सोमवार, 30 जनवरी 2017
कविताएँ - सविता मिश्रा
बेखबर लड़की... कविता का अंश...
बसंत की हवाओं में लिपटी चाँदनी में डूबी
लड़की की आँखों में
गमक रहे सपनों को
पढ़ रहा है
आकाश में टहलता चाँद
गौने के इंतजार में
आँगन में खिली चाँदनी में
बरतन माँजती लड़की
रह-रह कर मुस्कुरा उठती है
गुनगुनाती है गीत
हो उठती है बेसुध सी
और धुले बरतनों के साथ
समेट कर रख देती है
बिना धुले बरतन
माँ तरेर रही है आँखें
खिल रही है आँगन में चाँदनी
सपनों में डूबी लड़की
आँगन बुहार रही है
रात को सुबह समझ कर
चाँद हँस रहा है उस पर
माँ तरेर रही है आँखें
पर सबसे बेखबर लड़की
डूबी है सपनों में
हुलस रही है मन ही मन।
ऐसी ही अन्य भावपूर्ण कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - माँ तुम गंगाजल होती हो - जयकृष्ण राय तुषार
माँ तुम गंगाजल होती हो... कविता का अंश...
मेरी ही यादों में खोई
अक्सर तुम पागल होती हो
माँ तुम गंगा-जल होती हो!
जीवन भर दुःख के पहाड़ पर
तुम पीती आँसू के सागर
फिर भी महकाती फूलों-सा
मन का सूना संवत्सर
जब-जब हम लय गति से भटकें
तब-तब तुम मादल होती हो।
व्रत, उत्सव, मेले की गणना
कभी न तुम भूला करती हो
सम्बन्धों की डोर पकड कर
आजीवन झूला करती हो
तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से
ज्यादा निर्मल होती हो।
पल-पल जगती-सी आँखों में
मेरी ख़ातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को
मंदिर में घंटियाँ बजाती
जब-जब ये आँखें धुंधलाती
तब-तब तुम काजल होती हो।
हम तो नहीं भगीरथ जैसे
कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो ख़ुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें
तुझ पर फूल चढ़ाएँ कैसे
तुम तो स्वयं कमल होती हो।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविताएँ - जयकृष्ण राय तुषार
कविता का अंश...
चेहरा तुम्हारा
साँझ चूल्हे के धुएँ में
लग रहा चेहरा तुम्हारा
ज्यों घिरा
हो बादलों में
एक टुकड़ा चाँद प्यारा!
रोटियों के
शिल्प में है हीर-राँझा की कहानी
शाम हो या दोपहर हो
हँसी, पीढा
और पानी
याद रहता है तुम्हें सब
कब कहाँ, किसने पुकारा!
एक भौंरा
फूल पर बैठा हुआ तुमको निहारे
और नन्हा दुधमुँहा
उलझी तुम्हारी
लट सँवारे
दिन गुलाबी
और रंगोली
बनाने का इशारा!
मस्जिदों में
हो अजानें, मंदिरों में आरती हो
एक घी का दिया चौरे पर
तुम्हीं तो
बारती हो
जाग उठता
देख तुमको
झील का सोया किनारा!
ऐसी ही अन्य भावपूर्ण कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
शुक्रवार, 27 जनवरी 2017
कविता - वीर की तरह - श्रीकृष्ण सरल
वीर की तरह.... कविता का अंश...
जियो या मरो, वीर की तरह।
चलो सुरभित समीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।
वीरता जीवन का भूषण,
वीर भोग्या है वसुंधरा।
भीरुता जीवन का दूषण,
भीरु जीवित भी मरा-मरा।
वीर बन उठो सदा ऊँचे,
न नीचे बहो नीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।
भीरु संकट में रो पड़ते,
वीर हँस कर झेला करते।
वीर जन हैं विपत्तियों की,
सदा ही अवहेलना करते।
उठो तुम भी हर संकट में,
वीर की तरह धीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।
वीर होते गंभीर सदा,
वीर बलिदानी होते हैं।
वीर होते हैं स्वच्छ हृदय,
कलुष औरों का धोते हैं।
लक्ष-प्रति उन्मुख रहो सदा,
धनुष पर चढ़े तीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।
वीर वाचाल नहीं होते,
वीर करके दिखलाते हैं।
वीर होते न शाब्दिक हैं,
भाव को वे अपनाते हैं।
शब्द में निहित भाव समझो,
रटो मत उसे कीर की तरह।
जियो या मरो वीर की तरह।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए....
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - तुम लौट आना - रचना श्रीवास्तव
कविता का अंश...
तुम लौट आना...
क्षितिज के पार हो ठिकाना,
न आने का हो,
खूबसूरत बहाना,
फिर भी तुम लौट आना।
सूरज की पीली किरण सा,
मेरे घर में आना।
मुझको हौले से
सहला के,
कुछ देर
सिरहाने बैठे रह जाना।
तुम लौट आना।
सीप सँजोती है
स्वाति नक्षत्र की बूँद,
रात करती है रखवाली
नींद की,
तृण सँजोता है
शबनम के कतरे को,
हारिल संभालता है
लकड़ी,
ख़ुद को तुम
यों ही सँभालना।
तुम लौट आना।
कृष्ण रह सके न मुरली बिना,
दीप जले न बिन बाती,
बीज कुछ नही माटी बिना,
संदेश बिना
ज्यों पाती।
कृष्ण का मुरली से,
दीप का ज्योति से,
अटूट नाता है।
बीज माटी बिना,
कब पनप पता है ?
पत्र निरर्थक संदेश बिना,
कोरा काग़ज़ बन जाता है।
कुछ इन जैसा,
रिश्ता निभाना।
तुम लौट आना ।
ज्यों आती है
भोर संग भावुकता,
स्पर्श से झंकार,
उसी तरह तुम आना।
तुम लौट आना ।
लाती है हवा ख़ुशबू,
चिड़िया चोंच में तिनका जैसे,
चाँद थामे
रश्मि का हाथ,
तलैया में लाता है जैसे,
मेरे लिए स्वयं को लाना ।
तुम लौट आना।
गोधूलि बेला में,
लौटते है सब अपने ठौर।
पंछी घोसले का रुख करते हैं,
सूरज भी
नींद को जाता है।
थका हरा इनसान,
रैन बसेरे में आता है।
मेरे प्यार की पनाहों में,
तुम चले आना।
तुम लौट आना।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए....
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - इस ठंड में - रचना श्रीवास्तव
कविता का अंश...
न पूछो
इस ठंड में,
हम क्या-क्या किया करते थे,
कड़े मीठे अमरूद ,
हम ठेले से छटा करते थे ।
सूरज जब कोहरा ओढ़ सोता था,
हम सहेलियों संग,
पिकनिक मनाया करते थे ।
छत पे लेट,
गुनगुनी धूप लपेट,
नमक संग मूँगफली खाया करते थे ।
धूप से रहती थी कुछ यों यारी,
के जाती थी धूप जिधर,
उधर ही चटाई खिसकाया करते थे ।
ठंडी रज़ाई का गरम कोना,
ले ले बहन तो
बस झगड़ा किया करते थे।
ऐसे में माँ कह दे कोई काम, तो
बस मुँह बनाया करते थे।
गरम कुरकुरे से बैठे हों सब,
ऐसे में दरवाज़े की दस्तक,
कौन खोले उठ के,
एक दुसरे का मुँह देखा करते थे।
लद के कपड़ों से,
जब घर से निकला करते थे,
मुँह से बनते थे भाप के छल्ले,
सिगरेट पीने का भी अभिनय
किया करते थे।
जल जाए अंगीठी कभी, तो
घर के सारे काम
मनो ठप पड़ जाते थे।
सभी उसके आस पास जमा हो,
गप लड़ाया करते थे।
अपनी ओर की आँच
बढ़े कैसे, ये जतन किया करते थे।
न पूछो,
इस कड़ाके की ठंड में,
हम क्या-क्या किया करते थे।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - सूनी साँझ - शिवमंगल सिंह सुमन
कविता का अंश...
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।
पेड़ खड़े फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूली! साथ नहीं हो तुम
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।
कुलबुल कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह चहचह मीड़-मीड़ में
धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।
जागी-जागी सोई-सोई
पास पड़ी है खोई-खोई
निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।
ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमड़ी धारा, जैसी मुझ पर
बीती झेली, साथ नहीं हो तुम
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।
यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली आँखमिचौनी
खुलकर खेली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - चलना हमारा काम है - शिवमंगल सिंह सुमन
कविता का अंश...
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूँ दर दर खड़ा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पड़ा
जब तक न मंज़िल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है, चलना हमारा काम है।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गईं
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ, राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरुद्ध, इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पड़ा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पड़ा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोड़ा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।
साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रुकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम, उसीकी सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।
फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूँदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिश्रित गरल, वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
गुरुवार, 26 जनवरी 2017
कविता - कब लोगे अवतार हमारी धरती पर - रोहित कुमार 'हैप्पी'
कविता का अंश...
फैला है अंधकार हमारी धरती पर
हर जन है लाचार हमारी धरती पर
हे देव! धरा है पूछ रही...
कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
तुम तो कहते थे धर्म की हानि होगी जब-जब
हर लोगे तुम पाप धरा के आओगे तुम तब-तब
जरा सुनों कि त्राहि-त्राहि चारों ओर से होती है
कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
सीता झेल रही संताप
रोके रुके नहीं है पाप
हानि धर्म की होती है
कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
द्रोपदी कलयुग में लाचार
तुम्हें क्यों सुनती नहीं पुकार
दुर्योधन मुँह बिचकाता है
कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
दुर्योधन लाख सिरों वाला
टलता नहीं टले टाला
दुर्योधन हमें चिढ़ाता है
कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
यहाँ रावण राज लगा चलने
मिलकर विभीषण-रावण से
श्रीराम को रोज सताता है
कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
अब आ जाओ हरि जल्दी से
प्रभु देर ना करना गलती से
जग आँख लगाए बैठा है
कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
यहां रंग नहीं हैं होली के
नित खून बहे है गोली से
मन व्याकुल तुम्हें ध्याता है
कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - एक भी आँसू न कर बेकार - रामावतार त्यागी
कविता का अंश...
एक भी आँसू न कर बेकार -
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाए!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ-
पर समस्याएं कभी रूठी नहीं हैं,
हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाए!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पाँव ही आते सफर में,
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा-
जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नज़र में,
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार-
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - गणतंत्र भारत
कविता का अंश....
हम गणतंत्र भारत के निवासी, करते अपनी मनमानी।
दुनिया की कोई फिक्र नहीं, संविधान है करता पहरेदारी।।
है इतिहास इसका बहुत पुराना, संघर्षों का था वो जमाना;
न थी कुछ करने की आजादी, चारों तरफ हो रही थी बस देश की बर्बादी,
एक तरफ विदेशी हमलों की मार,
दूसरी तरफ दे रहे थे कुछ अपने ही अपनो को घात,
पर आजादी के परवानों ने हार नहीं मानी थी,
विदेशियों से देश को आजाद कराने की जिद्द ठानी थी,
एक के एक बाद किये विदेशी शासकों पर घात,
छोड़ दी अपनी जान की परवाह, बस आजाद होने की थी आखिरी आस।
1857 की क्रान्ति आजादी के संघर्ष की पहली कहानी थी,
जो मेरठ, कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली और अवध में लगी चिंगारी थी,
जिसकी नायिका झांसी की रानी आजादी की दिवानी थी,
देश भक्ति के रंग में रंगी वो एक मस्तानी थी,
जिसने देश हित के लिये स्वंय को बलिदान करने की ठानी थी,
उसके साहस और संगठन के नेतृत्व ने अंग्रेजों की नींद उड़ायी थी,
हरा दिया उसे षडयंत्र रचकर, कूटनीति का भंयकर जाल बुनकर,
मर गयी वो पर मरकर भी अमर हो गयी,
अपने बलिदान के बाद भी अंग्रेजों में खौफ छोड़ गयी,
उसकी शहादत ने हजारों देशवासियों को नींद से उठाया था,
अंग्रेजी शासन के खिलाफ एक नयी सेना के निर्माण को बढ़ाया था,
फिर तो शुरु हो गया अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष का सिलसिला,
एक के बाद एक बनता गया वीरों का काफिला,
वो वीर मौत के खौफ से न भय खाते थे,
अंग्रेजों को सीधे मैदान में धूल चटाते थे,
ईट का जवाब पत्थर से देना उनको आता था,
अंग्रेजों के बुने हुये जाल में उन्हीं को फसाना बखूबी आता था,
खोल दिया अंग्रेजों से संघर्ष का दो तरफा मोर्चा,
1885 में कर डाली कांग्रेस की स्थापना,
लाला लाजपत राय, तिलक और विपिन चन्द्र पाल,
घोष, बोस जैसे अध्यक्षों ने की जिसकी अध्यक्षता,
इन देशभक्तों ने अपनी चतुराई से अंग्रेजों को राजनीति में उलझाया था,
उन्हीं के दाव-पेचों से अपनी माँगों को मनवाया था,
सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग को गाँधी ने अपनाया था,
कांग्रेस के माध्यम से ही उन्होंने जन समर्थन जुटाया था,
दूसरी तरफ क्रान्तिकारियों ने भी अपना मोर्चा लगाया था,
बिस्मिल, अशफाक, आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु जैसे,
क्रान्तिकारियों से देशवासियों का परिचय कराया था,
अपना सर्वस्व इन्होंने देश पर लुटाया था,
तब जाकर 1947 में हमने आजादी को पाया था,
एक बहुत बड़ी कीमत चुकायी है हमने इस आजादी की खातिर,
न जाने कितने वीरों ने जान गवाई थी देश प्रेम की खातिर,
निभा गये वो अपना फर्ज देकर अपनी जाने,
निभाये हम भी अपना फर्ज आओ आजादी को पहचाने,
देश प्रेम में डूबे वो, न हिन्दू, न मुस्लिम थे,
वो भारत के वासी भारत माँ के बेटे थे,
उन्हीं की तरह देश की शरहद पर हरेक सैनिक अपना फर्ज निभाता है,
कर्तव्य के रास्ते पर खुद को शहीद कर जाता है,
आओ हम भी देश के सभ्य नागरिक बने,
हिन्दू, मुस्लिम, सब छोड़कर, मिलजुलकर आगे बढ़े,
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - देखो 26 जनवरी आयी
कविता का अंश...
देखो 26 जनवरी है आयी, गणतंत्र की सौगात है लायी।
अधिकार दिये हैं इसने अनमोल, जीवन में बढ़ सके बिन अवरोध।
हर साल 26 जनवरी को होता है वार्षिक आयोजन,
लाला किले पर होता है जब प्रधानमंत्री का भाषन,
नयी उम्मीद और नये पैगाम से, करते है देश का अभिभादन,
अमर जवान ज्योति, इंडिया गेट पर अर्पित करते श्रद्धा सुमन,
2 मिनट के मौन धारण से होता शहीदों को शत-शत नमन।
सौगातो की सौगात है, गणतंत्र हमारा महान है,
आकार में विशाल है, हर सवाल का जवाब है,
संविधान इसका संचालक है, हम सब का वो पालक है,
लोकतंत्र जिसकी पहचान है, हम सबकी ये शान है,
गणतंत्र हमारा महान है, गणतंत्र हमारा महान है।
इस कविता का आनंद ऑडियो के माध्यम से लीजिए....
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
बुधवार, 25 जनवरी 2017
कहानी - संबंधों की डोर - भारती परिमल
कहानी का अंश....
मैं जानती हूँ कि आज के समाज में बनते-बिगड़ते प्रेम संबंधों के बीच ये पुरानी प्रेम कहानी कोई अर्थ नहीं रखती लेकिन देखा जाए तो ये घटना प्रेम की उस गहराई से जुड़ी हुई है, जो हमें ईश्वर के करीब ले जाती है। इस गहराई को केवल महसूस किया जा सकता है। एक ऐसी अनहोनी जिसका घटना तय था इसलिए वह घट ही गई।
उन दोनों की पहचान केवल इतनी ही थी कि वे दोनों एक मंदिर के आँगन में एक-दूसरे से टकरा गए थे। अपनी-अपनी धुन में चलते-चलते एक-दूसरे से टकराए, भला-बुरा कहा और अपने-अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए। जाते हुए एक बार फिर एक-दूसरे को पलटकर देखा और एक प्रश्न लड़की के दिमाग में एकाएक उठ खड़ा हुआ। लड़की ने पलटकर देखते उस लड़के को रोकते हुए उसके नजदीक जाकर मुस्कराते हुए पूछा - क्या तुम सपेरे हो? और जवाब में लड़के ने भी उसी अंदाज में मुस्कराते हुए जवाब दिया - हाँ, मैं सपेरा हूँ। क्या तुम मेरी नागिन बनोगी? थोड़े-से वाद-विवाद के बाद यही दो-टूक बातचीत। बस यही थी उन दोनों की बचपन की पहचान और मुलाकात। परंतु ये मुलाकात दिमाग में अपना एक आकार दृढ़ करती जा रही थी। उम्र के एक के बाद एक पड़ाव गुजरते गए और वह यौवन की दहलीज पर आ खड़ी हुई। उमंग और उल्लास की नदी लहरा रही थी। अल्हड़पन और समझदारी का संगम उसके चेहरे पर झलक रहा था।
यह पहली बार था कि घरवालों की सहमति से ट्रेन का सफर वह अकेले ही तय कर रही थी। अपने विचारों में खोई हुई, ट्रेन की खिड़की से प्रकृति की सुंदरता निहार रही थी। तभी एक स्टेशन आया और उसके कम्पाउन्ड में आठ-दस युवकों की एक टोली चढ़ी। पहले से खाली पड़ी हुई बर्थ पर अपने-अपने रिजर्वेशन के अनुसार वे लोग अधिकारपूर्वक बैठ गए। केवल बैठे ही रहते तो उनकी तरफ कदाचित ध्यान जाता भी नहीं लेकिन वे लोग तो हँसी-मजाक, मस्ती, उछल-कूद करने लगे। उसने देखा कि उन आठ-दस युवकों में से एक युवक जो मानों उन सभी का लीडर हो, उस तरह से बातें कर रहा था और बाकी के सभी लोग उसकी बात रूचिपूर्वक सुन रहे थे। वह युवक बातचीत करते हुए अपने हाथ की उँगलियों को हिला-हिलाकर बात कहता था। यह देखकर वो एक ही पल में 8-9 वर्ष पीछे अतीत में पहुँच गई। उसे याद आया, बचपन का वह लड़का जो मंदिर के आँगन में उसके साथ इसी तरह से हाथ हिलाते हुए बात कर रहा था। उस वाद-विवाद के समय उसकी लहराते हाथों की एक उँगली में उसने साँप के आकार की अँगूठी देखी थी और यह देखकर ही उसने दुबारा उसे आवाज देकर रोका था और पूछा था कि क्या तुम सपेरे हो?
आज एकाएक ये घटना इस युवक को देखते ही उसकी आँखों के सामने आ गई। वह एकटक उसे देखती ही रही। युवक ने जब उसे देखा तो वह भी एक क्षण को तो चौंक गया और स्वाभाविक रूप से पूछ बैठा - आप क्या देख रही हैं? वह अब भी भरपूर निगाहों से उसके हाथ की उँगलियों को देखे जा रही थी। अतीत में डूबी वो उसके प्रश्न को अनसुना करते हुए पूछ बैठी - क्या तुम सपेरे हो?
अब यहाँ घट गई वो अनहोनी, जिसे जानने के लिए आप सभी व्याकुल हो रहे हैं। हाँ, उस युवक ने अगले ही क्षण उससे कहा - हाँ, मैं सपेरा हूँ। क्या तुम मेरी नागिन बनोगी? और फिर तो बचपन के बिछड़े ये दोनों साथी एक-दूसरे से मिलकर आनंदविभोर हो गए। ये चार-पाँच घंटे का सफर उनके जीवन का एक यादगार सफर बनने जा रहा था। दोनों ने दिल खोलकर एक-दूसरे से बातचीत की। बचपन के बिछड़े वे दोनों मानों जन्मों के बिछड़े हों, इसतरह एक-दूसरे से घुल-मिल गए। दोनों ने एक-दूसरे को इन 9 सालों में वियोग के हर पल में याद रखा था। ये बात उनकी आँखें कह रहीं थीं। दूसरी हकीकत थी - उस युवक के हाथ की उँगलियों में सबसे छोटी उँगली पर पहनी गई वो साँप के आकार वाली अँगूठी, जो बचपन में बड़ी उँगली में पहनी हुई थी लेकिन इस वक्त सबसे छोटी उँगली में एकदम कसी हुई होने के बाद भी पहनी हुई थी। इतने सालों बाद भी युवक ने अँगूठी को अपने से अलग नहीं किया था।
जैसे-जैसे अलग होने का समय नजदीक आ रहा था, दोनों के चेहरे पर उदासी अपना असर दिखाने लगी थी। अचानक युवक ने एक ऐसी बात कह दी जिसे सुनकर युवती की आँखों से आँसू बहने लगे। युवक ने कहा - मैं चाहूँ तो भी तुम्हें अपनी नागिन नहीं बना सकता। मुझे ब्लड कैंसर है। पिछले तीन सालों से मैं इस रोग से पीडित हूँ। अब मेरे पास केवल दो-तीन महीने का ही समय शेष है। इसलिए मैं चाहकर भी तुम्हें अपना नहीं सकता। युवती को युवक की इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। वह तो उसे अवाक होकर देखती ही रही। युवक के दोस्तों ने इस बात की पुष्टि की लेकिन उसे तो सच्चाई स्वीकार ही नहीं हो रही थी। एकाएक युवक ने हल्के-से उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए कहा - कोई बात नहीं। इन दो-तीन महीनों के लिए हम अच्छे दोस्त तो बन ही सकते हैं। क्या तुम मुझसे दोस्ती करोगी? मुझे पत्र लिखोगी? दोनों ने एक-दूसरे को एड्रेस का आदान-प्रदान किया और विदा ली।
आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
बाल कहानी – छम-छम करती आईं परियाँ
कहानी का अंश… अरुण अपने घर में सबसे छोटा था। कोई भी उसकी परवाह न करता था। माँ के अलावा कोई उसे नहीं चाहता था। उसके पिता और भाई उसे निरा मूर्ख और आलसी समझते थे। हर कोइ्र उससे अपना काम करवा लेता और फिर भगा देता। अरुण इन बातों का बुरा नहीं मानता था और उनकी बातों को हँस कर टाल देता था। वह उपेक्षित था फिर भी खुश रहता था। उसकी माँ उसे प्यार से खाना बनाकर देती और फिर खेतों की रखवाली के लिए खेत पर भेज देती। अरुण खेतों में जाकर बहुत खुश रहता। वहाँ सुनहरे खेतों में उसे अपनी मेहनत फलती-फूलती नजर आती। हरे-भरे पेड़ों पर चहचहाती चिडिया उसे बहुत अच्छी लगती थी। वह भी उनकी तरह ही इधर-उधर फुदकता फिरता। अपने खेतों में मन लगाकर काम करता। यहाँ आकर वह अपने सारे दुख भूल जाता था। उसे बाँसुरी बजाना बहुत अच्छा लगता था। साथ ही वह खाली समय में अपनी कल्पना में छाए चित्रों को कागज पर उतारता। जब कभी मन उदास होता तो रंगबिरंगे फूलों के बीच बैठकर बाँसुरी की मधुर तान छेड़ देता। उसे सुनकर आसपास के काम करने वालों के साथ-साथ पेड़-पौधे भी झूमने लगते थे। ऐसा प्यारा समां बँधता जिसमें वह अपने आपको भी भूल जाता था। मोहक वातावरण में अरुण सोचने लगता कि दुनिया कितनी सुंदर है। पता नहीं लोग क्यों आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं? बचपन में अरुण ने अपने दादा-दादी से राजा-रानियों और परियों की कहानियाँ सुनी थी। अरुण सोचता कि वह कहानी अगर कहानी न होकर सचमुच ही होती तो कितना अच्छा होता, दुनिया की सारी कड़वाहट ही खत्म हो जाती। एक दिन अरुण कुछ ज्यादा ही उदास था। वह बिना किसी को बताए शाम को खेत पर आकर चुपचाप अपना काम करने लगा। शाम घिर आई पर वह काम करता ही रहा। पास में ही एक छोटा तालाब था। वहीं घने पेड़ के नीचे अधलेटा होकर उसने बाँसुरी की मधुर तान छेड़ दी। थोड़ी देर बाद ही उसे लगा कि जैसे पायलों की आवाज आ रही है। उसने हैरानी के साथ इधर-उधर देखा लेकिन कुछ दिखाई नहीं दिया। रुनझुन की आवाज धीरे-धीरे तेज हो रही थी। वह बेचैन हो उठा। लगा कि जरूर कोई बात है। लेकिन क्षणभर बाद ही उसने देखा कि नन्हीं-नन्हीं परियाँ रंगबिरंगे कपड़े पहनकर एक-दूसरे के हाथेां में हाथ डाले नाच रही हैं और वे गुनगुना भी रही हैं। अरुण यह देखकर पुलकित हो उठा। उसने ऐसा सुंदर दृश्य पहले कभी नहीं देखा था। आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
मंगलवार, 24 जनवरी 2017
मुहावरों की कविता.... - राम गोपाल राही
कविता का अंश...
कोतवाल को डाँटे चोर, उल्टे बाँस बरेली ओर। तिनका चोर की दाढ़ी में, बगलें झाँक रहे किस ओर। अक्ल बड़ी या भेंस बड़ी, छोटा मुँह और बात बड़ी। नहीं झूठ के होते पाँव, दुनिया देखे खड़ी-खड़ी।
अंधेर नगरी चोपट राजा, अंधे में हो काना राजा। नाच न जाने आँगन टेढ़ा, अपनी ढपली अपना बाजा। नाम बड़े और दर्शन छोटे, छोटे भी हो जाते मोटे। पांचों उंगली घी में होती, मिट जाते है सारे टोटे। अधजल गगरी छलकत जाय, अंधी पीसे कुत्ता खाय। काला अक्षर भेंस बराबर, बात समझ में कैसे आए। हो गया सारा मिटिया मेट, जल गयी रस्सी गई न ऐंठ। नौ दिन चले अढ़ाई कोस, वही हेकड़ी गयी न ऐंठ। ज्ञानी-ध्यानी बात बतावे, तीर नहीं, तुक्का चल जावे। मुँह की माँगी मौत न मिलती, पास कुँए के प्यासा आवे। कहते सब ही लोग सुजान, दीवारों के भी होते कान। अपनी करनी पार उतरनी, बात न समझे वो नादान। इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए....
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
शुक्रवार, 6 जनवरी 2017
कहानी -सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र
कहानी का अंश...
चन्द्र टरे सूरज टरे, टरे जगत व्यवहार |
पै दृढ़व्रत हरिश्चन्द्र को, टरे न सत्य विचार ||
सत्य की चर्चा जब भी कही जाएगी, महाराजा हरिश्चन्द्र का नाम जरुर लिया जायेगा. हरिश्चन्द्र इकक्षवाकू वंश के प्रसिद्ध राजा थे. कहा जाता है कि सपने में भी वे जो बात कह देते थे उसका पालन निश्चित रूप से करते थे | इनके राज्य में सर्वत्र सुख और शांति थी.
इनकी पत्नी का नाम तारामती तथा पुत्र का नाम रोहिताश्व था. तारामती को कुछ लोग शैव्या भी कहते थे. महाराजा हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता और त्याग की सर्वत्र चर्चा थी. महर्षि विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र के सत्य की परीक्षा लेने का निश्चय किया.
रात्रि में महाराजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न देखा कि कोई तेजस्वी ब्राहमण राजभवन में आया है. उन्हें बड़े आदर से बैठाया गया तथा उनका यथेष्ट आदर – सत्कार किया गया. महाराजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में ही इस ब्राह्मण को अपना राज्य दान में दे दिया.
जगने पर महाराज इस स्वप्न को भूल गये. दुसरे दिन महर्षि विश्वामित्र इनके दरबार में आये. उन्होंने महाराज को स्वप्न में दिए गये दान की याद दिलाई. ध्यान करने पर महाराज को स्वप्न की सारी बातें याद आ गयी और उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया.
ध्यान देने पर उन्होंने पहचान कि स्वप्न में जिस ब्राह्मण को उन्होंने राज्य दान किया था वे महर्षि विश्वामित्र ही थे. विश्वामित्र ने राजा से दक्षिणा माँगी क्योंकि यह धार्मिक परम्परा है की दान के बाद दक्षिणा दी जाती है. राजा ने मंत्री से दक्षिणा देने हेतु राजकोष से मुद्रा लाने को कहा. विश्वामित्र बिगड़ गये.
उन्होंने कहा- जब सारा राज्य तुमने दान में दे दिया है तब राजकोष तुम्हारा कैसे रहा ? यह तो हमारा हो गया. उसमे से दक्षिणा देने का अधिकार तुम्हे कहाँ रहा ?
महाराजा हरिश्चन्द्र सोचने लगे. विश्वामित्र की बात में सच्चाई थी किन्तु उन्हें दक्षिणा देना भी आवश्यक था. वे यह सोच ही रहे थे कि विश्वामित्र बोल पड़े- तुम हमारा समय व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो. तुम्हे यदि दक्षिणा नहीं देनी है तो साफ – साफ कह दो, मैं दक्षिणा नहीं दे सकता. दान देकर दक्षिणा देने में आनाकानी करते हो. मैं तुम्हे शाप दे दूंगा आगे क्या हुआ यह जानने के लिए इस अधूरी कहानी का पूरा आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कहानी - हवेली - आशीष त्रिवेदी
हवेली... कहानी का अंश...
वृंदा जिस समय हवेली पहुँची वह दिन और रात के मिलन का काल था. उजाले और अंधेरे ने मिलकर हर एक वस्तु को धुंधलके की चादर से ढंक कर रहस्यमय बना दिया था. हवेली झीनी चुनर ओढ़े किसी रमणी सी लग रही थी. जिसका घूंघट उसके दर्शन की अभिलाषा को और बढ़ा देता है. वृंदा भी हवेली को देखने के लिए उतावली हो गई.
इस हवेली की एकमात्र वारिस थी वह. इस हवेली की मालकिन उसकी दादी वर्षों तक उसके पिता से नाराज़ रहीं. उन्होंने उनकी इच्छा के विरूद्ध एक विदेशी लड़की से ब्याह कर लिया था. लेकिन अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब एकाकीपन भारी पड़ने लगा तो उसके पिता आकर उन्हें अपने साथ ले गए. वृंदा का कोई भाई बहन नही था. अपने में खोई सी रहने वाली उस लड़की के मित्र भी नही थे. दो एकाकी लोग एक दूजे के अच्छे मित्र बन गए. दादी और पोती में अच्छी बनती थी. दादी किस्से सुनाने में माहिर थीं. उनका खास अंदाज़ था. वह हर किस्से को बहुत रहस्यमय तरीके से सुनाती थीं. उनके अधिकांश किस्सों में इस हवेली का ज़िक्र अवश्य होता था. यही कारण था कि यह हवेली उसके लिए किसी तिलस्मी संदूक की तरह थी. जिसके भीतर क्या है जानने की उत्सुक्ता तीव्र होती है.
दादी की मृत्यु के बाद हवेली उसके पिता को मिल गई. उसने कई बार अपने पिता से इच्छा जताई थी कि वह इस हवेली को देखना चाहती है. किंतु पहले उनकी व्यस्तता और बाद में बीमारी के कारण ऐसा नही हो पाया. दो साल पहले उनकी मृत्यु के बाद वह इस हवेली की वारिस बन गई. उस समय उसका कैरियर एक लेखिका के तौर पर स्थापित हो रहा था. उसकी लिखी पुस्तक लोगों ने बहुत पसंद की थी. उसके लेखन का क्षेत्र रहस्य और रोमांच था. वह इस हवेली के बारे में लिखना चाहती थी. इसीलिए यहाँ आई थी.
अंधेरा गहरा हो गया था. हवेली और भी रहस्यमयी बन गई थी. उसका कौतुहल और बढ़ गया था. यहाँ एक अलग सी नीरवता थी. वैसे भी जिस परिवेश में वह पली थी उससे नितांत अलग था यह माहौल. आधुनिकता से दूर. जैसे वह किसी और काल में आ गई हो. वह जल्द से जल्द पूरी हवेली देखना चाहती थी. लेकिन हवेली बहुत बड़ी थी. लंबी यात्रा ने शरीर को थका दिया था. यह थकावट अब कौतुहल पर भारी पड़ रही थी. परिचारिका उसे पहली मंज़िल पर उसके कमरे में ले गई. खिड़की से उसने बाहर देखा. दूर दूर तक सब अंधेरे में ढंका था. एक अजीब सी सिहरन पैदा कर रहा था.
वह आकर लेट गई. कुछ ही देर में नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया.
आवरण रहस्य को जन्म देता है. रहस्य आकर्षण को. बंद दरवाज़ों के पीछे के रहस्य को हर कोई जानना चाहता है. किंतु आवरण के हटते ही या दरवाज़े के खुलते ही आकर्षण समाप्त हो जाता है.
सुबह जब वृंदा जगी तो सारा कमरा प्रकाश से भरा था. उसने खिड़की से बाहर देखा. सब स्पष्ट दिखाई दे रहा था. बाहर आकर उसने हवेली पर नज़र डाली. रौशनी में नहाई हवेली एकदम अलग लग रही थी. रहस्य से परे कुछ कुछ जानी पहचानी सी.
इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
गुरुवार, 5 जनवरी 2017
नीति कथा –2 – चतुर कौआ
कहानी का अंश…. बड़ी तेज गरमी पड़ रही थी। कुछ समय से वर्षा नहीं हुई थी। इसलिए सारे ताल-तलैया सूख गए थे। पशु-पक्षी प्यासे मरने लगे। बेचारा कौआ पानी की तलाश में इधर-उधर मारा-मारा उड़ रहा था। लेकिन उसे कहीं पानी नहीं मिला। आखिरकार वह शहर की ओर उड़ा। उसे एक बाग में एक पेड़ के नीचे एक घड़ा दिखाई दिया। उसने अपने आपको बड़ा भाग्यशाली समझा और तुरंत घड़े के पास नीचे उतर गया। लेकिन उसका भाग्य बड़ा ओछा था। घड़े में पानी बहुत कम था। उसने पानी तक पहुँचने की हर प्रकार से जी-तोड़ मेहनत की, लेकिन वह पानी न पी सका। दुखी होकर वह इधर-उधर देखने लगा। अचानक उसकी निगाह पास में पड़े कंकड़ों पर पड़ी। उन्हें देखते ही उसे अचानक एक तरकीब सूझी। वह अपनी चोंच में दबाकर एक बार में एक कंकड़ लाता और उसे घड़े में डाल देता। घड़े में कंकड़ पड़ जाने के कारण पानी की सतह धीरे-धीरे उपर उठने लगी। इस प्रकार पानी घड़े के मुँह तक आ गया और कौए ने उसे पीकर अपनी प्यास बुझाई। कहा भी गया है – आवश्यकता आविष्कार की जननी है।
इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
नीति कथा –1- कुत्ता और हड्डी
कहानी का अंश…. एक दिन एक कुत्ते को रसदार हड्डी का एक टुकड़ा मिला। मुँह में दबाकर वह एकदम भाग निकला। उसने इधर-उधर देखा कि कहीं कोई दूसरा कुत्ता तो नहीं है, जो उसकी हड्डी को उससे झपट लेगा। जब उसे यकीन हो गया कि आसपास कोई दूसरा कुत्ता नहीं है, तो वह आगे बढ़ा। उसने उस हड्डी को किसी बाग में जाकर शांति से बैठकर खाने का विचार बनाया। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। उसे वह नदी पार करनी थी। जैसे ही नदी पार करने के लिए वह पुल पर चढ़ा कि उसे पानी में अपनी परछाई दिखाई दी। उसने अपनी परछाई को दूसरा कुत्ता समझ लिया। वह उसे करीब से देखने के लिए रूका। उसने देखा कि जो कुत्ता पानी में है, उसके मुँह में भी हड्डी का एक टुकड़ा है। उसके मन में लालच आ गया और वह उस टुकड़े को पाने के लिए बेचैन हो उठा। उसने सोचा कि अगर वह जोर-जोर से भौंकेगा, तो दूसरा कुत्ता डरकर हड्डी छोड़कर भाग जाएगा। बस इसी विचार से उसने जैसे ही भौंकने के लिए मुँह खोला कि उसकी अपनी हड्डी का टुकड़ा भी पानी में गिर गया। किसी ने सच ही कहा है – लालच बुरी बला है।
इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - कुकुरमुत्ता - भाग - 2 - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
कविता का अंश...
बाग के बाहर पड़े थे झोपड़े
दूर से जो देख रहे थे अधगड़े।
जगह गन्दी, रूका, सड़ता हुआ पानी
मोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी-
बिलबिलाते कीड़े, बिखरी हड्डियां
सेलरों की, परों की थी गड्डियां
कहीं मुर्गी, कही अण्डे,
धूप खाते हुए कण्डे।
हवा बदबू से मिली
हर तरह की बासीली पड़ी गयी।
रहते थे नव्वाब के खादिम
अफ़्रिका के आदमी आदिम-
खानसामां, बावर्ची और चोबदार;
सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार,
तामजानवाले कुछ देशी कहार,
नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार,
फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवान
एक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान।
एक ही रस्सी से किस्मत की बंधा
काटता था जिन्दगी गिरता-सधा।
बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवान
रह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबान
पेट के मारे वहां पर आ बसे
साथ उनके रहे, रोये और हंसे।
एक मालिन
बीबी मोना माली की थी बंगालिन;
लड़की उसकी, नाम गोली
वह नव्वाबजादी की थी हमजोली।
नाम था नव्वाबजादी का बहार
नजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार।
सारंगी जैसी चढ़ी
पोएट्री में बोलती थी
प्रोज में बिल्कुल अड़ी।
गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्ट
पोयट्री की स्पेशलिस्ट।
बातों जैसे मजती थी
सारंगी वह बजती थी।
सुनकर राग, सरगम तान
खिलती थी बहार की जान।
गोली की मां सोचती थी-
गुर मिला,
बिना पकड़े खिचे कान
देखादेखी बोली में
मां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने।
इसलिए बहार वहां बारहोमास
डटी रही गोली की मां के
कभी गोली के पास।
सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थी
खुशामद से तनतनाई आती थी।
गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ी
स्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी।
पर कहेंगे-
‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थीं
अपनी-अपनी कहती थी।
दोनों के दिल मिले थे
तारे खुले-खिले थे।
हाथ पकड़े घूमती थीं
खिलखिलाती झूमती थीं।
इक पर इक करती थीं चोट
हंसकर होतीं लोटपोट।
सात का दोनों का सिन
खुशी से कटते थे दिन।
महल में भी गोली जाया करती थी
जैसे यहां बहार आया करती थी।
एक दिन हंसकर बहार यह बोली-
“चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।”
दोनों चली, जैसे धूप, और छांह
गोली के गले पड़ी बहार की बांह।
साथ टेरियर और एक नौकरानी।
सामने कुछ औरतें भरती थीं पानी
सिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द को
बाबू ने देखा हो उठती गर्दन को।
निकल जाने पर बहार के, बोली
पहली दूसरी से, “देखो, वह गोली
मोना बंगाली की लड़की ।
भैंस भड़्की,
ऎसी उसकी मां की सूरत
मगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत।
रोज जाती है महल को, जगे भाग
आखं का जब उतरा पानी, लगे आग,
रोज ढोया आ रहा है माल-असबाब
बन रहे हैं गहने-जेवर
पकता है कलिया-कबाब।”
झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़े
चली ठनकाती कड़े।
बाग में आयी बहार
चम्पे की लम्बी कतार
देखती बढ़्ती गयी
फ़ूल पर अड़ती गयी।
मौलसिरी की छांह में
कुछ देर बैठ बेन्च पर
फ़िर निगाह डाली एक रेन्ज पर
देखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियां
डालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां।
भौरें गूंजते, हुए मतवाले-से
उड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से।
फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओर
देखती रही कि कितनी दूर तक छोर
देखा, उठ रही थी धूप-
पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप।
पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़े
ताज पहने, है खड़े।
आया माली, हाथ गुलदस्ते लिये
गुलबहार को दिये।
गोली को इक गुलदस्ता
सूंघकर हंसकर बहार ने दिया।
जरा बैठकर उठी, तिरछी गली
होती कुन्ज को चली!
देखी फ़ारांसीसी लिली
और गुलबकावली।
फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ा
तूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा।
एक बगल की झाड़ी
बढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी।
देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूल
लहराया जी का सागर अकूल।
दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ता
जैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’।
सकपकायी, बहार देखने लगी
जैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी।
भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यार
सिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार।
टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकार
तोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार।
बहुत उगे थे तब तक
उसने कुल अपने आंचल में
तोड़कर रखे अब तक।
घूमी प्यार से
मुसकराती देखकर बोली बहार से-
“देखो जी भरकर गुलाब
हम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।”
कुकुरमुत्ते की कहानी
सुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी।
पूछा “क्या इसका कबाब
होगा ऎसा भी लजीज?
जितनी भाजियां दुनिया में
इसके सामने नाचीज?”
गोली बोली-”जैसी खुशबू
इसका वैसा ही स्वाद,
खाते खाते हर एक को
आ जाती है बिहिश्त की याद
सच समझ लो, इसका कलिया
तेल का भूना कबाब,
भाजियों में वैसा
जैसा आदमियों मे नव्वाब”
“नहीं ऎसा कहते री मालिन की
छोकड़ी बंगालिन की!”
डांटा नौकरानी ने-
चढ़ी-आंख कानी ने।
लेकिन यह, कुछ एक घूंट लार के
जा चुके थे पेट में तब तक बहार के।
“नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा”
पलटकर बहार ने उसे डांटा-
“कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है,
इसके साथ यहां जाना है।”
“बता, गोली” पूछा उसने,
“कुकुरमुत्ते का कबाब
वैसी खुशबु देता है
जैसी कि देता है गुलाब!”
गोली ने बनाया मुंह
बाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!”
कहा,”बकरा हो या दुम्बा
मुर्ग या कोई परिन्दा
इसके सामने सब छू:
सबसे बढ़कर इसकी खुशबु।
भरता है गुलाब पानी
इसके आगे मरती है इन सबकी नानी।”
चाव से गोली चली
बहार उसके पीछे हो ली,
उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानी
पोंछती जो आंख कानी।
चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर
बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर।
उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर-
आधुनिक पोयेट
पीछे बांदी बचत की सोचती
केपीटलिस्ट क्वेट।
झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयी
जोर से ‘मां’ चिल्लायी।
मां ने दरवाजा खोला,
आंखो से सबको तोला।
भीतर आ डलिये मे रक्खे
मोली ने वे कुकुरमुत्ते।
देखकर मां खिल गयी।
निधि जैसे मिल गयी।
कहा गोली ने, “अम्मा,
कलिया-कबाब जल्द बना।
पकाना मसालेदार
अच्छा, खायेंगी बहार।
पतली-पतली चपातियां
उनके लिए सेख लेना।”
जला ज्यों ही उधर चूल्हा,
खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा।
कोठरी में अलग चलकर
बांदी की कानी को छलकर।
टेरियर था बराती
आज का गोली का साथ।
हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से।
दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से।
इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयार
हो गया, खाने चलीं गोली और बहार।
कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसे
थाली लगायी बड़े समादर से।
खाते ही बहार ने यह फ़रमाया,
“ऎसा खाना आज तक नही खाया”
शौक से लेकर सवाद
खाती रहीं दोनो
कुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब।
बांदी को भी थोड़ा-सा
गोली की मां ने कबाब परोसा।
अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भी
बाद को ला दिया,
हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।
कुकुरमुत्ते की कहानी
सुनी जब बहार से
नव्वाब के मुंह आया पानी।
बांदी से की पूछताछ,
उनको हो गया विश्वास।
माली को बुला भेजा,
कहा,”कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।”
माली ने कहा,”हुजूर,
कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर,
रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।”
गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब।
बोले;”चल, गुलाब जहां थे, उगा,
सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।”
बोला माली,”फ़रमाएं मआफ़ खता,
कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।”
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए....
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - कुकुरमुत्ता - भाग - 1 - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
कविता का अंश...
एक थे नव्वाब,
फ़ारस से मंगाए थे गुलाब।
बड़ी बाड़ी में लगाए,
देशी पौधे भी उगाए,
रखे माली, कई नौकर
गजनवी का बाग मनहर
लग रहा था।
एक सपना जग रहा था,
सांस पर तहजबी की,
गोद पर तरतीब की।
क्यारियां सुन्दर बनी
चमन में फैली घनी।
फूलों के पौधे वहाँ
लग रहे थे खुशनुमा।
बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,
जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,
चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,
गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज,
और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,
रंग अनेकों-सुर्ख, धानी, चम्पई,
आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद,
जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।
फ़लों के भी पेड़ थे,
आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे।
चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,
लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,
चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां,
बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ।
साफ़ राह, सरा दानों ओर,
दूर तक फैले हुए कुल छोर,
बीच में आरामगाह
दे रही थी बड़प्पन की थाह।
कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,
कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।
आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
“अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
कांटो ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी।
रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा।
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
कलम मेरा नही लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नकली, मै हूँ मौलिक
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुलबुला
तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।
काम मुझ ही से सधा है
शेर भी मुझसे गधा है
चीन में मेरी नकल, छाता बना
छत्र भारत का वही, कैसा तना
सब जगह तू देख ले
आज का फिर रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ।
काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ।
उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी
और लम्बी कहानी-
सामने लाकर मुझे बेंड़ा
देख कैंडा
तीर से खींचा धनुष मैं राम का।
काम का-
पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का।
सुबह का सूरज हूँ मैं ही
चांद मैं ही शाम का।
कलजुगी मैं ढाल
नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल।
मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला
सारी दुनिया तोलती गल्ला
मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला
मेरे उल्लू, मेरे लल्ला
कहे रूपया या अधन्ना
हो बनारस या न्यवन्ना
रूप मेरा, मै चमकता
गोला मेरा ही बमकता।
लगाता हूँ पार मैं ही
डुबाता मझधार मैं ही।
डब्बे का मैं ही नमूना
पान मैं ही, मैं ही चूना
मैं कुकुरमुत्ता हूँ,
पर बेन्जाइन वैसे
बने दर्शनशास्त्र जैसे।
ओमफ़लस और ब्रहमावर्त
वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त
जैसे सिकुड़न और साड़ी,
ज्यों सफ़ाई और माड़ी।
कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन
जैसे फ़्रायड और लीटन।
फ़ेलसी और फ़लसफ़ा
जरूरत और हो रफ़ा।
सरसता में फ़्राड
केपिटल में जैसे लेनिनग्राड।
सच समझ जैसे रकीब
लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब
मैं डबल जब, बना डमरू
इकबगल, तब बना वीणा।
मन्द्र होकर कभी निकला
कभी बनकर ध्वनि छीणा।
मैं पुरूष और मैं ही अबला।
मै मृदंग और मैं ही तबला।
चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार
दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।
मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने
संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने
मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा
जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा।
वायलिन मुझसे बजा
बेन्जो मुझसे सजा।
घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल,
शंख, तुरही, मजीरे, करताल,
करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर,
बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर,
मानते हैं सब मुझे ये बायें से,
जानते हैं दाये से।
ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह
देख, सब में लगी है मेरी गिरह
नाच में यह मेरा ही जीवन खुला
पैरों से मैं ही तुला।
कत्थक हो या कथकली या बालडान्स,
क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स
बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा,
पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका
नाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन,
सब में मेरी ही गढ़न।
किसी भी तरह का हावभाव,
मेरा ही रहता है सबमें ताव।
मैने बदलें पैंतरे,
जहां भी शासक लड़े।
पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां,
मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां।
नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता,
नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।
नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ का
नहीं मेरा बदन आठोगांठ का।
रस-ही-रस मैं हो रहा
सफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा।
दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,
रस में मैं डूबा-उतराया।
मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।
टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े
हाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।
कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर
टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा
पढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकर
हाथ, कहां,’लिख दिया जहां सारा’।
ज्यादा देखने को आंख दबाकर
शाम को किसी ने जैसे देखा तारा।
जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही
रोका नहीं रूकता जोश का पारा
यहीं से यह कुल हुआ
जैसे अम्मा से बुआ।
मेरी सूरत के नमूने पीरामेड
मेरा चेला था यूक्लीड।
रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,
जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर
मैं ही सबका जनक
जेवर जैसे कनक।
हो कुतुबमीनार,
ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,
विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,
मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता
सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,
गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर।
एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च
पड़ती है मेरी ही टार्च।
पहले के हो, बीच के हो या आज के
चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।
चीन के फ़ारस के या जापान के
अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।
ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के
कहीं की भी मकड़ी के।
बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे
छत्ते के हैं घेरे।
सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप
टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।
और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,
देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट।
घूमता हूं सर चढ़ा,
तू नहीं, मैं ही बड़ा।”
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
बुधवार, 4 जनवरी 2017
लेख – चंद्रगुप्त मौर्य
लेख का अंश… ईसा पूर्व साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व की बात है। मगध की राजधानी पाटलिपुत्र का एक अहीर जब अपने बाड़े में गाय-भैंसों को चारा-पानी देने के लिए गया, तो उसने एक शिशु का रूदन सुना। वह उसी आवाज की ओर दौड़ पड़ा। देखा तो एक नवजात शिशु बिलख रहा था। शायद अपने उस दुर्भाग्य पर जिसके कारण उसे जन्म के तुरंत बाद ही उपनी माँ से बिछड़ना पड़ रहा था। अहीर ने आस-पास देखा। शायद उसकी माँ यहीं कहीं हो। उसने देखा कि पीछे के दरवाजे के पास एक स्त्री तुरंत मुड़ी और बड़ी तेजी से चली गई। अहीर ने फिर भी उस स्त्री का मुँह देख लिया और पहचान गया कि यह मगध के एक सरदार की धर्मपत्नी है। जिसका पति युद्ध में मारा गया था। यही बालक आगे चलकर चंद्रगुप्त मौर्य के नाम से भारत राष्ट्र के सम्राट पद पर बैठा और अपना ही नहीं, देश का नक्शा भी बदल कर रख दिया। चंद्रगुप्त के पिता मोरिय वंशीय क्षत्रिय थे। जब वह गर्भ में था, तभी वे एक लड़ाई में मारे गए। कुछ बड़ा होने पर बालक अपने नए पिता के मवेशी चराने लगा। साथ में दूसरे ग्वालबाल भी होते। इसलिए चंद्रगुप्त उनके साथ तरह-तरह के खेल खेलता। एक दिन की बात है, ग्वालबाल साथियों के साथ वह राजा-प्रजा का खेल खेल रहा था। पास से ही गाँव की ओर एक सड़क जाती थी। उस सड़क पर से निकला उसी समय एक क्षीणकाय दुर्बल ब्राह्मण। बालकों को राजा-प्रजा का खेल खेलते देख कौतुहलवश वह वहाँ रूक गया। मनोरंजन की द्ष्टि से वह राजा बने चंद्रगुप्त के पास पहुँचा और बोला – महाराज, मैं गरीब और अनाथ ब्राह्मण हूँ। हाँ, हाँ, बोलो, क्या चाहिए? राजा बने चंद्रगुप्त ने उससे पूछा। कुछ गाएँ मिल जाती तो बड़ी मेहरबानी होती महाराज। उस ब्राह्मण ने कहा। ले जाओ। पास चर रही गायों की ओर इशारा करते हुए बालक ने कहा- जितनी चाहे, उतनी गाएँ ले जाओ। इनका मालिक मुझे पकड़ कर मारेगा, महाराज। ब्राह्मण न और भी रस लेते हुए उस बालक से कहा। बालक ने तुरंत जवाब दिया – किसकी हिम्मत है, जो सम्राट चंद्रगुप्त की आज्ञा का उल्लंघन करे। चंद्रगुप्त ने इस प्रकार उत्तर दिया कि सचमुच ही जैसे वह वहाँ का सम्राट हो। वह ब्राह्मण कोई और नहीं, भारतीय नीति शास्त्र के प्रकांड पंडित चाणक्य थे। उन्होंने बालक चंद्रगुप्त को एक उदीयमान प्रतिभा के रूप में देखा और उन्हें लगा कि उनकी खोज पूरी हो गई है और वे शिकारी से संपर्क कर उसे अपने साथ ले आए। आगे क्या हुआ, यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
लेख
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष