गुरुवार, 17 सितंबर 2009
बरसों से आखिर क्यों उपेक्षित है असम
डॉ. महेश परिमल
भारत के भाल पर कई ऐसे घाव हैं, जो किसी विदेशी के प्रहार से नहीं, बल्कि हमारे ही प्रहार से हुए हैं। देश में आतंकवादी घटनाएँ लगातार बढ़ रहीं हैं, आतंकवाद एक भयावह सपने के रूप में हमारे सामने ही पल-बढ़ रहा है। लेकिन देश का कानून इतना लचीला है कि आतंकवादी साफ बच निकलते हैं। आतंकवादी हमले में हमेशा आम आदमी मारे जाते हैं। लेकिन मूल समस्या पर किसी का ध्यान नहीं जाता। असम बरसों से जल रहा है, लेकिन हमारे नेताओं की उसकी याद केवल चुनाव के समय आती है। यह गर्व की बात है कि हमारे देश के प्रधानमंत्री असम का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसके बाद भी असम अािखर उपेक्षित क्यों है?
देश के लिए इससे शर्मनाक बात और क्या होगी कि असम का एक कांगे्रस सांसद मूल रूप से बंगला देशी है। उसकी पत्नी कई बार सीबीआई को यह कह चुकी है कि उनके पति बंगलादेशी हैं, वे देशद्रोही गतिविधियों में संलग्न हैं। इसके बाद भी आज तक उक्त कांगे्रसी सांसद का बाल भी बाँका नहीं हुआ। आखिर क्या कारण है, क्यों कानून के लंबे हाथ उस सांसद तक नहीं पहुँच पाते? कहाँ विवश है पुलिस और सरकार? इसका जवाब शायद हमारे प्रधानमंत्री के पास भी नहीं है।
असम में हर दूसरे या तीसरे दिन एक आतंकवादी हमला होता है। लोग मारे जाते हैं। पुलिस पूछताछ होती है, नेताओं के कथित बयान आते हैं। बस फिर सब कुछ पहले जैसा। केंद्र सरकार को इतनी फुरसत नहीं है कि बरसों से जल रहे असम की आग को शांत करने का प्रयास करे। इस राज्य में सन् 2007 के 365 दिनों में 248 आतंकवादी हमले हुए। 2008 में 207 आतंकवादी हमले हुए। इस वर्ष के शुरू के 5 महीनों में 221 आतंकवादी हमले हो चुके हैं। इस राज्य में हुए आतंकवादी हमलों में 2007 में 132, 2008 में 93 और इस वर्ष के शुरू के 5 महीनों में कुल 82 आम आदमी मारे गए हैं। इतने हमले और इतनी मौतों के बाद भी कहीं कोई जुंबिश नहीं, आंदोलन नहीं, धरना नहीं और न ही आतंकवादियों पर कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश। आखिर क्या हो गया है, इस देश के नेताओं और आम आदमी को?
अभी पिछले सप्ताह ही दिल्ली में मुख्यमंत्रियों और राज्यों के डायरेक्टर जनरल्स ऑफ पुलिस की बैठक में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम दोनों ने एक खास बात कही कि पाकिस्तान में रहने वाले आतंकवादी गुट भारत में एक और आतंकवादी हमले की तैयारी में हैं। इन दोनों नेताओं ने यह भी कहा कि पाकिस्तान, बंगलादेश, चीन और नेपाल पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवादी गुटों को प्रश्रय दे रहे हैं। पाकिस्तान में बैठे जेहादी गुटों के बजाए पूर्वोत्तर राज्यों के असंतुष्ट अधिक खतरनाक साबित हो सकते हैं।
हमारे देश में जब भी कोई आततायी आया है, तो उसे देश में ही किसी न किसी जयचंद का सहारा मिला है। फिर चाहे वे मुगल हों या फिर अँगरेज। बाहर से आने वाले किसी भी बाहुबलि ने अपने शौर्य से दस देश में कब्जा नहीं किया है। कब्जा करने के पहले उसे हमारे ही देश के कुछ असंतुष्टों का सहारा मिला। हमला उसके बाद ही हुआ। यह इस बात की ओर ध्यान दिया जाए, तो स्पष्ट होगा कि पूर्वोत्तर राज्यों में जिस तरह से आतंकवाद पैर पसार चुका है। उससे यही लगता है कि इन आतंकवादी गुटों को अपने ही लोगों का संरक्षण प्राप्त है। हमारी सेना एक तरफ दुश्मनों से लड़ रही है, दूसरी तरफ इन घर के दुश्मनों से। असम में बंगलादेशी घुसपैठिए बरसों से अपना काम कर रहे हैं। उनके राशन कार्ड तक बन गए हैं, वोटर लिस्ट में भी उनका नाम आ गया है। फिर भी न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार ने इस ओर ध्यान दिया।
असम का सवाल काफी पुरानी है। जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब फखरुद्दीन अली अहमद राष्ट्रपति थे। इन दोनों पर यह आरोप लगाया गया था कि असम समस्या की ओर इन्होंने ध्यान नहीं दिया। इंदिरा जी के समय ही उल्फा का गठन हो चुका था। उस समय शायद किसी ने कल्पना ही नहीं की होगी कि यह उल्फा एक दिन अल कायदा जेसे आतंकवादी गुट का प्यादा बन जाएगा। आज असम में करीब 8 आतंकवादी गुट सक्रिय हैं। उल्फा के बाद कई और गुट सामने आए हैं। जो इस प्रकार हैं:- कर्बी लोंगरी एनसी हिल्स लिबरेशन फ्रंट (एलएनएलएफ),ऑल आदिवासी नेशनल लिबरेशन फ्रंट, दीमा हालम दाओगा (ज्वेल) उर्फ ब्लेक वीडो, कुकी रिवोल्यूशन आर्मी, ह्मार पीपल्स कंवेंशन (डेमोके्रटिक), मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑप असम और हरकत उल मुजाहिदीन। इसके बाद दूसरे अन्य चार गुट हैं:- यूनाइटेड पीपल्स डेमोक्रेटिक सोलिडेरिटी, आदिवासी कोब्रा मिलटंट फोर्स, बिरसा कमांडो फोर्स और दिलीप नुनीसा फेक्शन (डीएचडी)।
ये आतंकवादी गुट हताश होकर हिंदीभाषी मजदूरों को मार डालते हैं। कए देशवासी दूसरे देशवासी को मार डालता है। सरकार खामोश है। वोट की राजनीति के चलते कोई कुछ नहीं कहता। जब हिंदीभाषी मजदूरों को मार डालने की घटनाएँ जोर पकड़ती हैं, तब मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे नेता अपने वोट बैंक की खातिर उग्र आंदोलन की धमकी देते हैं, अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर उत्तेजक भाषण करते हैं, लेकिन उसके बेाद कुछ ऐसा नहीं होता, जिससे उन हिंदीभाषी मजदूरों की रक्षा हो सके। आज तक असम के उग्रवादी गुटों से ऐसी कोई बातचीत नहीं हो पाई है, जिसे सफल कहा जा सके। एक तरफ पाकिस्तान, बंगला देश सरकार से बार-बार बातचीत की जाती है, पर देश के ही उग्रवादी गुटों की उपेक्षा की जाती है।
असम ही नहीं, आजकल देश के नेता इंटरनेट का सहारा लेकर कुछ भी बकवास करने लगे हैं। हाल में तेलंगाना के नेता चंद्रशेखर ने कहा है किे हम जम्मू-कश्मीर में हिंसक आंदोलन शुरू करने जा रहे हैं। एक वेबसाइट में एक अनाम आलेख में यह कहा गया है कि भारत के 25-30 टुकड़े कर दिए जाने चाहिए। इस तरह के उत्तेजक बयानों और आलेखों को लेकर दिल्ली सरकार खामोश रहती है। आखिर क्यों होता है ऐसा? क्यों उपेक्षित है असम? क्यों कोई कुछ नहीं करता? क्या सब-कुछ ऐसे ही चलता रहेगा?
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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