शनिवार, 21 अगस्त 2010
हमें ऑस्ट्रेलिया से कुछ सीखना होगा
डॉ. महेश परिमल
भारत में जब भी चुनाव होते हैं, तब उसका मुख्य मुद्दा विकास या महँगाई ही होता है। देश में कई चुनाव हुए पर कभी जनसंख्या मुद्दा नहीं बना। आज २१ अगस्त को ऑस्ट्रेलिया में आम चुनाव हैं, जहाँ इस बार जनसंख्या को एक मुद्दे के रूप में सामने लाया गया है। इस मुद्दे पर भारतीय नेताओं के मुँह पर ताले लग जाते हैं। पर एक आम आस्ट्रेलियन इस बार इस विषय पर काफी गंभीरता से सोच रहा है। विभिन्न लोगों के मत लिए जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जनसंख्या को लोग पर्यावरण से जोड़कर देख रहे हैं।
हमारी देश में आबादी कभी भी नेताओं के लिए मुद्दा नहीं बनी। पर ऑस्ट्रेलिया में इस बार आम चुनाव में यह मुद्दा जोर-शोर के साथ उभरा है। इस मुद्दे को जो भी अच्छी तरह से पेश कर गया, समझ लो जीत उसी की। शायद आपको यह नहीं पता होगा कि ऑस्ट्रेलिया आकार में भारत से कई गुना बड़ा है, पर आबादी के मामले में वहाँ की आबादी हमारे त्रिपुरा राज्य के बराबर है। इतना विशाल क्षेत्र होने के बाद भी लोगों की बसाहट आखिर इतनी कम क्यों है? दरअसल बात यह है कि ऑस्ट्रेलिया एक सूखा महाद्वीप है। जहाँ पानी की कमी हमेशा बनी रहती है। इस दृष्टि से वहाँ जनसंख्या पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है।
अभी वहाँ की हालत यह है कि वहाँ के पूर्व प्रधानमंत्री केविन रड बढ़ती जनसंख्या को बेहतर मानते हैं, लेकिन उनकी ही पार्टी से उनका पत्ता साफ करने वाली वर्तमान प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड जनसंख्या नियंत्रण की बात कर रही हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि ऑस्ट्रेलिया की आबादी वहाँ के मूल नागरिकों की वजह से नहीं, बल्कि अप्रवासियों के कारण बढ़ रही है। प्रश्न यह है कि यदि आबादी वहाँ के मूल लोगों के कारण बढ़ती, तो क्या यह मुद्दा बनती। ऐसा नहीं है, मुद्दा तो तब भी बनती, क्योंकि वहाँ का हर नागरिक यह चाहता है कि देश का पर्यावरण सुरक्षित रहे। पर्यावरण की कीमत पर आबादी बढ़ाने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। यानी ऐसा ऑस्ट्रेलिया जहाँ जनसंख्या उतनी ही रहे कि पर्यावरण, मूलभूत सुविधाओं और संसाधनों के अनुपात में देश की विकसित जीवन शैली बनी रहे। अर्थशास्त्री भले ही चाहें कि आबादी बढ़े, क्योंकि इससे आर्थिक सम्पन्नता बढ़ेगी। अर्थशास्त्री हमेशा यही चाहेंगे कि जनसंख्या बढ़ती जाए, क्योंकि वो इसे एक संसाधन के रूप में देखते हैं. जितने Êयादा लोग उतना Êयादा सफल घरेलू उत्पाद। लेकिन बात केवल पैसे की नहीं होती, लोगों के जीवनस्तर क्या है, ये भी मायने रखता है.
पर्यावरणविद मानते हैं कि दूसरे जीवजंतु भी हमारे साथ जिंदा रह सकें, ऑस्ट्रेलिया में पानी की कमी है और दुनिया में जहाँ भी रेगिस्तान होता है वहां कम लोग होते हैं. ऑस्ट्रेलिया एक सूखा महाद्वीप है इसलिए ये धारणा गलत है कि यहाँ का क्षेत्रफल बड़ा है तो जनसंख्या भी बड़ी होनी चाहिए। इन दिनों ऑस्ट्रेलिया में यह मुद्दा छाया हुआ है। हर क्षेत्र के लोग इसमें अपनी राय दे रहे हैं। सभी यही चाहते हैं कि आबादी इतनी रहे कि पर्यावरण को नुकसान न हो। लोग अपनी जीवनशैली में बिना बदलाव किए सुरक्षित रह सकें। हमारे देश के नेताओं और नागरिकों को इससे सबक लेना चाहिए कि जनसंख्या वृद्धि एक गंभीर समस्या है। इस सरकार को नहीं, बल्कि हमें ही निपटना है। हमारे देश के नेता इसे भले ही न मानें, इसे मुद्दा न बनाएँ, पर सच तो यह है कि हम इस गंभीर समस्या को अनदेखा नहीं कर सकते। वर्तमान प्रधानमंत्री जुलिया गिलार्ड के मुख्य प्रतिद्वंद्वी और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार टोनी एबट ने हाल ही में कहा कि अगर वे चुने जाते हैं, तो ऑस्ट्रेलिया आने वाले अप्रवासियों की संख्या में एक लाख तीस हजार की कटौती करेंगे। यह एक चुनौतीपूर्ण घोषणा है। आखिर उन्होंने कुछ सोच-समझकर ही यह कहा है। अब तो यह तय है कि जिसने भी इस मुद्दे को अच्छी तरह से पेश कर दिया, उसकी जीत सुनिश्चित है।
समझ में नहीं आता कि हमारे देश में नेता ऐसा कब सोचेंगे? आज भले ही वे इस गंभीर समस्या पर अपना मुँह न खोलें, पर जब इस दिशा में नागरिकों की जागरुकता बढ़ जाएगी, तब उन्हें इस बात पर सोचने के लिए विवश होना ही होगा। बहुत ही छोटा सा देश है ऑस्ट्रेलिया, पर उसकी सोच हमसे काफी आगे है। हम आबादी में भले ही विशाल माने जाते हों, पर सच तो यह है कि हमारे देश के नेताओं की सोच संकीर्ण है, जहाँ वे अपने वेतन भत्तों के लिए कुछ भी कर सकते हैं। दुश्मन से हाथ मिला सकते हैं। इसी देश के नेता ऐसे भी हैं, जो खुले आम सुप्रीमकोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हैं। शरद पवार का आज का बयान यही सिद्ध करता है कि वे सुप्रीमकोर्ट के आदेश को भी नहीं मानते। ऐसे लोगों से भला क्या अपेक्षा की जा सकती है। हमें ऑस्ट्रेलिया से कुछ सीखना ही होगा। सोच की यह बुनियाद देश के नागरिकों में है, पर इसका पता हमें ही नहीं है।
डॉ. महेश परिमल
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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जनसंख्या का प्रश्न महत्वपूर्ण है। मालुम नहीं क्यों, हम इसे गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं। शायद अब भी नहीं लिया तो बहुत देर हो जायेगी।
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