साथियो
दो वर्ष 5 दिन पहले यानी 26 अगस्त 2007 को ब्लॉगर्स की दुनिया के सांता क्लॉज यानी श्री रवि रतलामी जी ने मेरा ब्लॉग शुरू किया। बस तब से उन्हीं की प्रेरणा की एक छोटी सी किरण लेकर चलता रहा। आज कई ब्लॉगर साथी मुझे मेरी रचनाओं से पहचानते हैं, यही मेरी उपलब्धि है। समय समय पर अपनी प्रतिक्रियाओं से मेरा उत्साहवर्धन होता रहता है। इससे अधिक मुझे कुछ और चाहिए भी नहीं। अधिक क्या कहूँ, मुझे कहना नहीं, लिखना आता है।
डॉ महेश परिमल
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मेरी अजन्मी बेटी अन्यूता
एक आहट सी सुनाई दे रही है नन्हें कदमों की. शायद यह तुम हो! क्यों तुम ही हो न! तुम्हारे नर्म, नाजुक पाँव और उन पाँवों की हल्की सी आहट मेरे दिल के तारों को छेड़ रही है. मैं जानती हूँ तुम आओगी, जरूर आओगी. यह आहट यकींन है मेरा. मगर तुम्हारे आने में इतनी देर क्यों? मन के ऑंगन में तो तुम कब से चिड़िया बन कर फुदक रही हो. फिर इस धरती के ऑंगन में अपने पैरों की थाप कब छोड़ोगी? देखो ज्यादा विलंब ठीक नहीं. अपनों को ज्यादा नहीं सताते. और फिर तुम तो एक इंसान के घर में जन्म लोगी. उसकी सूनी जिंदगी में उजाला करोगी. तो फिर अब जल्दी से आ जाओ इंसानियत की परिभाषा जानने. यह परिभाषा तुम जितनी जल्दी जान लो तुम्हारे लिए उतना ही अच्छा है. मगर याद रखो कि केवल खुशियों की आशा ही लेकर न आना. यहाँ तुम्हें जिंदगी के बहुत से रूप देखने को मिलेंगे. कांटों के बीच कली की तरह खिलोगी तुम. घने अंधेरों के बीच एक नन्हीं किरण बनकर चमकना होगा तुम्हें. यानि कि तुम्हें खुद अपने संघर्ष के द्वारा जिंदगी के सागर में से खुशियों की सीप तलाश करनी होगी. तभी तुम पा सकोगी मुस्कराहट का मोती. डरना नहीं, हम सब तुम्हारे साथ होंगे. होंगे क्या!! हम सभी तुम्हारे साथ हैं. हम तो अभी से तुम्हारे साथ ही हैं. बस एक बार तुम आ तो जाओ. फिर अपनी ऑंखों से देखना कि कैसे तुम्हें ले कर हमारा प्यार छलकता है. खास कर एक इंसान का प्यार. यह इंसान तुम्हें बहुत प्यार देगा. इतना प्यार कि तुम उसके प्यार में डूब जाओगी. जानती हो इतना प्यार कौन दे सकता है? वही जिसने जिन्दगी के किसी मोड़ पर प्यार की कमी महसूस की हो. वही चाहता है कि यह कमी दूसरों को महसूस न हो. और फिर तुम पराई कहाँ? अपनी और सिर्फ अपनी हो. तुम्हें तो यह इंसान प्यार से सराबोर कर देगा. बदले में तुम उसे देना उसका बचपन. जो बहुत पीछे छूट गया है, मगर उसकी याद अब भी बाकी है दिल के किसी कोने में! तुम खुद खिलखिलाकर उसे उसका बचपन लौटा देना. उस इंसान की सारी हँसी, शरारतें, खिलखिलाहट देखना चाहती हूँ मैं. तुम मुझे यह सब दिखाओगी ना? तुम्हें दिखाना ही होगा क्योंकि इस धरती पर तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार करने वाला वही इंसान होगा. जो तुम्हें अपना नाम देगा. और उससे नाम पाकर तुम कहलाओगी- अन्यूता परिमल.
फूल सी अन्यू, प्यारी सी अन्यू
हर एक की चाहत, नाजुक सी अन्यू
सबको हँसाती, खुद भी हँसती
सभी की प्यारी, फूल सी अन्यू
अन्यूता....। कैसा लगा तुम्हें यह नाम? अच्छा है ना? बहुत ही प्यारा नाम है यह. इस नाम में जो अपनापन है, वह मेरे व्यवहार में नहीं. इस नाम में जो प्यार है, वह मेरी ऑंखों में नहीं. इस नाम में जो मिठास है, वह मेरे शब्दों में नहीं. यह अपनापन, प्यार, मिठास सभी कुछ तुम्हारे डैडी की अमानत है. मेरे और डैडी की ऑंखोें का सपना हो तुम. जागती ऑंखों का खुबसूरत सपना. पहले मेरी ऑंखें इस सपने से अनजान थी. केवल तुम्हारे डैडी की ही ऑंखों का सपना थी तुम. मगर एक दिन हरे भरे पेड़ों के झुरमुट तले हम दोनों बैठे थे, तभी ठंडी हवा का हल्का सा झौंका आया और तुम्हारे डैडी की ऑंखों का सपना उड़ते-उड़ते मेरी ऑंखों में समा गया. मैंने जल्दी से पलकें बंद कर ली ताकि हवा का दूसरा झौंका फिर उसे उड़ा न ले जाए. बस तभी से हमारी ंजिंदगी का एक ख्वाब बन गई तुम.
मैं जानती हूँ कि तुम यहाँ नहीं हो. यहाँ क्या अभी तो तुम कहीं भी नहीं हो, मगर तुम्हारा अहसास हमें हर पल होता है. जब कभी धूप का टुकड़ा ऑंगन में आता है, तो इंतजार करती हूँ कि अभी अपने नन्हें कदमों से चल कर तुम आओगी और इस टुकड़े को पकड़ने की एक नाकाम कोशिश करोगी. चिड़िया की चहक सुनकर यूं लगता है कि तुम बोल रही हो. बहुत कुछ, जो न तो तुम समझ सकती हो और न ही मैं. मैं समझने की कोशिश भी करती हूँ, तो तब तक तुम इस पेड़ से उस पेड़ तक पहुँच जाती हो.
आज याद आ रहा है वह दिन जब हमारी बगिया में नन्हा-सा अंकुर फूटा था. उफ मैं तो रो पड़ी थी कि मुझे नहीं चाहिए यह अंकुर. यह जानते हुए भी कि यही अंकुर कली के रूप में तुम्हें सामने पाएगा. मैं जिम्मेदारियों के बोझ से डर कर तुम्हें पाना तो चाहती थी मगर कुछ आजादी के बाद. यूँ ही तुम्हारे सपनों के साथ खेलते हुए जब उकता जाती तब तुम्हें उचक कर, मचल कर पकड़ना चाहती थी. तुम्हारा एकाएक यूँ बिना सोचे-समझे हकीकत बन जाना मुझे स्वीकार न था. मैं चाहती थी कि जोरशोर से तुम्हारा स्वागत करूँ, तुम्हारी राहों में फूल ही फूल बिछाऊँ, रजनीगंधा के फूल, जिसकी महक बचपन से ही तुम्हारी साँसों में समा जाए. मगर यह फूल तो बहुत महँगे होते है ना? कहाँ से लाती मैं? इसीलिए तुम्हें जल्दी नहीं पाना चाहती थी. पहले इसका इंतजाम करना चाहती थी. बस मेरी इसी ख्वाईश ने मुझे इस अंकुर का स्वागत उमंग और उल्लास से नहीं करने दिया. दिन गुजरते गए, अंकुर बढ़ता गया. साथ ही मेरा स्वभाव भी बदलता गया. मैं अब जल्द से जल्द तुमसे मिलना चाहती थी. मगर तुम्हें तो याद था मेरा रूखा व्यवहार. शायद इसीलिए तुम मुझसे मुख मोड़ गई. तुम न आई, मगर फिर भी बगिया महकी आरुणि के साथ. हाँ, आरुणि के नन्हें कदम पड़े. उसके नन्हें हाथ-पाँव, कोमल शरीर, निर्दोष चेहरा देखकर एक क्षण को तुम्हारा न होना भूल ही गई. मगर दूसरे ही क्षण यँ लगा- तुम होती तो अच्छा होता. और मैं तुम्हारा इंतजार पहले से भी ज्यादा बेताबी से करने लगी.
आरुणि बड़ा प्यारा लड़का है. तुम कहोगी कि अब मुझे छोड़कर उसकी तारीफ करने लगी. मगर सच कहूँ, तो मैं तुलना नहीं कर सकती कि सबसे प्यारा कौन है. अभी तो वही मेरे सामने है. इसलिए वही मुझे प्यारा है. हाँ, मगर तुम न होने पर भी मुझे उतनी ही प्यारी हो.
कभी ममता की ऑंखों से देखना अपने आपको. एक नया ही चेहरा पाओगी तुम खुद का. बहुत सी आशाएँ, बहुत से सपने पल रहे होंगे नन्हीं सी ऑंखों में. जो बाहर आने को व्याकुल होंगे. हाँ, अन्यू, मेरी ममतामयी ऑंखों में बहुत से सपने हैं. मगर मैं अपने सपने, अपनी इच्छाएँ तुम पर लादूँगी नहीं. मैं चाहती हूँ कि तुम खुद सपने देखो और उन्हें साकार करो. अपनी ंजिंदगी को ऐसी हकीकत बनाओ जो सपनों से भी सुंदर हो. एक बात कहूँ, सपने, सपने ही बने रहे तो अच्छे लगते हैं. हकीकत बनने पर उनकी सुंदरता खत्म हो जाती है और हकीकत यानि कि हमारी सोच यदि हकीकत न बने तो आदमी कायर कहलाता है, कमजोर कहलाता है. क्या ये शब्द तुम्हारे शब्दकोष में भी शामिल होंगे? यदि ऐसा हुआ तो मुझे अपने विश्वास की परिभाषा बदलनी होगी.
अन्यूता, कभी-कभी सोचती हँ कि आज अनजाने, अनदेखे ही तुम्हें इतनी खुशियाँ दे रही हूँ, मगर हकीकत में जब तुम सामने होओगी तब तुम्हें इन्हीं खुशियों की कुछ बूँदे भी दे पाऊँगी या नहीं? मुझे नहीं लगता कि मैं तुम्हें खुशियों से सराबोर कर पाऊँगी क्योंकि इंसान वही तो देगा जो उसके आसपास होगा. भला मेरे आसपास खुशियों का पुँज कहाँ? कोरे कागज पर जब कोई अक्षर ही नहीं तो शब्द कैसा और बिना शब्दों के कोई सुंदर और सुदृढ़ वाक्यों की कल्पना कैसी? नहीं, अन्यूता बहुत पछताओगी तुम मुझे अपनी मम्मी बनाकर. एक काम करो रिश्तों में थोड़ा फेर-बदल कर लो और एक नया रिश्ता हम कायम कर लें तो कैसा रहे?
रिश्ते कायम हो ही जाते हैं, नियति ऐसा खेल रचती है कि अच्छे से अच्छा खिलाड़ी भी मात खा जाता है. फिर मैं तो पहले से ही हारी हुई हूँ. तुम्हारी चाहत में, तुम्हारे कोमल स्पर्श की कल्पना में. सो नियति ने मुझे तुम्हारी माँ कहलाने का हक दे ही दिया. 4 मार्च सन् 1997 मेरे लिए एक नया खुशियों और सच्चाई भरा दिन लाया. जानती हो अन्यूता, तुम्हें विश्वास नहीं होगा, पर यह सच है. ऑपरेशन थियेटर पर आधी बेहोशी की हालत में भी मैं तुम्हें ही पुकार रही थी. ईश्वर से तुम्हें ही माँग रही थी. ईश्वर ने हमेशा मेरे मन की मुराद देर-सबेर पूरी की है. एक दफा मुझे वक्त की गोद में डाल दिया और मेरा माथा सिंदूरी आभा से चमक उठा तो दूसरी दफा तुम्हें मेरी गोद में डाला जिससे मैं पूरी की पूरी खुशियों से पूरम्पर हो गई. हाँ, बीच में ईश्वर ने एक और मेहरबानी मुझ पर की, आरुणि को भेजकर. पापा कहते हैं कि आरुणि ऐसा सितारा है, जो चमकेगा तो सिर्फ हमें ही नहीं, सारी दुनिया को उस पर गर्व होगा. मैं नहीं जानती कि वह ऐसा सितारा है भी या नहीं, मगर मेरी यह जबरदस्त चाहत है कि आरुणि ऐसा सितारा जरूर बने और मैं उसकी चमक से चौंधियाई हुई इस दुनिया की हजारों-लाखों ऑंखों को देख सकूँ. यह तो हुई आरुणि की बात. और तुम? कहते हैं कि सितारों से आगे जहाँ और भी है. तुम उसी जहाँ से उतरी मेरे ऑंगन में ठहरी एक प्यारी सी शहजादी हो. जो कली बनकर सिर्फ मेरा घर ही नहीं पूरा संसार महकाएगी. तुम दोनों भाई-बहन हमेशा आगे बढ़ो, इसी उम्मीद पर तो जी रही हूँ मैं.
अभी तुम सो रही हो. दिन भर मुझे तंग करने के बाद अभी तुम आराम से सो रही हो. सिर्फ सो ही नहीं रही हो सपनों में भी खोई हुई हो. जिसमें तुम्हारी अपनी एक अलग दुनिया है. इस दुनिया से अनजान उस दुनिया में डूबी हुई तुम कभी मुस्करा रही हो, कभी रो रही हो. तुम्हारे मुस्कराने से मेरे होंठ भी मुस्कराते हैं और तुम्हारे रोते ही ये सिकुड़ जाते हैं. तुम सोते हुए सपना देख रही हो और मैं जागते हुए देख रही हूँ एक प्यारा सा सपना. तुम्हारे बड़े होने का सपना. तुम्हारी पहली मुस्कान नहीं भूली हूँ मैं. तुम्हारी खिलखिलाहट आज भी गुदगुदाती है मुझे. तुम्हारी एक-एक हरकत देखती ही रह जाती हूँ मैं. लेकिन जब तुम रोती हो, बहुत मनाने पर भी नहीं मानती हो, नींद होने पर भी जागती हो और मुझे सताती हो, तो झुंझलाहट होती है. चिढ़ने लगती हूँ तुमसे. नारांजगी झलक आती है मेरे व्यवहार में. आखिर क्यों सताती हो मुझे?
तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम्हारी माँ
भारती परिमल
साथियो
अन्यूता आज12 वर्ष की है। सातवीं कक्षा की छात्रा है। बहुत ही प्यारी है। बिलकुल अपनी माँ की कल्पना को साकार करने वाली। खूब चंचल, पर काम के प्रति गंभीर। मैं तो यही कहूँगा कि उसके अपनी माँ के सारे सपने को साकार कर दिया है। उससे जो भी मिलता है, प्रभावित हो जाता है। उसके बिना तो हम अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकते। वह हमारी प्राण-वायु है। हमारे जीवन का आधार। उसकी माँ की भावनाओं को बिटिया के जन्म के 12 वर्ष बाद आपके सामने ला रहा हूँ। इसके लिए अभी उसकी माँ से अनुमति नहीं ली है। पहले अपने साथियों की प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा, फिर सारी प्रतिक्रियाएँ उसकी माँ को सौंप दूँगा, अनुमति की आवश्यकता ही नहीं होगी।
डॉ. महेश परिमल
सोमवार, 31 अगस्त 2009
मेरी 500वीं पोस्ट
लेबल:
जिंदगी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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500 वीं पोस्ट की बहुत बहुत बधाई ..!!
जवाब देंहटाएं500 वीं पोस्ट की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंदो साल, पांच सैकड़ा पूरा करने की बधाई।
जवाब देंहटाएं