मंगलवार, 22 सितंबर 2009
सपना सुनसान संसार का.....
डॉ. महेश परिमल
इन दिनों सभी शहरों का ध्वनि प्रदूषण बुरी तरह से बढ़ गया है। शोर....शोर.......और केवल शोर। न जाने लोग शोर में आखिर क्या ढँूढ़ते हैं? ऐसा क्या है शोर में, जो हमें प्रसन्नता देता है? हर कोई अधिक से अधिक शोर करने के लिए उतावला है। उसने दुर्गा पूजा में दस स्पीकर लगाएँ हैं, तो हम क्यों पीछे रहें, हम तो बीस लगाएँगे। ये कैसी स्पर्धा है, जिससे लोगों का चैन ही छिन गया है। दुर्गा जी की प्रतिमा की स्थापना कर दी, बस हो गया काम। स्पीकरों से निकलने वाली ध्वनि हमें किस तरह से नुूकसान पहुँचा रही है, जानने की कोशिश की है कभी किसी ने? सौ-सौ मीटर की दूरी पर एक प्रतिमा। वहाँ तक पहुँचने का रास्ता ऊबड़-खाबड़, पर इससे क्या, जिसे आना है, वह तो आएगा ही। रास्ता बनाने की जिम्मेदारी हमारी तो है ही नहीं। हमें तो केवल शोर करना आता है। हम तो शोर करेंगे, कर लो जो करना है। इतने स्पीकर के लिए बिजली भी हमने सीधे खंभे से ले ली है, आप क्या कर लेंगे। विद्युत विभाग के अधिकारी दुर्गा जी के भक्त हैं, वे कुछ नहीं करेंगे।
मुश्किल तब और बढ़ जाती है, जब हम कव्वाल भक्ति गीत गाने लगते हैं। इस गीत में भक्ति कहीं नहीं होती, होती है तो केवल चीख और चिल्लाहट। कैसे सुन लेते हैं, हम इन भक्ति गीतों को। बच्चों की परीक्षाएँ हैं, घर में बीमार माँ हैं, दादा भी इस शोरगुल से परेशान हैं। पिताजी को शोर से एलर्जी है। थोड़ा सा भी शोर उन्हें विचलित कर देता है। अभी कुछ दिनों पहले ही वे एक थेरेपी लेने जा रहे थे। थेरेपी से उन्हें लाभ भी हो रहा था। पर मुश्किल भी काफी थी। थेरेपी से लाभांवित लोग रोज वहाँ माइक पर अपने अनुभव सुनाते थे, जो पिताजी को पसंद नहीं था। एक सप्ताह में उन्हें अपनी पीड़ा से आराम तो लग रहा था, पर शोर के कारण सरदर्द बढ़ गया। उन्होंने वहाँ जाना ही छोड़ दिया। पिताजी कह रहे थे कि यदि कुछ दिन और गया होता, तो निश्चित रूप से मैं पागल हो गया होता।
क्या शोर करने वालों को मालूम नहीं है कि उनके द्वारा उत्पन्न शोर किसी को हानि भी पहुँचा रहा है। ऐसे में भक्ति नहीं जागती, इन शोर करने वालों की पिटाई करने की इच्छा होती है। पुलिस कुछ नहीं कर सकती। मामला धार्मिक है। सरकार कुछ नहीं कर सकती, मामला वोट का है। तो फिर कौन करेंगा? मोहल्ले के वरिष्ठ लोग भी उक्त दुर्गोत्सव समिति में हैं। पार्षद तो स्वयं चंदा माँगने आए थे। वे भला क्या कर सकते हैं। आप को शोर पसंद नहीं आपकी बला से। ध्वनि प्रसारक यंत्रों पर सरकार ने रोक लगाई होगी, हमें तो नहीं मालूम। यदि पुलिस आती है, तो उससे हम निपट लेंगे, आपका काम केवल चंदा देना है। आप कान में रुई ठूँस लीजिए। शोर आपको परेशान नहीं करेगा।
ऐसे लोगों के लिए एक उपाय सूझा है। अब गणेशोत्सव या दुर्गोत्सव आने के पहले उस इलाके की सभी उत्सव समिति के अध्यक्षों और सचिवों को चंदे के प्रलोभन से एक निश्चित स्थान पर बुलाया जाए। उन 10-15 लोगों को एक हाल में बंद कर दिया जाए। वहाँ पर एक हाल में कई स्पीकर रख दिए जाएँ, उनके आने के बाद हाल को बंद कर स्पीकर पर तेज गति वाले गाने लगा दिए जाएँ। पूरे एक घंटे तक उन सबको ऐसे ही रहने दिया जाए। उसके बाद उनके सामने जाएँ और ससम्मान पूछें कि कितना चंदा चाहते हैं आप? निश्चित रूप से उनकी हालत कुछ भी बोलने की नहीं होगी। शायद उनकी श्रवण शक्ति ही खराब हो गई हो। उसके बाद उनसे कहा जाए कि गणशोत्सव में 11 दिन और दुर्गोत्सव में 9 दिनों तक आप आम जनता को इस तरह से शोर की घुट्टी पिलाते हैं, तो क्या उन पर असर नहीं होता होगा? संभव हो, आपका यह जवाब सुनकर उनमें कोई आक्रामक हो जाए। इसके लिए आपको तैयार रहना होगा। उसके बाद तो उनमें से कोई भी आपके पास चंदे के लिए तो नहीं आएगा, अलबत्ता वे सभी आपके दुश्मन बन जाएँगे। जीवन में दुश्मनों की भी आवश्यकता पड़ती है।
इन मूर्खों को कौन बताए कि शोर उत्पन्न करके वे अपनी पीढ़ी को ही नुकसान पहुँचा रहे हैं। आज तो वे अपने बच्चों की आवाज सुन रहे हैं, यही हाल रहा, तो उनके बच्चे अपने बच्चों की आवाज नहीं सुन पाएँगे, यह तय है। आजकल जहाँ संगीत की स्वर लहरियों से बीमारियों का इलाज किया जा रहा है, वहीं कानफाड़ संगीत लोगों को बीमार भी कर रहा है। ऐसा कौन होगा, जिसे जगजीत सिंह का गीत 'तू ही माता, तू ही पिता है, तू ही तो है राधा का श्याम, हे राम हे रामÓ पसंद नहीं है। इसका धीमा संगीत मन को किसी दूसरे लोक में ले जाता है। तेज संगीत लोगों को मानसिक रोगी बना रहा है, इसे कोई क्यों समझने को तैयार नहीं है?
लोगों को भूलने की बीमारी हो रही है, कान से कम सुनाई देने लगा है, आँखें कमजोर हो रही हैं, मोटापा बढ़ रहा है, चलना नहीं हो पा रहा है, साँसे उखडऩे लगी हैं, इन सबके पीछे कहीं न कहीं शोर ही है। लोग कब सचेत होंगे, इस शोर को लेकर? क्यों कोई सोच नहीं रहा है, इस दिशा में? क्या भावी पीढ़ी बहरी होगी। वैसे भी मोबाइल ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, लोगों को बहरा बनाने में। पैदा होने वाले बच्चे तिरछी गर्दन वाले हो रहे हैं। क्या अब भी नहीं समझे, तो चेत जाओ, ऐ मूर्खों, तुम तो सुन रहे हो, सब कुछ, तुम्हारी पीढ़ी कुछ भी नहीं सुन पाएगी। कल्पना करो, कैसा होगा वह सुनसान संसार.....
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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भारत मे सारे क़ानून हैं पर 'ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण एक्ट' कहने भर के लिए भी नहीं है. इसके लिए कोई आवाज़ उठती भी नहीं देखी.
जवाब देंहटाएंउम्मीद पर दुनिया कायम!!!
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