शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

छँटा भ्रम का कुहासा, फैला खुशियों का उजास



डॉ. महेश परिमल
आखिर छँट गया भ्रम का कुहासा। देश के सबसे बड़े, लम्बे और महत्वपूर्ण फैसले केबाद आम आदमी ने राहत की साँस ली है। ऐसा पहली बार हुआ कि शहरों में अघोषित कफ्यरू लागू हो। लोगों को इस बात की आशंका सबसे अधिक थी कि कहीं बात बिगड़ न जाए। आशंकाओं से सहमी आँखों ने ऐतिहासिक फैसला सुनते ही राहत की साँस ली। लोगों ने इसे संतुलित, धर्मनिरपेक्ष एवं चुनौतीपूर्ण निर्णय निरुपित किया है। एकता की इस आबोहवा का अभिवादन किया जाना चाहिए। अभी लंबी कानूनी लड़ाई बाकी है। इस निर्णय से न तो किसी की जीत हुई है और न ही किसी की हार। मुस्लिमों को तो किसी भी तरह से निराश नहीं होना चाहिए। उन्हें भी विवादित भूमि का एक हिस्सा मिला ही है।
अदालत का फैसला आने से पहले विवाद से जुडे सभी पक्ष यह स्पष्ट कर चुके थे कि मामले का हल आपसी बातचीत के जरिए संभव नहीं है इसलिए न्यायपालिका ही मसले का समाधान करे. अब फैसला आ चुका है. असंतुष्टों के लिए कानून के रास्ते खुले हुए हैं और वे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं. सुन्नी वक्फ बोर्ड और हिंदू महासभा ने इसका ऐलान भी कर दिया है. फैसले से दोनों की असंतुष्टि के अपने अलग-अलग आधार हैं और इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. क्योंकि एतराज का दायरा कानून और संविधान के भीतर है. लेकिन जरूरी यह है कि इस फैसले के साथ ही एक नई शुरुआत हो. मसले को एक कानूनी मसला मानकर ही आगे बढा जाना चाहिए. इसे भावनात्मक या राजनीतिक आवेश में लाने या रँगने की कोशिश कतई नहीं हो. आम लोगों में जितनी चिंता फैसले को लेकर थी, उससे कहीं ज्यादा आशंका इस बात की थी कि फैसले के बाद क्या होगा? क्या देश एक बार फिर अपने सामाजिक तानेबाने को छिन्न-भिन्न होता देखेगा या फिर इसे निपटा हुआ मानकर विकास और देश निर्माण की राह में बढ चला जाएगा. फैसले से पहले सभी राजनीतिक दल शांति और भाईचारे की बात कर रहे थे. उन्हें इसी सोच को आगे विस्तार देना होगा. वैसे भी इस बदलते भारत में भावनात्मक मुद्दों पर राजनीति की जमीन खत्म होती जा रही है. बीते दो दशकों में एक पूरी नयी पीढी जवान हुई है. वह नए दौर की व्यवस्था के बीच नये भारत को गढ रही है. शक्ल लेता यह नया भारत अतीत के प्रेतों को ढोना नहीं चाहता. यही सोच वह भरोसा जगा रहा है जहां उम्मीदें ज्यादा हैं और आशंकाएं कम. अतीत के प्रेतों से मुक्ति जरूरी है।
इस ऐतिहासिक फैसले के बाद ही सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के जफरियाज जिलानी ने सुप्रीम कोर्ट पर जाने की घोषणा की। इससे समझा जा सकता है कि यह कानूनी लड़ाई लंबी चलेगी। पहले तो सुप्रीमकोर्ट की विभागीय बेंच, उसके बाद फुल बेंच और उसके बाद कानूनी बेंच पर यह मुकदमा लड़ा जा सकता है। यही नहीं, इसके बाद तो संसद के पास निर्णय रद्द करने का भी अधिकार है। कल तक यही गिलानी इस विवाद के समाधान की कोशिशों को हवा में उड़ा देते थे, आज वही इस मामले को आपसी विचार-विमर्श से सुलझाने की बात कह रहे हैं। यदि वे सचमुच ही इस विवादास्पद मामले को आपसी विचार-विमर्श से सुलझाना चाहते हैं, तो इसका समाधान जल्द आ सकता है। इस पूरे मामले पर लखनऊ खंडपीठ की प्रशंसा करनी ही होगी। इसके अलावा देश की जनता का काम भी सराहनीय रहा। विशेषकर मीडिया, जो छोटी-सी बात को बतंगड़ बना देता है, इस मामले में सकारात्मक रहा। एक बोल्ड निर्णय को देशवासियों ने आसानी से पचा लिया। इसमें न तो किसी की हार हुई है और न ही किसी की जीत। सभी को समान रूप से प्रभावित करने वाला निर्णय रहा। अभी भी समझौते के पूरे रास्ते खुले हुए हैं। अभी हालात अनुकूल हैं, इसी परिस्थिति को सँभाले रखने की आवश्यकता है। इसके लिए राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की रोटियाँ न सेंक पाएँ, यही कोशिश होनी चाहिए। इसी ईमानदार प्रयास से हो सकता है, एक नया युग। जिसमें सभी सौहार्दपूर्ण वातावरण में साँस ले सकें।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. न राम कुछ खाने को देगा, न अल्लाह .......... और जो दे सकता है वो दे नहीं रहा है...चाहे सड जाये

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  2. मुझे भी लगता है कानूनी लड़ाई अभी खत्म नही हुई है ।

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