सोमवार, 14 जून 2010
जिंदगियाँ सँवारने वाला हो तलाक कानून
डॉ. महेश परिमल
हिंदू विवाह कानून में संशोधन को केंद्र ने मंजूरी दे दी है। इसके अनुसार एक साथ रहते हुए दंपति को लगे कि अब साथ-साथ रहना मुश्किल है, तो उन्हें आराम से तलाक मिल जाएगा। देखा जाए, तो तलाक एक ऐसा शब्द है, जिसे हम संबंधों को उतारकर फेंकने का पर्याय कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में इसे हम छुटकारा भी कह सकते हैं। दूसरी ओर विवाह एक पवित्र बंधन है, इसका विकल्प अभी तक नहीं ढँूढ़ा जा सका है। जब विवाह का यह पवित्र संबंध एकदम टूटने के कगार पर आ खड़ा हो जाए, तब अलग-अलग रहना ही श्रेयस्कर है। इसे सरकार ने अभी माना। इसे कानून का रूप देने की कवायद शुरू हो गई है। इसके अनुसार अब पति-पत्नी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 बी के अनुसार आपसी सहमति से तलाक ले सकते हैं।
आज न्याय की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। न्याय को रसूखदार किस तरह से अपनी जेब में लेकर घूमते हैं, यह बात तो भोपाल गैस कांड से उभरकर सामने आ ही गई है। आज न्याय बिक रहा है। बस खरीददार का रसूखदार होना ही सबसे जरुरी है। ऐसे में बरसों से तलाक की अर्जी देकर न्याय की आस में जीने वाले भला किस तरह के न्याय की आशा में साँस ले सकते है? कई बार तो हालत यह होती है कि पूरा यौवन ही न्याय की आस में बीत जाता है। बुढ़ापे में जब कोई सहारा नहीं होता, तब न्याय के रूप में उन्हें तलाक की अनुमति मिलती है। ऐसे में दोनों की स्थिति दयनीय हो जाती है। ऐसे न्याय का औचित्य ही क्या है? यौवन की कीमत पर मिलने वाले इस न्याय को अन्याय कहना ही उचित होगा। देर से ही सही, सरकार ने इस दिशा में चिंता दिखाते हुए सराहनीय कदम उठाया है। इससे 'बे्रकडाउन ऑफ मेरिजÓ को भी सहारा मिल जाएगा, अर्थात् जिनका वैवाहिक जीवन एकदम ही दूभर हो गया हो, वे भी तलाक की अर्जी देकर अपने जीवन को सुधारने की दिशा में एक कदम उठा सकते हैं। तनावभरी जिंदगी से मुक्ति का साधन बन सकती है यह व्यवस्था। मतभेद और अधिक गहराएँ, उससे बेहतर यही है कि अपनी दुनिया ही अलग बसा ली जाए।
जिस तरह से आज 'लीव इन रिलेशनÓ को कानूनी मान्यता मिल गई है, ऐसे लोगों को अब तमाम दस्तावेज दिखाने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग कानून के मोहताज नहीं हैं। उसी तरह तलाक लेने के लिए भी तमाम दस्तावेज की दरकार न हो, ऐसी व्यवस्था भी होनी चाहिए। जो साथ-साथ नहीं रह सकते, उन्हें साथ-साथ रहने के लिए विवश करना किसी क्रूरता से कम नहीं है। सरकार को यहाँ सावधान रहने की आवश्यकता है कि यह कानून कुछ हाथों का खिलौना बनकर न रह जाए। जहाँ समाज रूढिय़ों से बँधा हो और नारी का स्थान दोयम दर्जे का हो, वहाँ इस व्यवस्था का दुरुपयोग होना लाजिमी है। इससे स्त्री जाति को ही अधिक नुकसान होने की संभावना है। इसके अलावा तलाक के बाद जिंदगी सँवरती नहीं, बल्कि बिखरती है। शिेषकर उन संतानों की, जो दो परिवार, दो खानदान, दो परंपराओं, दो ध्रुवों को जोड़ते हैं। कई हालात में दोनों में से कोई भी संतान को अपने पास नहीं रखना चाहता। संतान उन्हें इस रिश्ते की तरह ही एक बोझ लगते हैं। सरकार ने इसी को ध्यान में रखकर यह ऐतिहासिक कदम उठाया है। संतानों की बेहतर परवरिश के लिए उठाया गया यह कदम कारगर हो, इसकी आशा की जा सकती है। वैसे देखा जाए तो विवाह अपने आप में ही इतना रहस्यमय और गुम्फित है, जिसे समझना बहुत ही मुश्किल है। उस पर हमारे देश का कानून तो और भी गुम्फनभरा है। देश एक होने के बाद भी हिंदू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग कानून हैं। इसके बाद भी सब-कुछ कानून के अनुसार ही चल रहा है। मुस्लिम समुदाय में तलाक देना बहुत आसान है। पर हिंदू सम्प्रदाय में अभी तक बहुत मुश्किल था, तलाक लेना। हिंदू समाज में आज भी महिलाएँ रोज जुल्म सहकर भी पति से अलग होने का सपने में भी नहीं सोचती। पर अब बदलाव की जो बयार हबहने लगी है, उससे जीवनमूल्यों में भी काफी बदलाव आया है। अब पति परमेश्वर नहीं, बल्कि जीवनसाथी है। जिसे पत्नी के साथ जीवन बिताना है, अपनी आजादी को भूलकर।
विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है । दो प्राणी अपने अलग-अलग अस्तित्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं । स्त्री और पुरुष दोनों में परमात्मा ने कुछ विशेषताएँ और कुछ अपूणर्ताएँ दे रखी हैं। विवाह सम्मिलन से एक-दूसरे की अपूर्णताओं की अपनी विशेषताओं से पूर्ण करते हैं, इससे समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है । इसलिए विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है । एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह प्रगति-पथ पर अग्रसर होते जाना विवाह का उद्देश्य है । वासना का दाम्पत्य-जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है, प्रधानत: दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निर्माण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके। धन्यो गृहस्थाश्रम: । सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं। वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों के साधकों को वांंिछत सहयोग देते रहते हैं। ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढिय़ों-कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुन: प्रतिष्ठित करना आवश्क है । युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं ।
अंत में केवल इतना ही कि तलाक भी जीवन का अंत नहीं है। जहाँ तलाक होता है, वहाँ जीवन में आशा की कोंपलें फूटने की गुंजाइश हो, तो बेहतर, अन्यथा वह जीवन भी किसी श्राप से कम नहीं होता। विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है, यदि हो तो! विश्वास की महीन डोर पर ही बँधकर लोग पूरा जीवन ही बिता देते हैं। इस डोर को टूटने में जरा भी देर नहीं लगती। लेकिन यही डोर कई परिवारों को जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आपसी विश्वास और समझ के सहारे चलने वाला जीवन ही सबसे बेहतर और उल्लासभरा जीवन है। इस पर तलाक की काली छाया भी न पड़े, इसकी पूरी कोशिश होनी चाहिए। कोशिशें जब कामयाब न हो पाए, तभी तलाक का सहारा लिया जाए, ताकि दो नहीं कई जिंदगियों को सँवरने का अवसर मिले।
डॉ. महेश परिमल
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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परिवार को बिखरने से बचाना उद्देश्य होना चाहिए। और बिखर ही गया हो तो किसी बंधन में बांधे रखने से भी काम न चलेगा, कई जीवन और खराब होते हैं। निश्चित तलाक का कानून सरल होना चाहिए।
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