाम की यात्रा हजारों लोगों के लिए अंतिम यात्रा बनकर रह गई। ऐसी अंतिम यात्रा जिमसें उनके साथ उनका कोई अपना नहीं था। सरकार ने भी घोषणा कर दी है कि अब उन लापता लोगों को मृत मान लिया जाएगा। ठीक भी है, एक महीने तक कोई भूखा-प्यासा नहीं रह सकता। पर जिंदगी भी न जाने कब किस रूप में मौत को भी मात दे सकती है। कुछ लोगों की जिंदगी ने मौत को मात दे भी दी हो, तो उनके नाम अब मृतकों की सूची में ही मिलेंगे। यह विडम्बना है कि अभी तक केदारनाथ में कितने यात्रियों की मौत हुई है, यह किसी को नहीं मालूम। कई प्रश्न ऐसे हैं, जो एक महीने बाद भी अनुत्तरित हैं।
उत्तराखंड में आज हालत यह है कि लोग अपने स्वजनों के पासपोर्ट फोटो लेकर दर-दर भटक रहे हैं। कहीं से कुछ तो सुराग मिल जाए अपनों का। शासन से इस दिशा में उदारता दिखाते हुए लापता लोगों की संख्या एक हजार से बढ़ाकर चार हजार कर दी है। जबकि त्रासदी को देखते हुए यही माना जा रहा है कि वहां करीब 15 हजार से अधिक लोग अभी भी लापता हैं। एफआईआर के अनुसार अभी भी 4 हजार लोग लापता हैं और 11 हजार 600 लोग जीवित हैं या मौत की भेंट चढ़ गए हैं, यह स्पष्ट नहीं है। पिछले 17 जून को केदारनाथ पहुंचने वाले यात्रियों को जब यह सूचना दी गई कि मौसम खराब हो रहा है, यात्री तुरंत सुरक्षित स्थानों पर पहुंच जाएं। पर लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था। कुछ लोग जो उत्तराखंड के मौसम के जानकार थे, उन्होंने मौसम विभाग की इस चेतावनी को गंभीरता से लिया। 17 जून को ही मृत्यु का आंकड़ा 60 था, जो 18 को 100 हो गया। आठ दिनों के अंदर ही ये आंकड़े दस हजार तक पहुंच गए, ऐसा चर्चा में आया। इस पूरे घटनाक्रम में उत्तराखंड सरकार की लापरवाही और अव्यवस्था सामने आई। लोग चीखते-चिल्लाते रहे, पर उन्हें कोई मददगार नहीं मिला। अलबत्त्ता लूटने वाले लोग अपना काम करते रहे।
पवित्र केदारधाम मंदिर के परिसर में शव ही शव दिखाई दे रहे थे। इस दृश्य को जिसने भी देखा, कंपकंपाकर रह गया। चार धाम की इस यात्रा में आए कई श्रद्धालु पानी में ही बह गए और पहुंच गए, ऐसे स्थान पर, जहां से आना संभव नहीं। केदारनाथ में भले ही इसे प्राकृतिक आपदा माना जाए, पर उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे अव्यवस्था, वचाब की कार्यवाही, राहत सामग्री का वितरण आदि में इस अव्यवस्था का खुला नजारा देखने में आया। एक महीने बाद भी चार धाम की यात्रा का मार्ग टूटा हुआ ही है। यात्रा के मार्ग पर आने वाले ग्रामों की स्थिति बहुत ही खराब है। देशभर से आई राहत सामग्री तलहटी में पड़ी सड़ रही है। इंतजार करते-करते ट्रक वापस चले गए। इस दौरान मीडिया ने कोने-कोने की खबर दिखाकर सराहनीय काम किया है। देखा जाए, तो एक तरह से मीडिया ने उत्तराखंड की अव्यवस्था की पोल ही खोल दी है। पहले तो इसी उत्तराखंड की सरकार ने राहत सामग्री के वितरण और सेना की मदद के लिए आना-कानी की थी। पर उसे बाद में समझ में आया कि इसके बिना उद्धार संभव नहीं, इसलिए बाद में उसे झुकना पड़ा।
तबाही का एक नजारा देखो कि एक पूरा गांव ही विधवा हो गया। यही नहीं जो लोग प्रकृति के इस प्रकोप से बचकर आ गए हैं, वे सरकार को ही इसके लिए दोष दे रहे हैं। सेना की वे लोग भरपूर प्रशंसा कर रहे हैं, जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर लोगोंे को बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सेना ने पूरे 20 दिनों तक यह काम किया। यह उत्तराखंड सरकार की ही नासमझी थी कि वह प्रकृति के इस प्रकोप तो तुरंत नहीं समझ पाई, इसलिए उसने तीन दिन बाद ही सेना को मदद के लिए बुलाया। मौसम विभाग ने जो चेतावनी दी थी, उसे सरकार ने भी गंभीरता से नहीं लिया। यदि सरकार थोड़ी सी भी सावधान होती, तो प्रकृति का यह प्रकोप कुछ कम ही असर दिखाता। इसके बाद तो इस प्रकोप का जिस तरह से राजनीतिकरण हुआ, उससे लोगों को लगा कि ये नेता तबाही को भी राजनीति से जोड़ देते हैं। जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला, उससे यही साबित होता है कि आज कल हमारे नेता केवल बयानबाजी ही कर रहे हैं। इस चक्कर में न तो राहत सामग्री समय पर पहुंच पाई, न ही सेवाभावी संस्थाएं अपना काम ठीक से कर पाई। राहत सामग्री की कोई कमी नहीं थी, फिर भी वह सही हाथों तक नहीं पहुंच पाई। केंद्र और राज्य सरकार को कोसने का अच्छा मौका मिल गया, हमारे नेताओं को। इससे उनका असली चेहरा भी सामने आ गया।
इस चारधाम की यात्रा का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह कठिन यात्रा वाला क्षेत्र अब टूरिस्ट स्पॉट में बदल गया है। लोग यहां अब घूमने के लिए आते हैं। ट्रेवल कंपनियां लोगों को तरह-तरह के लुभावने आफर दे देकर उन्हें हर तरह की सुविधाएं देने का वादा करने लगी। इस चक्कर में हुआ यह है कि सुविधाओं के विस्तार के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ शुरू हो गई। इस तबाही में हर राज्य के लोग प्रभावित हुए है, इससे यही सिद्ध होता है कि कई लोगों का ध्येय केदारनाथ की यात्रा न होकर केवल घूमना ही था। इसलिए वे पर्वतीय प्रदेश उत्तराखंड पहुंच गए और प्रकृति का ग्रास बन गए। सरकार यहां पर इस बात के लिए चूक गई कि यात्रियों को किस तरह से सुरक्षित रखा जाए। जिस तरह से हज यात्रियों के लिए रेडियो बेल्ट बांधना आवश्यक होता है, ठीक उसी तरह यदि केदारनाथ पहुंचने वाले श्रद्धालुओं के लिए रेडियो बेल्ट बांधना अनिवार्य कर दिया जाता, तो कौन व्यक्ति कहां पर है, इसकी जानकारी कंप्यूटर पर हो जाती। एक व्यक्ति भी लापता नहीं होता। आश्यर्च इस बात का है कि इस आपदा में जो लोग बचकर आ गए हैं, वे अगले साल फिर वहीं जाने की तमन्ना रखते हैं। यह उनका जज्बा ही है, जो उन्हें फिर वहीं जाने के एि विवश कर रहा है।
इस बार तो यह यात्रा पूरी तरह से बरबाद हो गई है। रास्ते टूट गए हैं। यात्री किसी तरह से ऊपर पहुंच भी जाएं, तो मंदिर में दर्शन की सुविधा नहीं मिल रही है। इस पर्वतीय प्रदेश में जो लोग ऊपर तक पहुंचते हैं, वे स्थानीय लोग हैं। सरकार अभी तो उनके लिए ही सुविधाएं उपलब्ध नहीं कर पाई हैं, तो फिर यात्रियों के बारे में किस तरह से सोचा जाए। पर इस बार केदारनाथ में जो कुछ देखने को मिला, उसे इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी कहा जा सकता है। यह ऐसी त्रासदी रही, जिसमें अपने अपनी ही आंखों के सामने मौत से जूझ रहे थे, मौत की नींद सो रहे थे, पानी के तेज बहाव में बह रहे थे। उनकी चीख-चिल्लाहट के बाद भी कुछ लोग इतने अधिक बेबस थे कि चाहकर भी उनके लिए सहायता का हाथ नहीं उठा सकते थे। लोग चीखते रहे, चिल्लाते रहे, मरते रहे, पर मौत ने जो खेल खेला, वह यही बताता है कि प्रकृति से कभी छेड़छाड़ मत करो, जिस दिन प्रकृति अपना बदला लेना चाहेगी, तो फिर कोई कुछ नहीं कर पाएगा। सब कुछ बिखरकर रह जाएगा। जिंदगी हार जाएगी, मौत को अपना तमाशा दिखाने का अवसर मिल जाएगा। इस बार प्रकृति ने हमें केदारनाथ से यह संदेश भेजा है, अगली बार कहीं और से भेजेगी। यह हमें ही समझना है कि उसके संदेश को हम किस तरह से लेते हैं।
डॉ. महेश परिमल
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