मंगलवार, 25 अगस्त 2009
टीवी, हम और जंकफूड लेने वाले हिंसक बच्चे
डॉ. महेश परिमल
हम लगातार देख, पढ़ और सुन रहे हैं कि आजकल बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। कुछ लोग जमाने को दोष देकर चुप हो जाते हैं, कुछ इसे संस्कारों का दोष मानते हैं, कुछ लोग इसके लिए पालकों को दोषी ठहराते हैं। समाजशास्त्री कुछ और ही सोचते हैं। वैज्ञानिक इसे जींस या हार्मोन में बदलाव की बात करते हैं। पर सबसे आवश्यक और गंभीर ेबात पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा रहा है। कहाँ से आई बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति? क्यों होते हैं वे आक्रामक? आखिर क्या बात है कि वे अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाते? कहीं कुछ तो है, जो हमें दिखाई देते हुए भी नहीं दिख रहा है। आखिर क्या है ऐसा, कौन है दुश्मन, जो सामने होकर भी हमें दिखाई नहीं दे रहा है और हम उसका प्रहार झेल रहे हैं। आइए एक प्रयास तो करें कि आखिर कौन है हमारा दुश्मन...
एक तो घर में आकाशीय चैनल से जो ज्ञान वर्षा हो रही है, वह हमारी कमजोरी बनती जा रही है। जी हाँ घर में केबल के माध्यम से आजकल टीवी पर जो कुछ परोसा जा रहा है, वह चिंतनीय है। इससे बच्चों का ज्ञान इतना अधिक बढ़ गया है कि कई बार माता-पिता को भी शर्मसार होना पड़ता है। दूसरी ओर जिस पर कम लोग ही ध्यान दे पाते हैं, वह है बच्चों का खान-पान। बच्चे दिन भर कुछ न कुछ खाते रहते हैं। उन्हें खाने से तो कोई रोक नहीं सकता। पर वे क्या खा रहे हैं, इस ओर तो ध्यान दिया ही जा सकता है। घर में अक्सर माताएँ बच्चों को बार-बार कुछ देने में आलस कर जाती हैं और उन्हें कभी मेगी, तो कभी पेस्टीज, कभी चिप्स, कभी कुरकुरे, कभी कुछ आदि खरीदकर लाने को कहती हैं, बस यही उनसे चूक हो जाती है। यही वे चीजें हैं,जो बच्चों के स्वभाव को बदल रहीं हैं। इन चीजों में स्वाद तो है, पर सात्विकतता नहीं है। बच्चे केवल स्वाद ही देख रहे हैं, सात्विकता की जाँच कर पालकों का काम है। जो वे नहीं कर पा रहे हैं। बच्चे इन्हीं चीजों के आदी हो रहे हैं और हम उनके हिंसक होने का कारण खोज रहे हैं।
ब्रिटिश जरनल हमें याद दिलाता है कि आज बच्चों के हिंसक होने के पीछे उपरोक्त कारण जवाबदार हैं। इसलिए कुछ संवेदनशील पालकों ने अपने बच्चों को टीवी के हिंसक कार्यक्रमों से दूर रखने की कोशिश की है। वे उन्हें कार्टून नेटवर्क देखने की छूट देते हैं। यहाँ भी यही छूट जी का जंजाल बन जाती है। कार्टून कार्यक्रमों के दौरान बीच-बीच में जो विज्ञापन दिखाए जाते हैं, उनमें अधिकांश विज्ञापन फास्ट फूड एवं जंक फूड के होते हैं। इन्हीं विज्ञापनों के कारण कोई बच्चा मेग्गी तो कोई मेकडोनाल्ड का दीवाना बन जाता है। यही जंक फूड है, जो उसे लगातार हिंसक बना रहा है। ब्रिटेन के 'आर्काईव्स ऑफ पेडियाट्रिक्स एंउ एडोलसंट मेडिसीनÓ के एक सर्वेक्षण के अनुसार बच्चे एक घंटे टीवी देखते हैं, तो उसके एवज में वे 167 किलोकेलोरी जितना अधिक आहार ग्रहण करते हैं। यह अधिक केलोरी अधिकांश जंक फूड के रूप में होती है। विदेशों में सइ तरह से टीवी देखकर लेने वाले आहार को 'टीवी डायटÓ कहा जाता है। यही डायट है, जो बच्चों को हिंसक बना रही है। अब तो वैज्ञानिक भी इसे मानने लगे हैं। ब्रिटेन के 11 से 15 वर्ष की उम्र के 24 प्रतिशत लड़के और 27 प्रतिशत लड़कियां मोटापे का शिकार हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि ये सभी बड़े होकर डायबिटिस के शिकार होंगे और कदाचित 50 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मर भी जाएं।
जर्नल ऑफ एन्वायर्नमेंटल न्यूट्रीशल मेडिसीन नाम के सामयिक में प्रकाशित एक आलेख में बताया गया है कि आहार और मन के बीच संबंध जानने के लिए अमेरिका की एक जेल में बाल कैदियों पर एक प्रयोग किया। अमेरिका की सरकार द्वारा 13 से 17 वर्ष तक के बाल कैदियों को जो खुराक दी जाती थी, वह करीब जंकफूड की तरह ही होती थी। उसमें शरीर के पोषण के लिए आवश्यक लौह, मैग्नेशियम, जस्ता, विटामिन बी जैसे 12 तत्व पर्याप्त मात्रा में थे। उसके कारण इन बालकैदियों का व्यवहार अत्यंत हिंसक हो जाता था। वे जेल के अंदर में अपनों से झगडऩे लगते थे। मनोचिकित्सकों ने इनमें से 50 प्रतिशत बाल कैदियों को इन सारे तत्वों की गोलियाँ दीं और शेष 50 प्रतिशत को प्लेसिबो के रूप में पहचानी जाने वाली नकली गोलियाँ दी गईं। जिन बच्चों को असली गोली दी गईं थी, उसमें से 80 प्रतिशत बच्चों के हिंसक व्यवहार में असरकारक सुधार दिखाई दिया। दूसरी ओर प्लेसिबो लेने वाले 56 प्रतिशत बच्चों में सुधार के लक्षण दिखाई दिए। इसके विपरीत जिन बच्चों ने यह गोलियाँ लेने से इंकार किया था, उनके व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं देखा गया।
इस प्रयोग से मनोचिकित्सक इस नतीजे पर पहुंचे कि जो बच्चे जंकफूड ग्रहण करते हैं, उन्हें आवश्यक खनिज नहीं मिलने से उनका व्यवहार हिंसक हो जाता है। ब्रिटिश जर्नल ऑफ साइक्रियाट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार ब्रिटेन की जेल में बंद अपराधियों को जब विटामींस, मिनरल्स और फेटी एसिड के सप्लिमेंट वाला आहार दिया गया तब उसमें से 26 प्रतिशत अपराधियों के व्यवहार में सुधार के लक्षण दिखाई दिए।
इंसान के मस्तिष्क को जब तक आवश्यक तमाम पौष्टिक तत्व नहीं मिलेंगे, तब तक उनका दिमाग ठीक से काम नहीं करेगा। आज हमारे समाज में जो मानसिक बीमारी बढ़ रही है, उसके पीछे यही बिगड़ी हुई आहार नीति दोषी है। आज जो महिलाएँ अपना वजन कम करने के लिए जिस तरह से भूखे रहतीं हैं, उससे उनके शरीर को आवश्यक तत्व नहीं मिल पाते। इसलिए वे महिलाएँ बहुत ही जल्द डिपे्रशन का शिकार बनतीं हैं। जंकफूड खाने वाली और डायटिंग करने वाली कई मॉडलों और टीवी अभिनेत्रियों की मौत की खबर कुछ माह पहले सुर्खियों में थीं। अपनी आहार की आदतों के कारण आज हमारा समाज एक विशाल पागलखाने के रूप में रूपांतरित हो रहा है। यदि हमें सही आहार चाहिए, तो वह हमें हमारे रोज के भोजन जैसे दाल, भात, रोटी, सब्जी में ही मिलेगा। इसी में हैं वे सारे आवश्यक तत्व, जो शरीर को चाहिए। हम नाहक ही अन्य खाद्य सामग्री की ओर भाग रहे हैं। इसे भोजन के रूप में लेने से शरीर को आवश्यक तत्व मिल जाते हैं। इससे शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ रहता है। इसके खिलाफ आज हम पावभाजी, पिज्जा, हेमबर्गर, सेंडविच, आइस्क्रीम, कोला डिकंस, बे्रड, बिस्किट्स, चॉकलेट, वेफर्स, चिप्स, केक आदि बिना कार्बोहाईड्रेड वाली चीजें ग्रहण करते रहे हैं, इससे शरीर को पूरा पोषण नहीं मिलता और मस्तिष्क बात-बात में उत्तेजना की ओर बढ़ता है।
आजकल टीवी में जितनी भी चीजों का विज्ञापन दिखाया जा रहा है। उसमें से अधिकांश नुकसानदेह ही है। जो इंसान इन चीजों के बिना जी सकता है, उससे सुखी इंसान कोई नहीं हो सकता। साबुन, शेम्पू, टूथपेस्ट, फ्रीज, वाशिंग मशीन, पेनकीलर्स, मोबाइल, अगरबत्ती, कार, टू व्हीलर्स, माइक्रोवेव, होम थिएटर, डीवीडी प्लेयर, इम्पोर्टेट फर्नीचर, डिटर्जेंट, मच्छर कास्मेटिक्स, बीमा पॉलिसी, एस्प्रो की गोली, टेलल्कम पावडर, डियोडरंट, अंडरगारमेंट्स आदि चीजें न हों, तो आज हमारी बहुत ही ज्यादा सुखमय हो जाए। स्वस्थ और सुखी जीवन जीने के लिए जिन चीजों की हमें आवश्यकता है, उसका विज्ञापन कभी कहीं नहीं देखने को मिलता। टीवी पर बेकार की चीजें बार-बार दिखाकर यह बताने की कोशिश की जा रही है कि यह हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसे खरीदना हमारा धर्म है, इसके बिना हमारा जीवन कभी सुखी नहीं रह सकता। जिसे इन चीजों की आवश्ययकता नहीं, वही इंसान सबसे अधिक सुखी है।
इस प्रयोग से मनोचिकित्सक इस नतीजे पर पहुंचे कि जो बच्चे जंकफूड ग्रहण करते हैं, उन्हें आवश्यक खनिज नहीं मिलने से उनका व्यवहार हिंसक हो जाता है। ब्रिटिश जर्नल ऑफ साइक्रियाट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार ब्रिटेन की जेल में बंद अपराधियों को जब विटामींस, मिनरल्स और फेटी एसिड के सप्लिमेंट वाला आहार दिया गया तब उसमें से 26 प्रतिशत अपराधियों के व्यवहार में सुधार के लक्षण दिखाई दिए।
इंसान के मस्तिष्क को जब तक आवश्यक तमाम पौष्टिक तत्व नहीं मिलेंगे, तब तक उनका दिमाग ठीक से काम नहीं करेगा। आज हमारे समाज में जो मानसिक बीमारी बढ़ रही है, उसके पीछे यही बिगड़ी हुई आहार नीति दोषी है। आज जो महिलाएँ अपना वजन कम करने के लिए जिस तरह से भूखे रहतीं हैं, उससे उनके शरीर को आवश्यक तत्व नहीं मिल पाते। इसलिए वे महिलाएँ बहुत ही जल्द डिपे्रशन का शिकार बनतीं हैं। जंकफूड खाने वाली और डायटिंग करने वाली कई मॉडलों और टीवी अभिनेत्रियों की मौत की खबर कुछ माह पहले सुर्खियों में थीं। अपनी आहार की आदतों के कारण आज हमारा समाज एक विशाल पागलखाने के रूप में रूपांतरित हो रहा है। यदि हमें सही आहार चाहिए, तो वह हमें हमारे रोज के भोजन जैसे दाल, भात, रोटी, सब्जी में ही मिलेगा। इसी में हैं वे सारे आवश्यक तत्व, जो शरीर को चाहिए। हम नाहक ही अन्य खाद्य सामग्री की ओर भाग रहे हैं। इसे भोजन के रूप में लेने से शरीर को आवश्यक तत्व मिल जाते हैं। इससे शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ रहता है। इसके खिलाफ आज हम पावभाजी, पिज्जा, हेमबर्गर, सेंडविच, आइस्क्रीम, कोला डिकंस, बे्रड, बिस्किट्स, चॉकलेट, वेफर्स, चिप्स, केक आदि बिना कार्बोहाईड्रेड वाली चीजें ग्रहण करते रहे हैं, इससे शरीर को पूरा पोषण नहीं मिलता और मस्तिष्क बात-बात में उत्तेजना की ओर बढ़ता है।
आजकल टीवी में जितनी भी चीजों का विज्ञापन दिखाया जा रहा है। उसमें से अधिकांश नुकसानदेह ही है। जो इंसान इन चीजों के बिना जी सकता है, उससे सुखी इंसान कोई नहीं हो सकता। साबुन, शेम्पू, टूथपेस्ट, फ्रीज, वाशिंग मशीन, पेनकीलर्स, मोबाइल, अगरबत्ती, कार, टू व्हीलर्स, माइक्रोवेव, होम थिएटर, डीवीडी प्लेयर, इम्पोर्टेट फर्नीचर, डिटर्जेंट, मच्छर कास्मेटिक्स, बीमा पॉलिसी, एस्प्रो की गोली, टेलल्कम पावडर, डियोडरंट, अंडरगारमेंट्स आदि चीजें न हों, तो आज हमारी बहुत ही ज्यादा सुखमय हो जाए। स्वस्थ और सुखी जीवन जीने के लिए जिन चीजों की हमें आवश्यकता है, उसका विज्ञापन कभी कहीं नहीं देखने को मिलता। टीवी पर बेकार की चीजें बार-बार दिखाकर यह बताने की कोशिश की जा रही है कि यह हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसे खरीदना हमारा धर्म है, इसके बिना हमारा जीवन कभी सुखी नहीं रह सकता। जिसे इन चीजों की आवश्ययकता नहीं, वही इंसान सबसे अधिक सुखी है।
वास्तव में टीवी के माध्यम से यह बताने की कोशिश हो रही है कि उसमें विज्ञापित करने वाली चीजें आपके पास नहीं हैं, तो आप प्रगति की दौड़ में सबसे पीछे हैं। आप ही सोचें कि आज से 50 वर्ष पूर्व जब ये चीजें नहीं थीं, तो क्या हम दु:खी थे? विज्ञापनों में दिखाई देने वाली कई चीजें हमारे लिए अनुपयोगी हैं। फिर भी इनका बार-बार दिखाया जाना हमें मानसिक रूप से इनका गुलाम बना रहा है। हम विज्ञापन देखकर चीजें खरीदने के शौकीन हो गए हैं। हमारे बे्रनवॉश हो गया है। यदि गहराई और गंभीरता से इस दिशा में विचार करें, तो कुछ और ही नजारा दिखाई देगा। एक बार विचार की ओर एक कदम तो बढ़ाएँ...
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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