सोमवार, 17 अगस्त 2009

जानलेवा हो सकती हैं नकली दवाएं

साथियो,
नकली दवाए लगातार हमारे स्‍वास्‍थ्‍य को नुकसान पहुंचा रहीं है, पर हम विवश है। आज तक हमारे देश में किसी भी नकली दवा के निर्माता को बहुत बड़ी सजा नहीं हुई है, इसी से पता चलता है कि सरकार दवा माफिया से किस तरह से खौफ खाती है। इनके लिए सरकार का रवैया हमेशा नरम रहा है। मौत तो गरीबों की होती है। आज तक नकली दवा से किसी अधिकारी या मंत्री की संतान की मौत नहीं हुई। आखिर ऐसा क्‍यों।
नकली दवाओं के इस्तेमाल से न सिर्फ कई तरह के साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं, बल्कि यह जानलेवा भी साबित हो सकती हैं, क्योंकि इस तरह की कुछ दवाओं में बीमारी से लड़ने वाले तत्वों की जगह पर खतरनाक पाउडर डले होते हैं तो कुछ दवाएं एक्सपायर्ड होती हैं।
- पुष्पांजलि क्रॉसले हॉस्पिटल के अध्यक्ष डॉ. विनय अग्रवाल कहते हैं कि सबसे पहले तो इन दवाओं से मरीज को कोई फायदा नहीं होता है, क्योंकि इनमें वे चीजें ही नहीं होतीं, जो बीमारी का इलाज करें। ऐसे में इमर्जन्सी में दवा देने के बावजूद मरीज की मौत हो सकती है।
- दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि सही तत्वों की जगह पर इन दवाओं में दूसरे मेटल या मिट्टी जैसे तत्व मिलाए जाते हैं, जिनका स्किन, पेट, किडनी, लीवर आदि पर गलत रिएक्शन होता है। कई बार एनाफायलेक्सिस (अचानक गंभीर रिएक्शन) से मरीज की मौत भी हो सकती है।
- इंडियन मेडिकल असोसिएशन (आईएमए) के प्रवक्ता डॉ. नरेंद्र सैनी कहते हैं कि कई नकली दवाओं में जरूरी तत्व सही मात्रा में नहीं होते हैं, खासतौर से एंटीबायटिक्स में। ऐसे में फायदा तो पूरा होता नहीं है, आगे चलकर शरीर में इनका रेजिस्टेंस भी डिवेलप हो जाता है, जिससे दवा असर नहीं करती।
- नकली दवाओं के सौदागर कई बार एक्पायर्ड दवाएं बेचते हैं, जिनमें से कुछ का असर खत्म हो चुका होता है तो कुछ में टॉक्सिक सब्स्टेंस डिवेलप हो चुका होता है। इसकी वजह से मरीज की मौत भी हो सकती है। इनकी वजह से इलाज के बावजूद मरीज ठीक नहीं होते और डॉक्टर की काबिलियत पर उंगली उठाई जाती है।
- आईएमए का कहना है कि समस्या की मुख्य वजह ड्रग कंट्रोल डिपार्टमंट का ऐक्टिव न होना है। अगर समय-समय पर छापे मार कर दवाओं की जांच की जाती और नकली कारोबार करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होती तो ऐसा नहीं हो पाता।
बाजारों से जल्द हटेगी मर्ज बनी मलेरिया की दवा
सरकार ने देश भर से मलेरिया की दवाई आरटेमाइसीनिन हटाने का फैसला किया है, जिस पर दुनिया भर में पहली ही पाबंदी
लगाई जा चुकी है। कई ब्रांड के तहत देश में बेची जाने वाली यह दवा अगर सिंगल ड्रग के तौर पर इस्तेमाल होती है, तो यह मलेरिया के जीवाणुओं को प्रतिरोधी बना देती है। यह कदम विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की बाजार से इस दवा की मोनो-थेरेपी वापस लेने की सिफारिश जारी करने के दो साल बाद उठाया गया है, जबकि इसे दूसरी प्रभावशाली मलेरिया विरोधी दवाओं के साथ संयोजन के तौर पर उपयोग में लाया जा सकता है।

देश की शीर्ष दवा नियामक संस्था ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने हाल में सभी प्रदेश दवा नियामकों को जुलाई 2009 तक आरटेमाइसीनिन की सभी ओरल सिंगल ड्रग फॉर्मूलेशन और उसके डेरिवेटिव को हटाने के निर्देश दिए थे।
डीसीजीआई डॉ. सुरिंदर सिंह ने कहा, 'इस दवा को अब नया ड्रग नहीं माना जाता, इसलिए कंपनियां प्रदेश दवा नियामकों से दवा बनाने और बेचने के लिए लाइसेंस हासिल कर लेती हैं। इसलिए हमने सभी प्रदेश दवा नियामकों को निर्देश जारी किए हैं कि इस दवा के लिए नए लाइसेंस जारी न किए जाएं। साथ ही पहले बांटे गए लाइसेंस भी वापस ले लिए जाएं।'

डब्ल्यूएचओ ने जोर दिया था कि आरटेमाइसीनिन को किसी दूसरी मलेरिया रोधी दवा के साथ मिलाकर दिया जाना चाहिए, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता और इसे मोनोथेरेपी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है तो यह दवा जल्द ही मलेरिया के जीवाणुओं में प्रतिरोधी क्षमता पैदा कर देती है। मलेरिया रोधी दवा आरटेमाइसीनिन और उसके डेरिवेटिव आरटेसुनेट तथा आरटेमेथर को पहले देश में इंजेक्टेबल और टेबलेट, दोनों तरह से उत्पादन और बिक्री की इजाजत दी गई थी।
आईपीसीए लैबोरेट्रीज, जायडस कैडिला, पिरामल हेल्थकेयर और इंडस्विफ्ट जैसी फार्मास्युटिकल कंपनियों ने लारिथेर, पालुथेर, मालीथेर और मालथेर जैसे अपने लोकप्रिय ब्रांड के तहत आरटेमाइसीनिन दवा बेचती आई हैं। हालांकि, इनमें से ज्यादातर कंपनियों का दावा है कि उन्होंने डब्ल्यूएचओ की सिफारिश के बाद पहले ही एकल इंग्रीडिएंट के तौर पर यह दवा बनानी बंद कर दी गई है। केमिस्ट और फार्मासिस्ट के मुताबिक इनमें से ज्यादातर कंपनियों ने दूसरी मलेरिया रोधी दवा के साथ आरटेमाइसीनिन लॉन्च की थी, जबकि इनमें से कुछ ब्रांड अब भी बाजार में बने हुए हैं।
मेडिकल विशेषज्ञ सी एम गुलाटी ने कहा, 'जब तक आधिकारिक पाबंदी की घोषणा नहीं की जाती और रेगुलेटर मार्केटिंग लाइसेंस जारी करना नहीं रोकते, तब तक कंपनियां दवाएं बेच सकती हैं। एकल इंग्रीडिएंट के तौर पर इस दवा को इस्तेमाल करने से मरीजों को गंभीर नुकसान हो सकता है। भारतीय दवा नियामक को इस दवा पर काफी पहले पाबंदी लगा देनी चाहिए थी।'
मलेरिया सदियों से भारत की समस्या रही है। साठ के दशक में यह बीमारी लगभग पूरी तरह खत्म हो गई थी, लेकिन मेडिकल जानकारों का कहना है कि यह दोबारा सिर उठा रही है। भारत ने 1977 से 1997 के बीच स्वास्थ्य बजट का 25 फीसदी हिस्सा मलेरिया पर खर्च किया था और 1997 से देश ने मलेरिया की रोकथाम के लिए 4 करोड़ डॉलर खर्च करने की योजना बनाई है।

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