भारती परिमल
शाम को सभी कामों से फुरसत पाकर अपना बनाव- कर पिया की यादों में खोई कोई सजनी अपने पिया का इंतजार करती हो और पिया न आए, तो उस साजन की सजनी का क्या हाल होगा? $जाहिर है कि पहले तो वह नारा$ज होगी और मन ही मन पति को बुरा-भला कहेगी। सोचेगी कि आएँगे, तो अपनी नारा$जगी $जाहिर करते हुए डाटूँगी। मगर जब इंतजार लम्बा हो जाता है, तो इसी सजनी का मन आशंकाओं से घिर जाता है। पति के घर में कदम रखते ही डाँट से उनका स्वागत करने का सोचती सजनी ईश्वर से यह प्रार्थना करती है कि बस वे सही सलामत घर आ जाएँ।
शादी के तुरंत बाद अक्सर ऐसा होता है कि पति समय पर अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं और ड्यूटी पूरी होते ही घर का रू$ख करते हैं। इसे एक दूसरे के प्रति आकर्षण भी कहा जा सकता है। यह सच भी है। शुरूआत में एक दूसरे को समझने की लालसा, एक दूसरे से बहुत कुछ पाने की चाहत होती है। बस इसी रूमानी प्यार में खिंचा पति ड्यूटी खत्म होते ही घर दौड़ा चला आता है। सजनी कभी खिड़की के पास खड़ी परदे की ओट से राह तकती है, तो कभी दरवाजे पर मूर्ति बनी खड़ी होती है। प्रियतम भी इस घड़ी का इंतजार करता हुआ दौड़ा चला आता है। मगर धीरे-धीरे इस दिनचर्या में बदलाव आने लगता है। सायं जल्दी घर लौटने वाला पति अब ड्यूटी खत्म होते ही अपनी शाम, फुरसत का समय यार-दोस्तों के साथ बिताना पसंद करता है। इसका अर्थ यह नहीं कि अब प्यार का जोश ठंडा हो गया या फिर पति-पत्नी के बीच अब पहले जैसा आकर्षण न रहा।
दोनों के बीच अब भी वही चाहत और अपनापन होता है। यदि बदल जाती है, तो बस दिनचर्या। पति अन्य बातों, अन्य जिम्मेदारियों पर भी ध्यान देने लगता है। यह अच्छी बात है। ऐसा होना भी चाहिए। मगर कभी-कभी वह अन्य कत्र्तव्यों की ओर इतना झुक जाता है कि घर की अन्य जिम्मेदारियों से विमुख हो जाता है। ऐसे में पत्नी यह सोचती है कि अब पति उन्हें पहले सा प्यार नहीं करते। उनका रोज-रोज देर से घर लौटना उसकी सोच को यकीन में बदल देता है। फिर शुरू होती है छोटी-छोटी तकरार जो तनाव पैदा करती है। मानसिक तनाव से घिरे पति-पत्नी एक-दूसरे से दूर चले जाते हैं। घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है। इसका पहला प्रभाव स्वयं के स्वास्थ्य पर पड़ता है। ऐसे में यदि घर में दो-चार दिन के लिए मेहमान आ जाएँ, तो न तो उनका स्वागत करते बनता है, न ही स्थिति सामान्य हो पाती है। फिर लोगों की तो आदत होती है न तिल का ताड़ बनाने की।
अक्सर रात देर से घर लौटने पर मासूम लाडलों को भी सोता हुआ ही पाया जाता है। दिन भर खेलते-खेलते, मटरगश्ती करते, स्कूल का होमवर्क करते, मम्मी की डाँट और प्यार का परिचय पाते ये नन्हें, पापा के आने पर उनसे अपनी आपबीती कहने के सपने बुनते पापा से बिना मिले ही नींद की आगोश में सो जाते हैं। फिर सुबह स्कूल का स$फर तय करते हैं। ऐसे में उन्हें पापा से प्यार कम ही मिल पाता है। उन बच्चों की हालत तो और भी दयनीय होती है, जिनके पिता अक्सर दौरे पर रहते हैं। ऐसे में बच्चे पिता के प्यार से वंचित रह जाते हैं।
ये मासूम यह नहीं जानते कि उनके पिता की यह व्यस्तता उन्हीं के सुखद भविष्य के लिए ही है। भविष्य को सुंदर बनाने के लिए ही उनके पिता की आँखे कच्चे-पक्के सपने बुन रही है और वे उनके लिए दिन-रात एक कर मेहनत कर रहे हैं। दुनियादारी की यह कड़वी सच्चाई इन मासूमों की समझ से परे होती है। वे तो बस अपने बचपन में अपनों का साथ चाहते हैं। ये साथ माँ के रूप में तो उन्हें मिल जाता है, पर वे अधूरा साथ नहीं चाहते। वे तो अपनी मासूम मुस्कराहट, उन्मुक्त खिलखिलाहट में मम्मी-पापा दोनों का साथ चाहते हैं। पापा का रोज रात को देर से घर लौटना, कई दिनों तक घर से बाहर दौरे पर रहना, यह सब उन्हें भीतर से तोड़ देता है। फिर पापा के घर में रहने पर भी वे यह देखते हैं कि मम्मी पापा के बीच झगड़े हो रहे हैं, तो इस मानसिक तनाव के बीच बच्चे भी तनाव में घिर जाते हैं। ऐसे में बच्चा यदि एकाकी हो जाए या गलत राहों पर चला जाए, तो यह कोई आश्चर्य नहीं।
बात छोटी सी है मगर है बहुत गंभीर। दाम्पत्य जीवन पति-पत्नी के आपसी प्रेम और विश्वास के म$जबूत खम्भों पर टिका होता है। परिवार में होने वाली छोटी-छोटी तकरार और उनका बच्चों के दिमाग पर पड़ता प्रभाव आदि बातें इन खम्भों को खोखला करने में दीमक का काम करती है।
रेणु इस दिन शाम को राहुल का इंतजार करती रह गई। वह कहकर गया था कि शाम को कुछ खरीदारी करनी है, तो तुम तैयार रहना। रेणु अपने काम निपटा कर तैयार होकर राहुल का इंतजार करने लगी। उसका इंतजार रात 9 बजे खत्म हुआ। उसे राहुल पर गुस्सा भी आ रहा था और बुरी शंका से मन घबरा भी रहा था। ऊपर से राहुल न ऑफिस में था न ही उसका मोबाईल काम कर रहा था। अब रेणु करे तो करे क्या? इसी ऊहापोह में रात के 9 बज गए। मगर जब राहुल ने घर आते ही यह कहा कि मैं तो भूल ही गया था, तो वह खीज उठी। एक तो रेणु कई दिनों से फिल्म देखने या कहीं घूमने जाने का कह रही थी और ऊपर से राहुल की यह सफाई। उसका गुस्सा तो सातवें आसमान तक पहुँच गया। उसने राहुल को खूब बुरा-भला कहा। बदले में राहुल के अहम् पर चोट पहुँची, तो वह तिलमिला उठा। दोनों के बीच दो-दो बातें हो ही गई। रात का खाना यूँ ही पड़ा रहा और दोनों भूखे ही सो गए। मगर रेणु का गुस्सा इस पर भी शांत नहीं हुआ, उसने दो दिन तक राहुल से बात नहीं की। यहाँ गलती रेणु की है। उसे बात को रबड़ की तरह इतना नहीं खींचना चाहिए था कि चोट उसे ही लगे। क्योंकि राहुल तो फिर अपने यार-दोस्तों में घिर गया। अकेलापन तो रेणु को मिला।
शरद रोज देर रात घर लौटता और अपनी काम लोलुपता शांत कर सो जाता। उसे न बच्चों से मतलब था और न ही पत्नी की अन्य $जरूरतों से। ऐसे में गिरिजा ने उसे एक मतलबी इंसान समझा। उसे समझाने की कोशिश भी की मगर शरद को घर के प्रति उसका कर्तव्य समझा न सकी। फिर यह सोच कर कि शरद को घर के हालात को लेकर चिंता है, उसने भी सर्विस करना शुरू कर दिया। मगर शरद पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वह तो दौलत को जमा करने में, अपने स्टेटस को बनाने के नशे में ही मदहोश था। इस मदहोशी में वह घर से दूर हो गया। इतना दूर कि सर्विस करती गिरिजा जब पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गई और उसे लगा कि वह बच्चों की जिम्मेदारी उठा सकती है, तो वह शरद से अलग हो गई और कानूनी तौर पर उसने शरद से तलाक ले लिया।
ये सब मात्र उदाहरण नहीं, हकीकत है - घरोंदों के तिनका-तिनका बन बिखरने की, परिवारों के टूटने की सच्चाई है। यह टूटन, बिखरन तनावों से शुरू होती है और पूरी जिंदगी को तनाव का सैलाब बना देती है। इस सैलाब में डूबती-उतरती जिंदगी एक बोझ बन जाती है, मगर इंसान इसे जीने पर लाचार रहता है।
जिस तरह बूँद-बूँद से सागर बनता है, पत्थर-पत्थर से पहाड़ बनता है, उस तरह छोटी-छोटी समस्याएँ तनावों का जाल बुनती हैं। इन जालों को काटकर फेंक दीजिए। किसी ने कहा है कि जिंदगी लम्बी नहीं बड़ी होनी चाहिए। उसमें खुशियों का, प्रेम का, उदारता का, आपसी मेलजोल का बड़प्पन होना चाहिए। इसलिए कम जीयो मगर प्रेम से जीयो का मंत्र अपनाकर जिंदगी को खूबसूरत बनाना चाहिए। यही समय की मांग है। यदि इसे न स्वीकारा गया, तो सचमुच इंतजार की इंतेहा हो जाएगी।
भारती परिमल
बुधवार, 2 सितंबर 2009
कहीं इंतजार की इंतेहा न हो जाए
लेबल:
आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें