मंगलवार, 15 सितंबर 2009

भ्रष्टाचार का पर्यावरण

प्रमोद भार्गव
कमजोर और शालीन दिखने वाले हमारे प्रधानमंत्री अपने नए कार्यकाल में मुखर होने के साथ कुछ कढ़े तेवर अख्तियार करते दिखाई दे रहे हैं। हाल हीं में उन्होंने पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं को मंजूरी दिए जाने में होने वाले भ्रष्टाचार पर नाराजगी जाहिर करते हुए इसे एक नए किस्म का लायसेंसी राज बताया। इसके पहले उन्होंने काला बाजारियों व जमाखोरियों के विरूद्व कारवाई करने के नजरिये से राज्य सरकारों को चेताया। गरीब तबके की फिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने उन फेरी वालों के प्रति भी चिंता जताई जो हस्त शिल्प और कुटीर व लघु उद्योगों में निर्मित सामान देश भर में बेचने जाते हैं। इस दौरान इन्हें कई मर्तबा पुलिस के अमानवीय व्यवहार और भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ता है। चिंता के साथ यदि इन हालातों को बदलने में वाकई जोर दिया जाता है तो नए हालात निश्चित रूप से पर्यावरण व उर्जा सरंक्षण, गरीबों के उत्थान और खाद्य सुरक्षा के कारगर उपाय साबित हो सकते हैं।आज हमारे देश में पर्यावरण सरंक्षण वन अमले के लिए एक नए किस्म का लायसेंसी राज साबित हो रहा है। जो कि नाजायज कमाई का ठोस जरिया बना हुआ है। पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं की मंजूरी के साथ आरक्षित वनों, उद्यानों और अभ्यारण्यों के निकट आबाद क्षेत्रों में आवासीय बस्तियों व शस्त्र लायसेंस के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र देने के संबंध में भी वन अमला अकूत भ्रष्टाचार से जुड़ा है। खास तौर से बस्तियों और हथियार लायसेंस के सिलसिले में पर्यावरण मंजूरी की बाध्यता इसलिए कोई महत्व नहीं रखती, क्योंकि मध्यप्रदेश में जितने भी आरक्षित वनों से जुड़े जिले हैं उनमें लायसेंसी हथियारों में वृध्दि दर बेतहाशा बड़ी है। इससे जाहिर होता है कि पर्यावरण बाध्यता केवल भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली हैं। यही स्थिति आवासीय बस्तियों के संबंध में है, वन जिलों में शहरी बस्तियों के विस्तार ने आरक्षित वन भूमियां तक हड़प ली है। हालात इतने बदहाल है कि जिस पर्यावरण सरंक्षण की जिस बाध्यता को विकास और पर्यावरण की जरूरतों में संतुलन का आधार बनना चाहिए थी,वह बाध्यता असंतुलन की आधार बन रही है। जबकी पर्यावरण सरंक्षण संबंधी नीतियां पारदर्र्शी और परेशानी मुक्त होनी चाहिए। ऐसी नीतियां जब तक सामने नहीं आएंगी तब तक न वनों का धानत्व बढ़ने वाला है और न ही वनों में रहने वाले आदिवासी समुदाय संकट से मुक्त होने वाला हैं।हमारे यहाँ वन सरंक्षण संबंधी जितनी भी नीतियां बनी और जितना भी औद्योगिक विस्तार हुआ वह वन, वन्य जीव और वनवासियों के विनाश के कारण बने। क्योंकि सबसे ज्यादा विनाश विकास की आड़ में ही हुआ। वन विनाश में नौकरशाही की भूमिका तो रही ही उन पर्यावरण स्वीकृति देने वाली समितियों की भी रही जिनके सदस्य कंपनियों के आधिकारियों को बना दिया गया। पीं अब्राहम एक ऐसी ही मिसाल हैं। अब्राहम कई निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के विद्युत मण्डलों के सदस्य है। अब विरोधाभास देखिए यही महोदय पर्यावरण मंजूरी देने वाली सात विशेषज्ञ समितियों के कुछ समय पहले तक सदस्य थे और एक के अध्यक्ष भी थे। हाल ही में ऐसे सदस्यों के व्यवहारिक स्वार्थ को समझते हुए केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इनका इस्तीफा कराया है। यही हाल उस राष्ट्रीय जैव विविधाता प्रधीकरण से जुड़ी समिति का है जो जैव विविधाताओं के सरंक्षण के लिए अस्तित्व में लाई गई है, लेकिन विडंबना यह है कि इस समिति में उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नुमाइंदे शामिल हैं जो आनुवंशिक बीजों का निर्माण कर हमारे पारंपरिक बीजों को बरबाद कर पूरे फसल चक्र को ही प्रभावित करने में लगी हैं। जबकि इन समितियों के सदस्य स्वतंत्र पर्यावरण सोच रखने वाले व्यक्ति होने चाहिए।ऐसे ही कारण रहे है जिनके चलते पर्यावरण संबंधी योजनाओं में भ्रष्टाचार और पर्यावरण विनाश का सिलसिला अनवरत बना हुआ है। नतीजतन वनों की स्थिति चिंताजनक हो गई है। हाल ही में जो 'स्टेट ऑफ एनवायरमेंट रिपोर्ट इंडिया 2009' आई है, उसमें बताया गया है कि अब वन भूमि केवल छह करोड़ पचास लाख हेक्टेयर रह गई है। करीब इक्कीस फीसदी ऐसे सघन वन शेष हैं, जिनमें बाघ, तेंदुए और सिंह जैसे वन्य जीव विचरण कर सकते हैं। हमारे यहां दस प्रतिशत मध्यम घनत्व वाले वन हैं और नौ प्रतिशत निम्न श्रेणी के वन क्षेत्र हैं। ऐसे में जरुरत है कि ऐसी वन नीतियां लागू की जाएं जिनके अमल में आने से अगले दस साल में उच्च और मध्यम घनत्व के वन क्षेत्रों में वृध्दि दर्ज की जा सके। हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी ऐसे पैदल सिपाही हैं, जिनकी पर्यावरण संरक्षण में अह्म भूमिका है। इन्होंने ही हमारी वनों की सुरक्षा तो की ही है, प्रकृति के साथ मिलजुल कर रहने का नायाब व कामयाब तरीका भी अपनाया हुआ है। इसलिए आदिवासी अधिकार कानून जो वनवासियों के जायज अधिकारों की गारंटी देता है, उस पर सख्ती से अमल की जरुरत है। प्रधानमंत्री ने बात तो पते की कही है क्योकि प्रकृति का सरंक्षण करने वाला यही वह समूह है जो जंगल के घनत्व और गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक सिध्द हो सकता है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले 35 - 40 सालों में औद्योगिक विकास, बड़े बांधा और उद्यानों व अभ्यारण्यों के निर्माण व सरंक्षण के बहाने अब तक चार करोड़ वनवासी विस्थापित किए जा चुके हैं। यह आधुनिक विकास वनवासियों के लिए ऐसा अभिशाप बना हुआ है कि एक बार अपने पुश्तैनी अधिकार क्षेत्र, जल, जंगल और जमीन से उखाड़ दिया गया वनवासी का संतोषजनक पुनर्वास लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के चलते कभी नहीं हो पाया ? बल्कि पर्यावरण सरंक्षण के नाम पर एक पूरा ऐसा भ्रष्टाचार पनपाने वाला राजनीतिक अर्थशास्त्र विकसित हो गया जिसके बूते वन अमला जबावदेही और चौकस निगरानी से दूर होता चला गया। केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा आर्थिक इमदाद पाने वाले स्वयं सेवी संगठनों ने भी बुनियादी पहल करने की बजाय वन जागरुकता के केवल ऐसे सतही अभियान चलाये जिनकी पड़ताल करना भी मुश्किल है कि वे चले भी अथवा नहीं ?आज हालात इतने बद्तर हो गए हैं कि अकेले मध्यप्रदेश में जो 19 हजार 908 परिवार आधुनिक विकास के लिए विस्थापित कर दिए गए हैं उनकी आमदनी 50 से 90 प्रतिशत तक घट गई है। यह हकीकत सतपुड़ा टाइगर रिजर्र्व फारेस्ट, कूनों - पालपुर अभ्यारण्य ;श्योपुर और माधाव राष्ट्रीय उद्यान,शिवपुरी से विस्थापितों पर किए गए 'आर्थिक आय और जीवन स्तर' का अध्ययन करने के बाद सामने आई है। कर्नाटक के बिलिगिरी रंगास्वामी मंदिर अभ्यारण्य में लगी पाबंदी के कारण सोलिंगा आदिवासियों को तो दो दिन में एक ही मर्तबा भोजन नसीब हो रहा है।दरअसल हम उस अवधारणा को प्रचलन में लाने में लगे हैं जो यूरोपीय देशों में प्रचलित है। वहां 'विल्डरनेस' अवधारणा प्रचलन में है। जिसके मायने हैं मानव विहीन सन्नाटा, निर्वात अथवा शून्यता। जबकि हमारे पांच हजार साल से भी ज्यादा पुराने ज्ञात इतिहास में ऐसी किसी अवधारणा का उल्लेख नहीं है। इसी वजह से हमने जितने भी उदानों व अभयारण्यों से वनवासियों का विस्थापन किया है, वहां - वहां वन्य प्र्राणियों और वृक्षों की संख्या घटी है। इसलिए अब वह समय आ गया है जब हम ऐसी नीति और तकनीकियों को अमल में लाएं जो विस्थापन से जुड़ी न हों। हाल में ही उत्तराखण्ड में स्थानीय स्तर पर ऐसी तकनीकों का आविष्कार कर विस्तार किया जा रहा है, जिनके जरिये नदियों के पानी से बिजली लघु पैमाने पर बनाई जा रही है। इस यांत्रिक तकनीक से न तो किसी को उजड़ने का दंश झेलना पड़ता है और न ही प्रदूषण का संकट पैदा होता है। जिस अर्थ का उपार्जन होता है वह भी स्थानीय आर्थिकी को मजबूती देता है। जलवायु संकट से उबरने के लिए अब जरुरी है कि हम पर्यावरण की मंजूरी देने वाली समितियों की कमान उन तत्वदर्शियों को सौंपे, जो जल, उर्जा और कृषि के क्षेत्र में अपने देशज और पारंपरिक ज्ञान के चलते मिसाल बन चुके हैं। यदि इस सोच के चलते अण्णा हजारे, राजेन्द्र सिंह, अनुपम मिश्र, आर के पचौरी और दीप जोशी जैसे लोगों को इन समितियों से जोड़ा जाता है तो पर्यावरण सरंक्षण के साथ - साथ जलवायु संतुलन और खाद्य सुरक्षा के कारगर उपाय भी आप से आप सुधारते चले जाएंगें।
प्रमोद भार्गव

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