शनिवार, 8 अगस्त 2009
माँ के दूध से क्यों हैं वंचित देश के मासूम
डॉ. महेश परिमल
आजादी के पूर्व जब लोकमान्य तिलक ने यह हुंकार भरी कि स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा, तब भारतीयों में एक जज्बा दौड़ गया। लोगों ने इसका भरपूर समर्थन किया। बस तभी से अँगरेजी सरकार की चूलें हिलने लगी। आज यदि एक बच्चा कहता है कि मेरी माँ का दूध पर मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा। तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। पर सच तो यह है कि आज के बेबी फूड बच्चों को माँ के दूध से वंचित रखने का षड्यंत्र रच रहे हैं। स्तनपान सप्ताह को सामने रखकर आज की माताएँ बताएँ कि क्या उन्होंने सचमुच अपने बच्चे को पूरे वर्ष तक अपना दूध पिलाया है?
बेबी फूड बनाने वाली कंपनियाँ अपने उत्पादन पर एक हँसते-मुस्कराते बच्चे की तस्वीर दिखाते हैं। इससे आज की तथाकथित शिक्षित माताएं यह समझती हैं कि इस बेबी फूड के इस्तेमाल से हमारा बच्चा भी इसी तरह हँसता-मुस्कराता हो जाएगा। इसके बाद वे इसका इस्तेमाल शुरू कर देती हैं। यहाँ कए जरुरी बात यह बताना है कि ये बेबी फूड वाले अपने उत्पादन में यह कभी नहीं लिखते कि बच्चे को जिस शीशी से दूध पिलाया जा रहा है, उसे हर बार गर्म पानी से धोना चाहिए। ऐसा न करने से आपके मासूम की मौत हो सकती है। वास्तव में आज यही हो रहा है, बेबी फूड के विज्ञापनों में ऐसा नहीं लिखा है, इसलिए आज हमारे देश में सबसे अधिक बच्चों की मौत इंफेक्शन से हो रही है। आज की माताएँ इसे क्यों नहीं समझ पा रही हैं, यह चिंता का विषय है।
कई महिलाएँ, जो अपने को आधुनिक बताती हैं, उनका मानना है कि बच्चे को दूध पिलाने से उनका फिगर बिगड़ जाएगा। कई माताएँ कामकाजी होती हैं। इन माताओं के लिए अपने बच्चे को दूध पिलाना सचमुच एक गंभीर समस्या है। अभी इसे भारतीय परिवेश में नहीं देखा गया है। किंतु अमेरिका में अब माताओं के लिए उनकी ऑफिस में यह व्यवस्था की जाने लगी है, जहाँ वह इत्मीनान से अपने बच्चे को दूध पिला सकती हैं। एक ओर जहाँ भारतीय माताएँ अपने बच्चे को दूध पिलाने में संकोच करती हैं, वहीं अमेरिकी महिलाएँ इसके लिए संघर्ष कर रहीं हैं। वे कोर्ट में जा रही हैं और आंदोलन कर रही हैं। अभी कुछ महीनों पूर्व ही एक तस्वीर ने पूरे अमेरिका में तहलका मचा दिया। तस्वीर में कई महिलाएँ एक डिपार्टमेंटल स्टोर की सीढिय़ों पर अपने बच्चों को दूध पिला रही हैं। यह तस्वीर पूरे विश्व के अखबारों में प्रकाशित की गई। यह उस आंदोलन का एक छोटा सा हिस्सा था, जिसमें माताओं अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए स्थान की माँग कर रही हैं। अमेरिका अब इसके लिए चिंतित है, लेकिन भारतीय कार्पोरेट जगत ने अभी इस दिशा में कुछ भी नहीं सोचा है।
आखिर भारतीय माताएँ ऐसा क्यों सोचती हैं वे यदि अपने बच्चे को दूध पिलाएँगी, तो उसका शरीर बेडौल हो जाएगा। क्या शरीर का आकर्षक बच्चे के भविष्य में अधिक आवश्यक है? इस दृष्टि से देखा जाए, तो भारत के गरीब बच्चे अधिक खुशकिस्मत हैं। उन्हें माँ के दूध के सिवाय और कुछ नहीं मिलता। दूसरी ओर ये गरीब इतने अधिक गरीब होते हैं कि ये बेबी फूड नहीं खरीद सकते। इसलिए बच्चा कम से कम एक साल तक तो माँ के दूध से वंचित नहीं रहता। मजदूर के रूप में काम करने वाली माताओं की तस्वीर देखी हैं, जो खेतों, चाय बागानों आदि में काम करती हैं, वे काम के दौरान अपने बच्चे को पीठ पर इस तरह से रखती हैं कि बच्चा जब चाहे माँ का दूध पी सकता है। बच्चे को दूध न पिलाने की प्रवृत्ति शिक्षित महिलाओं में ही अधिक देखी जाती हैं। उन्हें ही अपने शरीर का विशेष ध्यान रहता है।
बेबी फूड वाले तो अपने उत्पाद का विक्रय कर अरबों रुपए कमाते हैं। वे चाहकर भी गरीब महिलाओं को अपना उत्पादन खरीदने के लिए आकर्षित नहीं कर सकते। आँकड़ों की दृष्टि से देखें तो एक माँ एक वर्ष तक यदि अपने बच्चे को दूध पिलाए, तो वह एक वर्ष में 48 हजार रुपए प्रतिवर्ष की बचत कर सकती हैं। अभी यह राशि बेबी फूड वालों के पास जा रही है। सोचो, कितना कमा लेती हैं, ये कंपनियाँ, मात्र एक बच्चे को माँ के दूध से वंचित करके?
आज जहाँ अपने अधिकार के लिए लोग सचेत हो रहे हैं। अदालतों का दरवाजा खटखटाया जा रहा है, वहीं देश के करोड़ों मासूमों की सुनने वाला कोई नहीं है। एक साजिश के तहत मासूमों को उनके अधिकार से वंचित किया जा रहा है और आधुनिक माताएँ इसे अनिवार्य समझकर अपना रहीं है, ऐसे में आखिर दोष किसका माना जाए? सरकार तो बेबी फूड पर प्रतिबंध लगाने से रही। तो फिर माताएँ ही क्यों जागरुक नहीं होती? आखिर वह कौन -सी स्थिति है, जो एक बच्चे को माँ के दूध से वंचित रख रही है? माँ बच्चे के जीवन की पहली पाठशाला होती है, इस उक्ति को चरितार्थ तभी किया जा सकता हे,जब माँ ही इसे समझे। अभी हमारे देश में ऐसी व्यवस्था कम ही हो पाई है, जहाँ माँ का दूध फ्रिज करके रखा जाता है। ऐसी माताएँ भी नहीं हैं, जो अपने दूध को 'मिल्क बैंकÓ में देती हो। हाँ धाय की परंपरा अवश्य है, जो दूसरों के बच्चों को अपना दूध पिलाती हैं। पर अब यह परंपरा केवल उन माताओं पर ही लागू होती हैं जो गरीबी से त्रस्त होकर ऐसा कर रही हैं।
आज की माताएँ यह क्यों भूल जाती हैं कि वे अपनी संतान को एक वर्ष तक दूध पिलाकर उसका भविष्य सँवार रही हैं। उसके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को विकसित कर रही हैं। उसे सबल बना रही हैं, भविष्य में विषमताओं से जूझने के लिए। बेबी फूड वाला बच्चा आखिर कब तक जूझेगा, भविष्य की चुनौतियों से, ये किसी माँ से सोचा? अंत में उन माताओं को प्रणाम,जो आज भी अपने दूध पर संतान का अधिकार समझती हैं, उसे दूध पिलाती हैं। तभी ये माताएँ अपनी संतानों को अपने दूध का मोल बता पाएँगी।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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