गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मौसम की भविष्यवाणियों में खामियां


प्रमोद भार्गव
हमारे देश में मानसून ने औसत वर्षा कर हरियाली की स्थिति तो कमोबेश स्थगित ही कर दी है। अब कभी वह मुसीबत का मानसून बन कर आता है तो कभी सूखे का! आखिरकार मौसम की भविष्यवाणी करने वाले पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने भी मान ही लिया है कि कभी अति सक्रिय तो कभी खंडित और इस साल अवर्षा के मानसून चक्र का सही आंकलन करने के सटीक पूर्वानुमान वह नहीं लगा पाया। मंत्रालय के सचिव शैलेश नायक ने स्पष्ट तौर से स्वीकारा है कि भारत में मौसम की भविष्यवाणी करने वाले तंत्र में खामियां हैं।

प्रकृति की चाल से जुड़े मानसून और जलवायु परिवर्तन बड़े विषय होने के साथ जटिल रहस्यलोक भी हैं। इसलिए मौसम का सही-सही पूर्वानुमान लगा पाना कंप्यूटरी युग में भी मुश्किल व असंभव बना हुआ है। फलस्वरूप 13 जून से पहली वर्षा की जो भविष्यवाणी मौसम विभाग ने की थी, वह कई मर्तबा बदलने के बाद अगस्त बीतने तक सटीक नहीं बैठीं। भविष्यवाणी के मुताबिक इस साल औसत वर्षा के अनुमान लगाए जा रहे थे। लेकिन 83 साल बाद सबसे कम वर्षा का आंकड़ा 2009 का है। अगस्त तक जितनी बारिश होनी चाहिए थी उससे 25 प्रतिशत कम बारिश हुई है। 2002 में इस समय तक 19 फीसदी कम बारिश हुई थी। खासतौर से उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी राज्यों समेत बिहार में अवर्षा के कारण सूखे के हालात निर्मित हो चुके हैं। नतीजतन देश के 626 जिलों में से अब तक 177 जिले तो सूखाग्रस्त घोषित कर ही दिए गए।

मौसम की भविष्यवाणियों की ओर देश इसलिए टकटकी ताकता रहता है क्योंकि औसत मानसून आए तो देश में हरियाली और समृध्दि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आए तो पपड़ाई धारती और अकाल की क्रूर परछाईयां देखने में आती हैं। वर्षाऋतु के दो माह बीत जाने के बावजूद अवर्षा की स्थिति बनी हुई है, जो जबरदस्त सूखा और अकाल के पूर्व संकेत हैं। इन संकेतों का हवाला देते हुए एम. एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउण्डेशन के प्रोफेसर पी. सी. केशवन ने कहा है कि भारत को आज अपनी 1.3 अरब आबादी के लिए 21.5 करोड़ टन अनाज की जरूरत है और इसमें लगभग 1.8 करोड़ आबादी हर साल जुड़ रही है। ऐसे भयावह हालात में खराब मानसून और पर्याप्त खाद्यान्न की कमी देश के समक्ष चिंता का विषय हैं।

ऐसी जटिल स्थिति ही वह दौर है जिसमें देश का जनमानस मौसम विभाग से सटीक भविष्यवाणी की अपेक्षा रखता है,लेकिन मौसम विभाग है कि प्रकृति के रूठ जाने की आज तक सही जानकारी नहीं दे पाया।आखिर हमारे मौसम वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान आसन्न संकटों की क्यों सटीक जानकारी देने में खरे नहीं उतरते ? क्या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधान कम हैं अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं...? मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्धा से भूमध्य रेखा के निकट से हवाऐं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धारती की परिक्रमा सूरज के गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्धा से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाए भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाऐं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, हिमाचल हरियाणा और पंजाब तक बरसती हैं। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाऐं आनध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाऐं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रूख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसाती रूप में भारतीय धारती पर गिरता है।

महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्डल की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्न-भिन्न ऊंचाईयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिये कम्प्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आंकड़ें इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है। हमारे देश में 1875 में मौसम विभाग की बुनियाद रखी गई थी। आजादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधानों का निरंतर विस्तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भू-वेधाशालायें, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो पवन वेधाशालायें, 11 तूफान संवेदी और 8 तूफान सचेतक रडार केन्द्र हैं, 8 उपग्रह चित्र प्रेषण और ग्राही केन्द्र हैं। इसके अलावा वर्षा दर्ज करने वाले 5 हजार पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले केन्द्र 214 पेड़ पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्वीकरण को मापने वाले, 35 तथा 38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधाशालाऐं हैं। अब तो अंतरिक्ष में छोड़े गये उपग्रहों के माध्यम से सीधो मौसम की जानकारी कम्प्यूटरों में दर्ज हो रही है।

बरसने वाले बादल बनने के लिये गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाऐं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापे तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे पाया गया। यही परत ध्रव प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है। और तापमान शून्य से 50 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपॉज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथवी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और बर्षा के रूप में धारती पर टपकना शुरू होते हैं। जलवायु परिवर्तन से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रदूषण के चलते प्रदूषित गैसों की जो तीन किलोमीटर मोटी परत बन गई है वह पानी के बाष्पीकरण की प्राकृतिक प्रक्रिया को सोख लेती हैं नतीजतन अवर्षा अथवा अतिवृष्टि की स्थिति पूरी दुनियां में निर्मित होने लगी है।

दुनिया के किसी अन्य देश में मौसम इतना दिलचस्प, हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है जितना कि भारत में, इसका मुख्य कारण है भारतीय प्रायदीप की विलक्षण भौगोलिक स्थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी है और ऊपर हिमालय के शिखर। इस कारण हमारे देश का जलवायु विविधातापूर्ण होने के साथ प्राणियों के लिये बेहद हितकारी है। इसीलिये पूरे दुनिया के मौसम वैज्ञानिक भारतीय मौसम को परखने में अपनी बुध्दि लगाते रहते हैं। इतने अनूठे मौसम का प्रभाव देश की धारती पर क्या पड़ेगा इसकी भविष्यवाणी करने में हमारे वैज्ञानिक क्यों अक्षम रहते हैं इस सिलसिले में प्रसिध्द वैज्ञानिक डॉ. राम श्रीवास्तव का कहना है कि सुपर कम्प्यूटरों का बड़ा जखीरा हमारे मौसम विभाग के पास होने के वावजूद सटीक भविष्यवाणियां इसलिये नहीं कर पाते क्योंकि हम कम्प्यूटरों की भाषा ''अलगोरिथम'' नहीं पढ़ पाते। वास्तव में हमें सटीक भविष्यवाणी के लिये दो सुपर कम्प्यूटरों की जरूरत है, लेकिन हमने करोडों रूपये खर्च करके एक्स.एम.जी. के-14 कम्प्यूटर आयात किये हैं। अब इनके 108 टर्मिनल काम नहीं कर रहे हैं, क्योंकि इनमें दर्ज आयातित भाषा अलगोरिथम पढ़ने में हम अक्षम हैं। कम्प्यूटर भले ही आयातित हों लेकिन इनमें मानसून के डाटा स्मृति में डालने के लिये जो भाषा हो, वह देशी हो, हमें सफल भविष्यवाणी के लिये कम्प्यूटर की देशी भाषा विकसित करनी होगी क्योंकि अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिमालय भारत में है, अमेरिका अथवा ब्रिटेन में नहीं। लिहाजा जब हम बर्षा के आधाार श्रोत की भाषा पढ़ने व संकेत परखने में सक्षम हो जाऐंगे तो मौसम की भविष्यवाणी सटीक बैठेगी।
प्रमोद भार्गव

2 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ.परिमल जी।
    इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए आभार!

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  2. विभाग के पास 550 भू-वेधाशालायें, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो पवन वेधाशालायें, 11 तूफान संवेदी और 8 तूफान सचेतक रडार केन्द्र हैं, 8 उपग्रह चित्र प्रेषण और ग्राही केन्द्र हैं। जबकि हमारे पास ग्रहों की स्थिति की जानकारी के अलावा कुछ भी नहीं , फिर भी इस वर्ष की मौसम की मेरी भविष्‍यवाणियां इस लिंक परदेखें।

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