बुधवार, 29 जून 2011
पास्को परियोजना का क्यों हो विरोध ?
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में आज पेज 9 पर प्रकाशित आलेख
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http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-06-29&pageno=9
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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parimalmahesh@gmail.com
मंगलवार, 28 जून 2011
ईश्वर हो या न हो, पर भ्रष्टाचार सर्वव्यापी है
डॉ. महेश परिमल
भ्रष्टाचार के संबंध में एक बार इंदिरा गांधी ने कहा था कि भ्रष्टाचार केवल भारत की समस्या नहीं है, यह तो विश्वव्यापी है। उस समय लोगों ने उनका मजाक उड़ाया था, पर आज उनकी बात बिलकुल सच साबित हो रही है। आज भ्रष्टाचार एक शिष्टाचार बन गया है। अब भ्रष्ट लोगों का जेल जाना भी किसी उत्सव से कम नहीं है। उस भ्रष्ट से मिलने वाले भी अब वीआईपी होने लगे हैं। जापान का लाकहीड कांड, अमेरिका का वाटरगेट कांड, हमारे देश का नागरवाला कांड भी भ्रष्टाचार की उपज थे। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं, हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान की हालत इतनी खराब है कि अमेरिका और चीन यदि उसकी सहायता करना बंद कर दें, तो वह एक दिन भी न चल पाए। आज का मीडिया विभिन्न देशों में होने वाले भ्रष्टाचार की खबरों को सुर्खियाँ देने में लगा है। शायद ही कोई ऐसा देश हो, जहाँ भ्रष्टाचार न हो। वैसे देखा जाए, तो जहाँ राजनीति है, वहाँ भ्रष्टाचार है। मेरे पास एक मजेदार मेल आया, जिसमें लिखा था कि देश की कुल आबादी 110 करोड़ है। इसमें से 9 करोड़ लोग सेवानिवृत हैं। 25 करोड़ बच्चे और टीन एजर्स स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई कर रहे हैं। सवा करोड़ लोग अस्पताल में अपना इलाज करवा रहे हैं। करीब 80 करोड़ लोग विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में बंद हैं। 37 करोड़ लोग राज्य सरकार के और 20 करोड़ लोग केंद्र सरकार के कर्मचारी हैं, जो जनहित के कार्यो को छोड़कर बाकी सब काम करते हैं। एक करोड़ लोग आईटी के प्रोफेशन में हैं, जो मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे हैं। इसके बाद भी देश गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। चारों ओर भ्रष्टाचार की ही चर्चा है। इसे पूरी तरह से खत्म करने के लिए कोई उपवास कर रहा है, तो कोई जनांदोलन की धमकी दे रहा है। पर जिसे करना है, वह सरकार कुछ नहीं कर पा रही है।
पहले महँगाई की तुलना सुरसा के मुँह से की जाती थी, अब यह शब्द कमजोर पड़ने लगा है। इसी तरह भ्रष्टाचार के लिए अब लोग विशालकाय जानवर जैसी अर्नाकोंडा, शेषनाग आदि जैसे विशेषण का प्रयोग करने लगे हैं। विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश हो, जहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज न उठाई गई हो। हाल ही में आयशा सिद्दिकी की एक किताब आई है, जिसमें पाकिस्तान में सैन्य अधिकारियों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार का सिलसिलेवार जिक्र है। यह किताब खूब बिक रही है। मानव जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जिसमें पाकिस्तान की सेना ने भ्रष्टाचार न किया हो। बात केवल पाकिस्तानी सेना की ही नहीं, बल्कि पाकिस्तानी पुलिस, आईएसआई और प्रशासनिक ढाँचा पूरी तरह से भ्रष्ट है। सरकार जैसी कोई चीज वहाँ है ही नहीं। इस देश को चीन और अमेरिका यदि सहायता करना बंद कर दे, तो वह एक दिन भी न चल पाए। यही हाल साम्यवाद का ढिंढोरा पीटने वाले चीन का है। इस देश के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने कुछ समय पहले ही कहा है कि भ्रष्टाचार एक ऐसा वाइरस है, जो हमारे देश की राजनैतिक स्थिरता को खतरे में डाल रहा है। आपको शायद विश्वास न हो, पर यह सच है कि केवल चीन में ही 2002 से 2005 तक 30 हजार शासकीय अधिकारियों को भ्रष्टाचार के आरोप में सख्त सजा दी गई है। 792 जजों के खिलाफ कार्रवाई चल रही है। सन् 2008 में 41 हजार 179 अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्ट आचरण को लेकर जाँच चल रही है। जिनके खिलाफ आरोप सिद्ध हो गए, उन्हें सख्त सजा दी गई। इसके बाद भी लोग यही कह रहे हैं कि हमें नहीं लगता कि हमारे देश में भ्रष्टाचार कम हुआ है।
इसके मद्देनजर हमें अपने ही देश पर नजर डालें, तो 1992 में 153 सरकारी अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया था। इनमें से आधे लोगोंे के खिलाफ आरोप सिद्ध भी हुए, इसके बाद भी सभी अधिकारी अपने पद पर काबिज रहे। एक भी अधिकारी को ऐसी सजा नहीं हुई, जिससे अन्य अधिकारी सबक लेते। बहुत ही कम लोगों को याद होगा कि भूतपूर्व राष्ट्रपति और शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 1947 में कहा था कि जब तक हम उच्च स्तर पर कायम भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और कालेबाजार का समूल नाश नहीं करेंगे, तब तक हम प्रशासनिक स्तर पर न तो कार्यक्षमता बढ़ा सकते हैं और न ही उत्पादन बढ़ा सकते हैं। सोचो, यह बात उन्होंने तब कही थी, जब हमारा देश पैदा ही हुआ था। यदि उस समय इस बात की ओर ध्यान दिया जाता, तो शायद आज ये हालात न होते। हम कहाँ थे और कहाँ पहुँच गए। आसुरी शक्तियाँ लगातार बलशाली हो रही हैं। ईमानदारी को कोसों तक पता नहीं है। फिर भी देश के कथित नेता चिंतित होकर कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के लिए हम कृतसंकल्प हैं।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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सोमवार, 27 जून 2011
आम की अभिलाषा
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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शनिवार, 25 जून 2011
अपराधियों के हौसले बुलंद करने वाला फैसला
डॉ. महेश परिमल
हाल ही में सुप्रीमकोर्ट ने एक फैसले में एनकाउंटर को बहुत बड़ा अपराध माना है। फैसले में यह कहा गया है कि यदि कोई पुलिस अधिकारी इसका दोषी पाया जाता है, तो उसे फाँसी की सजा होनी चाहिए। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले से पुलिस विभाग में हड़कम्प है। पुलिस की स्थिति इधर कुआँ उधर खाई जैसी हो गई है। यदि सुप्रीमकोर्ट की ही मानें, तो अब कभी कोई पुलिस वाला शातिर अपराधी या आतंकवादी को मारेगा नहीं, बल्कि उसे जाने देगा, या फिर खुद ही भाग जाएगा। क्योंकि यदि कहीं से भी यह बात सामने आ जाए कि यह एनकाउंटर था, तो पुलिस वाला कभी बच नही ंपाएगा। दूसरी ओर यदि अपराधी या आतंकवादी पुलिस वाले को मार डालता है, तब तो किसी प्रकार की बात सामने नहीं आएगी। ऐसे में पुलिसवाला अपना बचाव का ही रास्ता अपनाएगा।
सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले की तीखी प्रतिक्रिया हुई है। इस संबंध में उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व डायरेक्टर जनरल प्रकाश सिंह कहते हैं कि इस प्रकार के फैसले का असर पुलिस के नैतिक बल पर पड़ेगा। पुलिस कानून से इतना अधिक डर जाएगी कि अब अपने हथियार चलाने के पहले सौ बार सोचेगी। उसे यह डर रहेगा कि यदि वह हथियार चलाते हैं, तो एनकाउंटर की बात सामने आएगी, यदि नहीं चलाते, तो अपनी जान मुश्किल में आ जाएगी। इसलिए वे एनकाउंटर करने के बजाए अपराधी को भाग जाने देंगे। कोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि पुलिस वाले किसी भी रूप में राजनीति या पुलिस अधिकारियों के दबाव में न आएँ। व्यावहारिक दृष्टि से यह असंभव है। सामान्य रूप से पुलिस एनकाउंटर सरकार के दबाव में ही किए जाते हैं। यदि पुलिस ने बड़े अधिकारियों की बात न मानी, तो उसके परिणाम कितने भयानक होंगे, यह पुलिसवाला ही अच्छी तरह से जानता है। आंध्रप्रदेश पुलिस आफिसर्स एसोसिएशन के प्रेसीडेंट के.वी. चलपति राव का मानना है कि पुलिस पर चारों तरफ से अन्याय हो रहा है। वे कहते हैं कि जब किसी गेंगस्टर से मुठभेड़ हो रही हो, इस दौरान कोई पुलिसवाला मारा जाता है, तो कोई खोज-खबर लेने नहीं आएगा, पर यदि पुलिस के हाथों कोई मारा जाता है, तो उसे नकली एनकांउटर माना जाता है। हल्ला मच जाता है। उस पर जांच बिटा दी जाती है।
सामान्य रूप से सुप्रीमकोर्ट इस तरह का कोई फैसला देती है, तो मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले सामने आ जाते हैं। पर आश्चर्य की बात यह है कि इस फैसले के आने के बाद कहीं कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही है। मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले एक आंदोलनकारी ने कहा कि वे इससे कतई खुश नहीं हैं। इस फैसले से सुप्रीमकोर्ट को भले ही लोकप्रियता मिल जाए, पर सच तो यह है कि कानूनी रूप से यह बिलकुल भी व्यावहारिक नहीं है। नकली एनकाउंटर के दोषी पुलिस अधिकारी को फाँसी पर चढ़ा दिया जाए, यह कोई समस्या का समाधान नहीं है। यदि नकली एनकाउंटर की समस्या से हमेशा के लिए निजात पाना है, तो इसके लिए दूसरे समाधान की तलाश की जाए। पुलिस अधिकारी को फाँसी पर चढ़ा देने से होगा ये कि भविष्य में कभी कोई एनकाउंटर नहीं होगा। सभी अपराधी या आतंकवादी भागने के पहले पुलिस अधिकारियों को मार डालेंगे या फिर पुलिस अधिकारी स्वयं ही अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़ा होगा। पुलिस का मनोबल तो टूटेगा ही, साथ ही फाँसी का डर सुरक्षा व्यवस्था को और अधिक कमजोर बना देगा। यह एक सच्चई है।
नकली एनकाउंटर के मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट का बार-बार बदलते विरोधाभासी निर्णय भी एक चिंता का विषय है। इसे कभी पुलिस वालो की विवशता के रूप में भी देखा जाए। पुलिस की नीयत पर संदेह करने के पहले यदि नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (एनएचआरसी)की रिपोर्ट देख ली जाए, तो बेहतर होगा। पुलिस एनकाउंटर के जो आँकड़े उपलब्ध हैं, उसकी जाँच में यह पाया गया है कि 1993 से अब तक 2956 मामले सामने आए हैं। इसमें से 1366 मामले नकली एनकाउंटर के हैं। जब इन मामलों की गहराई से जाँच की गई, तब यह तथ्य सामने आया कि इनमें से केवल 27 मामले ही नकली एनकाउंटर के हैं। समाजसेवी मानते हैं कि नकली एनकांउटर के मामले में धारा 21 का स्पष्ट रूप से उल्लंघन होता है। इस धारा में कहा गया है कि कानूनी प्रक्रिया में मार्गदर्शन के अलावा किसी भी व्यक्ति का जीवन या उसकी आजादी ले लेना अपराध की श्रेणी में आता है। नकली एनकाउंटर के बढ़ते मामले को देखते हुए एनएचआरसी नवम्बर 1996 में एक मार्गदेर्शिका का प्रकाशन किया और 2003 में यह जोड़ा कि यह मार्गदर्शिका नकली एनकाउंटर के मामले में एफआईआर और पुलिस की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली मौत की तमाम घटनाओं की जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच जैसे नियमों का समावेश किया गया है। इस मार्गदर्शिका का कोई मतलब ही नहीं है, क्योंकि संस्था के पास इतने अधिकार नहीं हैं कि वे कोई कार्रवाई कर सके। इससे पुलिस की कार्यशैली और नकली एनकाउंटर की प्रक्रिया पर किसी तरह का कोई असर नहीं होगा। न मार्गदर्शिका से न तो सरकार डरती है और न ही पुलिस।
अब समय आ गया है कि इस दिशा में हवाई किले बनाने से अच्छा है कि कुछ ऐसा किया जाए कि पुलिस का मनोबल न टूटे और दोषी पुलिस अधिकारियों को सजा भी हो। समाधान तो तलाशना ही होगा। देश की सुरक्षा को लेकर आज जितने भी मामले सामने आ रहे हैं उसमें पुलिस की भूमिका को हमेशा संदिध माना जाता है। पर पुलिस कितने दबाव में काम करती है, इसे भी जानने की आवश्यकता है। यदि दोषी पुलिस अधिकारियों को फाँसी की सजा दी जाने लगी, तो आतंकवादियों और शातिर अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाएँगे। वे खुलकर अपना खेल खेलेंगे। उन्हें मालूम है कि हमें मारने वाला पुलिस अधिकारी भी बच नहीं पाएगा। संभव है वे ही उस पुलिस अधिकारी को ठिकाने लगा दें। दोनों ही मामलों में कानून की लंबी प्रक्रिया चलती है, इस दौरान अन्य पुलिसकर्मियों में यह भावना धर कर जाती है कि यदि वे मुस्तैदी से अपना काम करती है, तो उस पर आरोपों की बौछार शुरू हो जाती है। पुलिस वाला आतंकवादियों के हाथों मारा जाता है, तो कहीं कोई आंदोलन नहीं होता, पर यदि पुलिस वाले के हाथों कोई मारा जाता है, तो उसे नकली एनकाउंटर का मामला बना दिया जाता है। ऐसे में कोई क्यों हथियार उठाए? आतंकवादी को भाग देने या घटनास्थल से भाग जाने में ही पुलिस वाले की भलाई है, तो फिर क्यों हथियार उठाकर खतरा मोल लिया जाए?
डॉ. महेश परिमल
हाल ही में सुप्रीमकोर्ट ने एक फैसले में एनकाउंटर को बहुत बड़ा अपराध माना है। फैसले में यह कहा गया है कि यदि कोई पुलिस अधिकारी इसका दोषी पाया जाता है, तो उसे फाँसी की सजा होनी चाहिए। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले से पुलिस विभाग में हड़कम्प है। पुलिस की स्थिति इधर कुआँ उधर खाई जैसी हो गई है। यदि सुप्रीमकोर्ट की ही मानें, तो अब कभी कोई पुलिस वाला शातिर अपराधी या आतंकवादी को मारेगा नहीं, बल्कि उसे जाने देगा, या फिर खुद ही भाग जाएगा। क्योंकि यदि कहीं से भी यह बात सामने आ जाए कि यह एनकाउंटर था, तो पुलिस वाला कभी बच नही ंपाएगा। दूसरी ओर यदि अपराधी या आतंकवादी पुलिस वाले को मार डालता है, तब तो किसी प्रकार की बात सामने नहीं आएगी। ऐसे में पुलिसवाला अपना बचाव का ही रास्ता अपनाएगा।
सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले की तीखी प्रतिक्रिया हुई है। इस संबंध में उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व डायरेक्टर जनरल प्रकाश सिंह कहते हैं कि इस प्रकार के फैसले का असर पुलिस के नैतिक बल पर पड़ेगा। पुलिस कानून से इतना अधिक डर जाएगी कि अब अपने हथियार चलाने के पहले सौ बार सोचेगी। उसे यह डर रहेगा कि यदि वह हथियार चलाते हैं, तो एनकाउंटर की बात सामने आएगी, यदि नहीं चलाते, तो अपनी जान मुश्किल में आ जाएगी। इसलिए वे एनकाउंटर करने के बजाए अपराधी को भाग जाने देंगे। कोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि पुलिस वाले किसी भी रूप में राजनीति या पुलिस अधिकारियों के दबाव में न आएँ। व्यावहारिक दृष्टि से यह असंभव है। सामान्य रूप से पुलिस एनकाउंटर सरकार के दबाव में ही किए जाते हैं। यदि पुलिस ने बड़े अधिकारियों की बात न मानी, तो उसके परिणाम कितने भयानक होंगे, यह पुलिसवाला ही अच्छी तरह से जानता है। आंध्रप्रदेश पुलिस आफिसर्स एसोसिएशन के प्रेसीडेंट के.वी. चलपति राव का मानना है कि पुलिस पर चारों तरफ से अन्याय हो रहा है। वे कहते हैं कि जब किसी गेंगस्टर से मुठभेड़ हो रही हो, इस दौरान कोई पुलिसवाला मारा जाता है, तो कोई खोज-खबर लेने नहीं आएगा, पर यदि पुलिस के हाथों कोई मारा जाता है, तो उसे नकली एनकांउटर माना जाता है। हल्ला मच जाता है। उस पर जांच बिटा दी जाती है।
सामान्य रूप से सुप्रीमकोर्ट इस तरह का कोई फैसला देती है, तो मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले सामने आ जाते हैं। पर आश्चर्य की बात यह है कि इस फैसले के आने के बाद कहीं कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही है। मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले एक आंदोलनकारी ने कहा कि वे इससे कतई खुश नहीं हैं। इस फैसले से सुप्रीमकोर्ट को भले ही लोकप्रियता मिल जाए, पर सच तो यह है कि कानूनी रूप से यह बिलकुल भी व्यावहारिक नहीं है। नकली एनकाउंटर के दोषी पुलिस अधिकारी को फाँसी पर चढ़ा दिया जाए, यह कोई समस्या का समाधान नहीं है। यदि नकली एनकाउंटर की समस्या से हमेशा के लिए निजात पाना है, तो इसके लिए दूसरे समाधान की तलाश की जाए। पुलिस अधिकारी को फाँसी पर चढ़ा देने से होगा ये कि भविष्य में कभी कोई एनकाउंटर नहीं होगा। सभी अपराधी या आतंकवादी भागने के पहले पुलिस अधिकारियों को मार डालेंगे या फिर पुलिस अधिकारी स्वयं ही अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़ा होगा। पुलिस का मनोबल तो टूटेगा ही, साथ ही फाँसी का डर सुरक्षा व्यवस्था को और अधिक कमजोर बना देगा। यह एक सच्चई है।
नकली एनकाउंटर के मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट का बार-बार बदलते विरोधाभासी निर्णय भी एक चिंता का विषय है। इसे कभी पुलिस वालो की विवशता के रूप में भी देखा जाए। पुलिस की नीयत पर संदेह करने के पहले यदि नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (एनएचआरसी)की रिपोर्ट देख ली जाए, तो बेहतर होगा। पुलिस एनकाउंटर के जो आँकड़े उपलब्ध हैं, उसकी जाँच में यह पाया गया है कि 1993 से अब तक 2956 मामले सामने आए हैं। इसमें से 1366 मामले नकली एनकाउंटर के हैं। जब इन मामलों की गहराई से जाँच की गई, तब यह तथ्य सामने आया कि इनमें से केवल 27 मामले ही नकली एनकाउंटर के हैं। समाजसेवी मानते हैं कि नकली एनकांउटर के मामले में धारा 21 का स्पष्ट रूप से उल्लंघन होता है। इस धारा में कहा गया है कि कानूनी प्रक्रिया में मार्गदर्शन के अलावा किसी भी व्यक्ति का जीवन या उसकी आजादी ले लेना अपराध की श्रेणी में आता है। नकली एनकाउंटर के बढ़ते मामले को देखते हुए एनएचआरसी नवम्बर 1996 में एक मार्गदेर्शिका का प्रकाशन किया और 2003 में यह जोड़ा कि यह मार्गदर्शिका नकली एनकाउंटर के मामले में एफआईआर और पुलिस की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली मौत की तमाम घटनाओं की जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच जैसे नियमों का समावेश किया गया है। इस मार्गदर्शिका का कोई मतलब ही नहीं है, क्योंकि संस्था के पास इतने अधिकार नहीं हैं कि वे कोई कार्रवाई कर सके। इससे पुलिस की कार्यशैली और नकली एनकाउंटर की प्रक्रिया पर किसी तरह का कोई असर नहीं होगा। न मार्गदर्शिका से न तो सरकार डरती है और न ही पुलिस।
अब समय आ गया है कि इस दिशा में हवाई किले बनाने से अच्छा है कि कुछ ऐसा किया जाए कि पुलिस का मनोबल न टूटे और दोषी पुलिस अधिकारियों को सजा भी हो। समाधान तो तलाशना ही होगा। देश की सुरक्षा को लेकर आज जितने भी मामले सामने आ रहे हैं उसमें पुलिस की भूमिका को हमेशा संदिध माना जाता है। पर पुलिस कितने दबाव में काम करती है, इसे भी जानने की आवश्यकता है। यदि दोषी पुलिस अधिकारियों को फाँसी की सजा दी जाने लगी, तो आतंकवादियों और शातिर अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाएँगे। वे खुलकर अपना खेल खेलेंगे। उन्हें मालूम है कि हमें मारने वाला पुलिस अधिकारी भी बच नहीं पाएगा। संभव है वे ही उस पुलिस अधिकारी को ठिकाने लगा दें। दोनों ही मामलों में कानून की लंबी प्रक्रिया चलती है, इस दौरान अन्य पुलिसकर्मियों में यह भावना धर कर जाती है कि यदि वे मुस्तैदी से अपना काम करती है, तो उस पर आरोपों की बौछार शुरू हो जाती है। पुलिस वाला आतंकवादियों के हाथों मारा जाता है, तो कहीं कोई आंदोलन नहीं होता, पर यदि पुलिस वाले के हाथों कोई मारा जाता है, तो उसे नकली एनकाउंटर का मामला बना दिया जाता है। ऐसे में कोई क्यों हथियार उठाए? आतंकवादी को भाग देने या घटनास्थल से भाग जाने में ही पुलिस वाले की भलाई है, तो फिर क्यों हथियार उठाकर खतरा मोल लिया जाए?
डॉ. महेश परिमल
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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शुक्रवार, 24 जून 2011
क्या अब नहीं होंगे एनकाउंटर
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गुरुवार, 23 जून 2011
मंद पड़ जाएगी स्रप्रीमकोर्ट की हुंकार
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मंगलवार, 21 जून 2011
गरीब परिवारों के लिए वरदान है हिप्नोबर्थिग
डॉ. महेश परिमल
एक नारी के लिए सच्च सुख है मातृत्व प्राप्त करना। इसे प्राप्त करने के पहले उसे पीड़ा की एक नदी ही पार करनी होती है। जिसे प्रसव वेदना कहा जाता है। असीम पीड़ा, तीव्र पीड़ा और असह्य दर्द, ये सभी एक साथ सामने आते हैं, जब एक नारी इस वेदना से गुजर रही होती ेहै। इस वेदना को कम करने के लिए आज के चिकित्सक उसे इंजेक्शन दे देते हैं, जिससे कुछ देर के लिए यह दर्द काफूर हो जाता है। थोड़ी देर बाद फिर वही पीड़ा का दौर। बरसों पहले गाँव-गाँव में दाइयाँ हुआ करती थीं, जो अपने अनुभव से विवाहिता को इस पीड़ा से छुटकारा दिलाती थीं। इनके अनुभव काफी काम आते थे। सोचो, एक बड़े शहर में एक महिला को प्रसव वेदना हुई। वह तड़पने लगी। उसकी सास ने एम्बुलेंस को फोन किया। कुछ ही देर में एम्बुलेंस आ गई। थोड़ी देर बाद सास ने देखा कि बहू अब चीख नहीं रही है। उसे आश्चर्य हुआ। वह महामृत्युंजय का पाठ करने लगी। ईश्वर ये क्या हो गया। दिन पूरे हैं, इस वेदना हुई और अब वह किसी तरह की पीड़ा से छटपटा नहीं रही है। हमारे जमाने में तो पूरा आसमान ही सर पर उठा लिया जाता था। सास अमंगल विचारों से घिर गईं। एम्बुलेंस नर्सिंग होम पहुँची, वहाँ पूरी तैयारी थी। डेढ़ घंटे बाद बहू एक नवजात के साथ बाहर आई। सास को आश्चर्य हुआ! दोनों ही स्वस्थ थे। सास को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। सास ने जब बहू से इसका राज पूछा, तो बहू ने मुस्कराकर कहा-माँ जी, यह तो हिप्नोबर्थिग का कमाल है। अब भला सास क्या जाने, ये हिप्नोबर्थिग क्या होती है? हम भी नहीं जानते कि ये आखिर है क्या?
आजकल डॉक्टर पहले से अधिक उतावले हो गए हैं। प्रसूता को धर्य नहीं है। वे प्रसव वेदना से गुजरना ही नहीं चाहतीं। इसका पूरा लाभ चिकित्सक उठा रहे हैं। वे जरा भी इंतजार नहीं करते और सिजेरियन की सलाह देते हुए तुरंत आपरेशन के लिए दबाव बनाते हैं। इस दौरान पालकों का भी विवेक काम नहीं करता, क्योंकि चिकित्सकों ने इसे काफी बढ़ा-चढ़ाकर बताया है। इसलिए वे भी उनकी हाँ में हाँ मिला देते हैं। जो काम थोड़े धर्य के साथ कुछ ही पलों में हो सकता था, वही काम अधिक खर्च के साथ अधिक पीड़ा वाला साबित होता है। लेकिन हिप्नोबर्थिग ने प्रसूताओं को इस भय से पूरी तरह से मुक्त कर दिया है। आओ, जानें कि आखिर यह हिप्नोबर्थिग है क्या? वैसे नाम से तो पता चल ही गया होगा कि यह स्वसम्मोहन प्रक्रिया है। अपने आप को सम्मोहित करना। जैसे हमें एक सूई में धागा पिरोना है। हम कितनी सावधानी से धागा पिरोने का काम करते हैं। पूरी तरह से एकाग्र होकर, सारी चिंताओं से दूर होकर पूरी तन्मयता के साथ ये कार्य सम्पन्न होता है। इसी तरह दूसरे कई काम हैं, जिसके लिए तन्मयता की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह स्व-सम्मोहन भी एक ऐसी ही पद्धति है, जिसमें पीड़ित व्यक्ति स्वयं को सम्मोहित करता है। आजकल यूरोप-अमेरिका में यह अति लोकप्रिय टेकनिक है। हॉलीवुड की अभिनेत्री जेसिका अल्बा ने इस टेकनिक से प्रसूति करवाई थी। आज भी गाँवों में कई दाइयाँ ऐसी हैं, जो आज की गायनेकोलॉजिस्ट के अनुभव को चुनौती देने में सक्षम हैं। यह पद्धति इसलिए लोकप्रिय हुई है कि आज के लालची चिकित्सक द्वारा लगातार किए जा रहे सिजेरियन ऑपरेशन हैं। कुछ विशेष कारणों में सिजेरियन आवश्यक हो सकता है, पर हर मामले में सिजेरियन संभव ही नहीं है, लेकिन लालची चिकित्सक इसे संभव बनाने में लगे हुए हैं।
हिप्नोबर्थिग में गर्भवती महिला को स्व-सम्मोहन करना सिखाया जाता है। कई मामलों में गर्भवती महिलाएँ अपने घर में ही प्रसूति कराने के किस्से सामने आए हैं। पति, प्रशिक्षित नर्स और परिजनों की उपस्थिति में गर्भवती महिला अपने इष्टदेव का स्मरण कर स्व-सम्मोहन द्वारा अपनी पीड़ा को सह्य बनाती है। पीड़ा को भूलने के लिए हिप्नोटिज्म यानी सम्मोहन विद्या का सहारा लिया जाता है। आधुनिक विज्ञान कहता है कि स्व-सम्मोहन से जब मादक द्रव्यों का नशा छुड़ाया जा सकता है, तो फिर प्रसव वेदना को कम कैसे नहीं किया जा सकता? दिल्ली और बेंगलोर में हिप्नोबर्थिग के सफल प्रयोग हो चुके हैं। इस तकनीक से सिजेरियन ऑपरेशन को टाला जा सकता है। इससे प्राकृतिक रूप से बच्चे का जन्म लेना संभव हुआ है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि हमारे देश में अभी भी अधिकांश लोग सफाई के प्रति उतने गंभीर नहीं हैं, जितना उन्हें होना चाहिए। यदि कोई मध्यमवर्गीय महिला ये चाहे कि वह अपने घर में ही बच्चे को जन्म दे, तो इसके लिए काफी तैयारी करनी पड़ेगी। ताकि जच्चे-बच्चे को किसी तरह का संक्रामक रोग न लग जाए। हिप्नोबर्थिग के समर्थक कहते हैं कि इस पद्धति से दिल्ली और चेन्नई में सिजेरियन से होने वाली डिलीवरी में कमी आई है।सन् 2007-8 में 38 प्रतिशत डिलीवरी सिजेरियन से हुई थी, जो सन् 2009-10 में घटकर 21 प्रतिशत हो गई थी।
इस पद्धति का इतिहास यह है कि सबसे पहले ब्रिटिश ओब्स्टेट्रीशियन ग्रेंटली डीक-रेड (1890-1959) ने इसकी सिफारिश की थी। अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने एक किताब भी लिखी- ‘चाइल्ड बर्थ विदाउट फियर’, इस पर कई चिकित्सकों ने मिलकर इस विचार को आगे बढ़ाया। इस तकनीक के समर्थक कहते हैं कि हिप्नोबर्थिग से प्रसव का समय घटता है। पीड़ा का अनुभव नहीं के बराबर होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें प्रसूति प्राकृतिक रूप से होती है। इसमें सिजेरियन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। अभी यूरोप और अमेरिका में मेरी मोंगन और केरी टुश्शोफ की हिप्नोबर्थिग टेकनीक काफी लोकप्रिय है। जो प्रसूता अस्पताल जाने के काल्पनिक भय से पीड़ित होती है, उसके लिए यह टेकनीक उपयोगी है। भारत में यह तकनीक अभी कुछ शहरों तक ही सीमित है। यदि इसका सुचारू रूप से प्रचार किया जाए, तो यह मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए एक वरदान साबित हो सकती है।
डॉ. महेश परिमल
एक नारी के लिए सच्च सुख है मातृत्व प्राप्त करना। इसे प्राप्त करने के पहले उसे पीड़ा की एक नदी ही पार करनी होती है। जिसे प्रसव वेदना कहा जाता है। असीम पीड़ा, तीव्र पीड़ा और असह्य दर्द, ये सभी एक साथ सामने आते हैं, जब एक नारी इस वेदना से गुजर रही होती ेहै। इस वेदना को कम करने के लिए आज के चिकित्सक उसे इंजेक्शन दे देते हैं, जिससे कुछ देर के लिए यह दर्द काफूर हो जाता है। थोड़ी देर बाद फिर वही पीड़ा का दौर। बरसों पहले गाँव-गाँव में दाइयाँ हुआ करती थीं, जो अपने अनुभव से विवाहिता को इस पीड़ा से छुटकारा दिलाती थीं। इनके अनुभव काफी काम आते थे। सोचो, एक बड़े शहर में एक महिला को प्रसव वेदना हुई। वह तड़पने लगी। उसकी सास ने एम्बुलेंस को फोन किया। कुछ ही देर में एम्बुलेंस आ गई। थोड़ी देर बाद सास ने देखा कि बहू अब चीख नहीं रही है। उसे आश्चर्य हुआ। वह महामृत्युंजय का पाठ करने लगी। ईश्वर ये क्या हो गया। दिन पूरे हैं, इस वेदना हुई और अब वह किसी तरह की पीड़ा से छटपटा नहीं रही है। हमारे जमाने में तो पूरा आसमान ही सर पर उठा लिया जाता था। सास अमंगल विचारों से घिर गईं। एम्बुलेंस नर्सिंग होम पहुँची, वहाँ पूरी तैयारी थी। डेढ़ घंटे बाद बहू एक नवजात के साथ बाहर आई। सास को आश्चर्य हुआ! दोनों ही स्वस्थ थे। सास को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। सास ने जब बहू से इसका राज पूछा, तो बहू ने मुस्कराकर कहा-माँ जी, यह तो हिप्नोबर्थिग का कमाल है। अब भला सास क्या जाने, ये हिप्नोबर्थिग क्या होती है? हम भी नहीं जानते कि ये आखिर है क्या?
आजकल डॉक्टर पहले से अधिक उतावले हो गए हैं। प्रसूता को धर्य नहीं है। वे प्रसव वेदना से गुजरना ही नहीं चाहतीं। इसका पूरा लाभ चिकित्सक उठा रहे हैं। वे जरा भी इंतजार नहीं करते और सिजेरियन की सलाह देते हुए तुरंत आपरेशन के लिए दबाव बनाते हैं। इस दौरान पालकों का भी विवेक काम नहीं करता, क्योंकि चिकित्सकों ने इसे काफी बढ़ा-चढ़ाकर बताया है। इसलिए वे भी उनकी हाँ में हाँ मिला देते हैं। जो काम थोड़े धर्य के साथ कुछ ही पलों में हो सकता था, वही काम अधिक खर्च के साथ अधिक पीड़ा वाला साबित होता है। लेकिन हिप्नोबर्थिग ने प्रसूताओं को इस भय से पूरी तरह से मुक्त कर दिया है। आओ, जानें कि आखिर यह हिप्नोबर्थिग है क्या? वैसे नाम से तो पता चल ही गया होगा कि यह स्वसम्मोहन प्रक्रिया है। अपने आप को सम्मोहित करना। जैसे हमें एक सूई में धागा पिरोना है। हम कितनी सावधानी से धागा पिरोने का काम करते हैं। पूरी तरह से एकाग्र होकर, सारी चिंताओं से दूर होकर पूरी तन्मयता के साथ ये कार्य सम्पन्न होता है। इसी तरह दूसरे कई काम हैं, जिसके लिए तन्मयता की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह स्व-सम्मोहन भी एक ऐसी ही पद्धति है, जिसमें पीड़ित व्यक्ति स्वयं को सम्मोहित करता है। आजकल यूरोप-अमेरिका में यह अति लोकप्रिय टेकनिक है। हॉलीवुड की अभिनेत्री जेसिका अल्बा ने इस टेकनिक से प्रसूति करवाई थी। आज भी गाँवों में कई दाइयाँ ऐसी हैं, जो आज की गायनेकोलॉजिस्ट के अनुभव को चुनौती देने में सक्षम हैं। यह पद्धति इसलिए लोकप्रिय हुई है कि आज के लालची चिकित्सक द्वारा लगातार किए जा रहे सिजेरियन ऑपरेशन हैं। कुछ विशेष कारणों में सिजेरियन आवश्यक हो सकता है, पर हर मामले में सिजेरियन संभव ही नहीं है, लेकिन लालची चिकित्सक इसे संभव बनाने में लगे हुए हैं।
हिप्नोबर्थिग में गर्भवती महिला को स्व-सम्मोहन करना सिखाया जाता है। कई मामलों में गर्भवती महिलाएँ अपने घर में ही प्रसूति कराने के किस्से सामने आए हैं। पति, प्रशिक्षित नर्स और परिजनों की उपस्थिति में गर्भवती महिला अपने इष्टदेव का स्मरण कर स्व-सम्मोहन द्वारा अपनी पीड़ा को सह्य बनाती है। पीड़ा को भूलने के लिए हिप्नोटिज्म यानी सम्मोहन विद्या का सहारा लिया जाता है। आधुनिक विज्ञान कहता है कि स्व-सम्मोहन से जब मादक द्रव्यों का नशा छुड़ाया जा सकता है, तो फिर प्रसव वेदना को कम कैसे नहीं किया जा सकता? दिल्ली और बेंगलोर में हिप्नोबर्थिग के सफल प्रयोग हो चुके हैं। इस तकनीक से सिजेरियन ऑपरेशन को टाला जा सकता है। इससे प्राकृतिक रूप से बच्चे का जन्म लेना संभव हुआ है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि हमारे देश में अभी भी अधिकांश लोग सफाई के प्रति उतने गंभीर नहीं हैं, जितना उन्हें होना चाहिए। यदि कोई मध्यमवर्गीय महिला ये चाहे कि वह अपने घर में ही बच्चे को जन्म दे, तो इसके लिए काफी तैयारी करनी पड़ेगी। ताकि जच्चे-बच्चे को किसी तरह का संक्रामक रोग न लग जाए। हिप्नोबर्थिग के समर्थक कहते हैं कि इस पद्धति से दिल्ली और चेन्नई में सिजेरियन से होने वाली डिलीवरी में कमी आई है।सन् 2007-8 में 38 प्रतिशत डिलीवरी सिजेरियन से हुई थी, जो सन् 2009-10 में घटकर 21 प्रतिशत हो गई थी।
इस पद्धति का इतिहास यह है कि सबसे पहले ब्रिटिश ओब्स्टेट्रीशियन ग्रेंटली डीक-रेड (1890-1959) ने इसकी सिफारिश की थी। अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने एक किताब भी लिखी- ‘चाइल्ड बर्थ विदाउट फियर’, इस पर कई चिकित्सकों ने मिलकर इस विचार को आगे बढ़ाया। इस तकनीक के समर्थक कहते हैं कि हिप्नोबर्थिग से प्रसव का समय घटता है। पीड़ा का अनुभव नहीं के बराबर होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें प्रसूति प्राकृतिक रूप से होती है। इसमें सिजेरियन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। अभी यूरोप और अमेरिका में मेरी मोंगन और केरी टुश्शोफ की हिप्नोबर्थिग टेकनीक काफी लोकप्रिय है। जो प्रसूता अस्पताल जाने के काल्पनिक भय से पीड़ित होती है, उसके लिए यह टेकनीक उपयोगी है। भारत में यह तकनीक अभी कुछ शहरों तक ही सीमित है। यदि इसका सुचारू रूप से प्रचार किया जाए, तो यह मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए एक वरदान साबित हो सकती है।
डॉ. महेश परिमल
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सोमवार, 20 जून 2011
बहुत काम आती हैं पिता की सीख
रमेश शर्मा
पत्थलगांव/छत्तीसगढ़/
अक्सर ऐसा होता है, जब लोग सामने होते हैं, तो उनकी कद्र नहीं होती, पर जब वे अपनी सुनहरी यादें छोड़कर चले जाते हैं, तब उनकी खूब याद आती है! तब उनकी याद का स्थायी रखने के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों को याद करते हैं! कई तो उनकी सीख को गाँठ बांधकर रख लेते हैं। अब रमेश मेहरा को ही देख लो, वे मानते हैं कि जब कभी धैर्य चुकने लगता है तो पिता का स्मरण कर उन्ही से मदद मांगता हूं। इसके बाद सभी मुश्किलें देखते ही देखते आसान हो जाती हैं। पांच साल की छोटी सी उम्र के दौरान स्कूल में दाखिला दिलाने के बाद भले ही पिता का साया साथ नहीं रह पाया हो पर पिता का सिखाया हुआ शिक्षा का मूलमंत्र जशपुर जिले के पत्थलगांव निवासी रमेश मेहरा को हमेशा काम आ रहा है।
यहंा होटल का व्यवसाय करने वाला शख्स रमेश मेहरा को पिछले चार दशकों से अपनी विधवा भाभी और चार छोटी बहनों के लिए पिता जैसी जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं। मेहरा का कहना है कि वह अपने बड़े परिवार की परवरिश में कहीं भी पिता की कमी को याद नहीं आने देते। कई बार बेहद जटिल स्थिति निर्मित हो जाती हैं उस मुश्किल घड़ी में एकांत में बैठकर पिता का स्मरण करने के बाद उसे फिर से काम करने की ऊर्जा मिल जाती है। रमेश मेहरा ने बताया कि उसकी कम उम्र में ही पिता का देहांत हो गया था। अपने पिता से जीवन की बारीकिंया भले ही सीखने को नहीं मिल पाई थी। लेकिन पिता व्दारा स्कूल में दिलाया गया दाखिला को ही वह जीवन का मूलमंत्र मानता है। इस शख्स ने अपने परिवार के अन्य बच्चों को कठिन परिस्थितियों के बाद भी बेहतर शिक्षा दिला कर उनके जीवन की राह आसान कर दी हैं। मेहरा की बहन और भतीजों का बड़ा परिवार होने के बाद भी शिक्षा के मूलमंत्र के चलते उसे कहीं भी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ रहा है। मेहरा के दो भतिजों को प्रारम्भ से ही अच्छी शिक्षा-दीक्षा मिल जाने से वे अब जर्मनी में रह कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। मेहरा का कहना है कि पिता का प्यार से भौतिक सुख सुविधा की बराबरी नहीं की जा सकती है। लेकिन पिता की बातों सुखद अहसास हमेषा काम आता है। उन्होने बताया कि पिता ने स्वयं जाकर स्कूल में दाखिला नहीं दिलाया होता तो वह शायद षिक्षा का महत्व नहीं समझ पाता। मेहरा का कहना है कि वह अपने परिवार के सभी बच्चों का स्कूल में जाकर दाखिला कराना नहीं भुलता है। पिता की इस याद को वह परम्परा बना चुका है। शिक्षा के बलबूते ही उसे जीवन के लम्बे सफर में अभाव और मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा है।
रमेश शर्मा
पत्थलगांव/छत्तीसगढ़/
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जिंदगी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
शुक्रवार, 17 जून 2011
मौन का साथ छोड़कर बाबा ने गलत किया
डॉ. महेश परिमल
एक डरी हुई सरकार से इससे बेहतर की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी। सरकार यही चाहती थी कि बाबा रामदेव की छवि उनके समर्थकों के सामने ही धूमिल हो जाए। एक तरफ वार्ता का ढकोसला दूसरी तरफ एक साजिश के तहत उन्हें बेइज्जत करना, क्या एक लोकतांत्रिक सरकार का यही कर्तव्य है? जिस बाबा रामदेव के लिए सरकार ने लाल जाजम बिछाया, उसे ही रात के अंधेरे में गिरफ्तार कर उनके आश्रम में भेज दिया। क्या यह सरकार को शोभा देता है? निश्चित रूप से सरकार अपने तमाम हथकंडों से बाबा का आंदोलन सफल होने देना नहीं चाहती थी। वह इसमें पूरी तरह से सफल रही। रही सही कसर उनके दिल्ली में घुसने पर प्रतिबंध लगाकर कर दी।
अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से सबके सामने है कि आखिर बाबा का यह आंदोलन क्यों विफल हुआ? इतना तो तय है कि सरकार जो चाहती थी, वह तो उसने कर लिया। पर बाबा जो चाहते थे, वह नहीं हो पाया। अपनी गलती को सरकार तो छिपा ले गई। अब सारा दोष वह निश्चित रूप से किसी और पर डाल देगी। लेकिन बाबा ने जिस तरह से मीडिया का उपयोग करते हुए लगातार अपना प्रलाप जारी रखा, वही उनके आंदोलन की विफलता का एक महत्वपूर्ण कारण है। जो ध्यान करते हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मौन में जो शक्ति है, उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। अपनी घोषणा के बाद या फिर मंत्रियों के मनाने के बाद यदि वे मौन की घोषणा करते, तो शायद हालात दूसरे होते। वे मीडिया के सामने यही कहते रहे कि मेरी माँगों पर सरकार गंभीरता से विचार कर रही है। उसका रुख सकारात्मक है। वार्ता में कोई अवरोध नहीं है। सरकार पर बाबा का यह भरोसा ही उन्हें ले डूबा। सहमति पत्र पर हस्ताक्षर के बाद सरकार ने अपना पासा फेंका।
एक और बात यह है कि बाबा के पास एक अच्छी सोच तो है, पर उसका पोषण करने वाले कहीं न कहीं राजनीति से ही जुड़े लोग हैं। अण्णा साहब के पास गैर राजनीतिज्ञों की पूरी एक टीम थी। सभी अपने-अपने क्षेत्र की प्रसिद्ध हस्तियाँ हैं। सरकार उनके आंदोलन में किसी प्रकार का अडंगा डालती, तो ये बुद्धिजीवी उसका विकल्प बता देते। एक सूझबूझ वाली टीम के साथ जिस तरह से अण्णा जुड़ें हैं, उस तरह से बाबा नहीं जुड़े। बाबा के साथ जो 5 लोग हैं, उनके तार कहीं न कहीं राजनीति से जुड़े हैं। फिर चाहे वे गोविंदाचार्य हों, या फिर महेश जेठमलानी। बाबा ने अपने आंदोलन की रूपरेखा रूपरेखा उन्होंने काफी पहले तैयार कर ली थी। इसमें 5 लोगों ने अहम भूमिका निभाई । पर्दे के पीछे रह कर इस आंदोलन को हकीकत बनाने वाले 5 पांच चेहरे हैं- गोविंदाचार्य, अजित डोभाल, एस गुरुमूर्ति, महेश जेठमलानी और वेद प्रताप वैदिक। ये पांचों इस वक्त बाबा की उस कोर टीम के हिस्सा हैं जिनसे राय-विचार कर बाबा लगातार सरकार को चुनौती दे रहे थे। अण्णा हजारे की टीम में स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, शांति भूषण जैसी हस्तियाँ हैं, जो समाज में महत्वपूर्ण सम्मान रखती हैं।
बाबा और अण्णा हजारे में यही एक बड़ा अंतर है कि बाबा के साथ उनके अनुयायी हैं, जो उनके योग के माध्यम से अपनी पीड़ाओं से मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं। इनकी अपनी कोई सोच नहीं है, अपने कोई विचार नहीं हैं। अगर इन्हें नशक्ति के रूप में स्वीकार किया जाए, तो इनका सही इस्तेमाल करना बाबा नहीं जान पाए। तमाम योग में सिद्धहस्त बाबा राजयोग को नहीं समझ पाए। बाबा के हठयोग पर राजयोग भारी पड़ गया। केवल मौन को दूर रखकर वे सबसे दूर हो गए। मौन उनके करीब होता, तो उनका आंदोलन भी सफल हो जाता। न बाबा बात करते, न सरकार कुछ कह पाती। इस बीच सरकार पर दबाव भी बन जाता।
बाबा की माँगें साधारण ही हैं। सोचिए कि बाबा रामदेव क्यों आमरण अनशन पर बैठे थे? वे चाहते हैं कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस लाने के लिए सरकार अध्यादेश जारी करे। उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर भ्रष्टाचारियों को फाँसी अथवा आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान करे। सरकारी पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए समर्थ और स्वायत्त लोकपाल गठित करे। मेडिकल, विज्ञान, तकनीक और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाएं हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में भी ली जाएँ, ताकि गांवों के नौजवानों को समान अवसर मिल सके। वे व्यवस्था परिवर्तन की मांग कर रहे हैं, जिसमें खासकर लोकसेवक डिलीवरी एक्ट बनाने की मांग शामिल है ताकि आम आदमी का काम समय से हो सके और फाइल को दबाकर अफसर भ्रष्टाचार नहीं कर सकें। इनमें कौन सी मांग देशहित के खिलाफ है?
तमाम हालात को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि आने वाले दिन सरकार के लिए मुश्किल भरे हो सकते हैं। समझ लो इस दिशा में सरकार ने पहला कदम उठा भी दिया है। यह सरकार भ्रष्टाचार के दलदल से जितना निकलने की कोशिश कर रही है, वह उसमें उतनी ही धँसती जा रही है। राष्ट्रमंडल खेलों से भ्रष्टाचार को जो सिलसिला शुरू हुआ, वह स्पेक्ट्रम कांड, हसन अली कांड से शुरू होकर बाबा पर अमानुषिक रूप से किया जाने वाला अत्याचार पर भी जाकर खत्म नहीं हुआ है। हालात यही रहे, तो सरकार इस तरह की कार्रवाई जारी रखेगी। क्योंकि एक डरी हुई सरकार वह सब कुछ कर सकती है, जो उसे नहीं करना चाहिए। भ्रष्टाचार से खुद को मुक्त करने के लिए सरकार ने कुछ प्रयास अवश्य किए हैं, जिसके कारण सुरेश कलमाड़ी, ए. राजा, कनिमोझी, हसन अली आदि कई बदनाम चेहरे सलाखों के पीछे हैं। पर इतने से कुछ नहीं होता। सरकार को इससे आगे बढ़कर कुछ करना होगा। अब सरकार उलझ गई है। खुद को बचाने के लिए वह जितने हाथ-पैर मारेगी, निश्चित रूप से यह प्रयास उसके खिलाफ ही होंगे।
डॉ. महेश परिमल
एक डरी हुई सरकार से इससे बेहतर की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी। सरकार यही चाहती थी कि बाबा रामदेव की छवि उनके समर्थकों के सामने ही धूमिल हो जाए। एक तरफ वार्ता का ढकोसला दूसरी तरफ एक साजिश के तहत उन्हें बेइज्जत करना, क्या एक लोकतांत्रिक सरकार का यही कर्तव्य है? जिस बाबा रामदेव के लिए सरकार ने लाल जाजम बिछाया, उसे ही रात के अंधेरे में गिरफ्तार कर उनके आश्रम में भेज दिया। क्या यह सरकार को शोभा देता है? निश्चित रूप से सरकार अपने तमाम हथकंडों से बाबा का आंदोलन सफल होने देना नहीं चाहती थी। वह इसमें पूरी तरह से सफल रही। रही सही कसर उनके दिल्ली में घुसने पर प्रतिबंध लगाकर कर दी।
अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से सबके सामने है कि आखिर बाबा का यह आंदोलन क्यों विफल हुआ? इतना तो तय है कि सरकार जो चाहती थी, वह तो उसने कर लिया। पर बाबा जो चाहते थे, वह नहीं हो पाया। अपनी गलती को सरकार तो छिपा ले गई। अब सारा दोष वह निश्चित रूप से किसी और पर डाल देगी। लेकिन बाबा ने जिस तरह से मीडिया का उपयोग करते हुए लगातार अपना प्रलाप जारी रखा, वही उनके आंदोलन की विफलता का एक महत्वपूर्ण कारण है। जो ध्यान करते हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मौन में जो शक्ति है, उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। अपनी घोषणा के बाद या फिर मंत्रियों के मनाने के बाद यदि वे मौन की घोषणा करते, तो शायद हालात दूसरे होते। वे मीडिया के सामने यही कहते रहे कि मेरी माँगों पर सरकार गंभीरता से विचार कर रही है। उसका रुख सकारात्मक है। वार्ता में कोई अवरोध नहीं है। सरकार पर बाबा का यह भरोसा ही उन्हें ले डूबा। सहमति पत्र पर हस्ताक्षर के बाद सरकार ने अपना पासा फेंका।
एक और बात यह है कि बाबा के पास एक अच्छी सोच तो है, पर उसका पोषण करने वाले कहीं न कहीं राजनीति से ही जुड़े लोग हैं। अण्णा साहब के पास गैर राजनीतिज्ञों की पूरी एक टीम थी। सभी अपने-अपने क्षेत्र की प्रसिद्ध हस्तियाँ हैं। सरकार उनके आंदोलन में किसी प्रकार का अडंगा डालती, तो ये बुद्धिजीवी उसका विकल्प बता देते। एक सूझबूझ वाली टीम के साथ जिस तरह से अण्णा जुड़ें हैं, उस तरह से बाबा नहीं जुड़े। बाबा के साथ जो 5 लोग हैं, उनके तार कहीं न कहीं राजनीति से जुड़े हैं। फिर चाहे वे गोविंदाचार्य हों, या फिर महेश जेठमलानी। बाबा ने अपने आंदोलन की रूपरेखा रूपरेखा उन्होंने काफी पहले तैयार कर ली थी। इसमें 5 लोगों ने अहम भूमिका निभाई । पर्दे के पीछे रह कर इस आंदोलन को हकीकत बनाने वाले 5 पांच चेहरे हैं- गोविंदाचार्य, अजित डोभाल, एस गुरुमूर्ति, महेश जेठमलानी और वेद प्रताप वैदिक। ये पांचों इस वक्त बाबा की उस कोर टीम के हिस्सा हैं जिनसे राय-विचार कर बाबा लगातार सरकार को चुनौती दे रहे थे। अण्णा हजारे की टीम में स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, शांति भूषण जैसी हस्तियाँ हैं, जो समाज में महत्वपूर्ण सम्मान रखती हैं।
बाबा और अण्णा हजारे में यही एक बड़ा अंतर है कि बाबा के साथ उनके अनुयायी हैं, जो उनके योग के माध्यम से अपनी पीड़ाओं से मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं। इनकी अपनी कोई सोच नहीं है, अपने कोई विचार नहीं हैं। अगर इन्हें नशक्ति के रूप में स्वीकार किया जाए, तो इनका सही इस्तेमाल करना बाबा नहीं जान पाए। तमाम योग में सिद्धहस्त बाबा राजयोग को नहीं समझ पाए। बाबा के हठयोग पर राजयोग भारी पड़ गया। केवल मौन को दूर रखकर वे सबसे दूर हो गए। मौन उनके करीब होता, तो उनका आंदोलन भी सफल हो जाता। न बाबा बात करते, न सरकार कुछ कह पाती। इस बीच सरकार पर दबाव भी बन जाता।
बाबा की माँगें साधारण ही हैं। सोचिए कि बाबा रामदेव क्यों आमरण अनशन पर बैठे थे? वे चाहते हैं कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस लाने के लिए सरकार अध्यादेश जारी करे। उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर भ्रष्टाचारियों को फाँसी अथवा आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान करे। सरकारी पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए समर्थ और स्वायत्त लोकपाल गठित करे। मेडिकल, विज्ञान, तकनीक और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाएं हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में भी ली जाएँ, ताकि गांवों के नौजवानों को समान अवसर मिल सके। वे व्यवस्था परिवर्तन की मांग कर रहे हैं, जिसमें खासकर लोकसेवक डिलीवरी एक्ट बनाने की मांग शामिल है ताकि आम आदमी का काम समय से हो सके और फाइल को दबाकर अफसर भ्रष्टाचार नहीं कर सकें। इनमें कौन सी मांग देशहित के खिलाफ है?
तमाम हालात को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि आने वाले दिन सरकार के लिए मुश्किल भरे हो सकते हैं। समझ लो इस दिशा में सरकार ने पहला कदम उठा भी दिया है। यह सरकार भ्रष्टाचार के दलदल से जितना निकलने की कोशिश कर रही है, वह उसमें उतनी ही धँसती जा रही है। राष्ट्रमंडल खेलों से भ्रष्टाचार को जो सिलसिला शुरू हुआ, वह स्पेक्ट्रम कांड, हसन अली कांड से शुरू होकर बाबा पर अमानुषिक रूप से किया जाने वाला अत्याचार पर भी जाकर खत्म नहीं हुआ है। हालात यही रहे, तो सरकार इस तरह की कार्रवाई जारी रखेगी। क्योंकि एक डरी हुई सरकार वह सब कुछ कर सकती है, जो उसे नहीं करना चाहिए। भ्रष्टाचार से खुद को मुक्त करने के लिए सरकार ने कुछ प्रयास अवश्य किए हैं, जिसके कारण सुरेश कलमाड़ी, ए. राजा, कनिमोझी, हसन अली आदि कई बदनाम चेहरे सलाखों के पीछे हैं। पर इतने से कुछ नहीं होता। सरकार को इससे आगे बढ़कर कुछ करना होगा। अब सरकार उलझ गई है। खुद को बचाने के लिए वह जितने हाथ-पैर मारेगी, निश्चित रूप से यह प्रयास उसके खिलाफ ही होंगे।
डॉ. महेश परिमल
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
गुरुवार, 16 जून 2011
ऑनर किलिंग पर राज्यों की खामोशी
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के पेज 9 पर प्रकाशित
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http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-06-16&pageno=9
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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शुक्रवार, 10 जून 2011
कभी सुना है एकांत का मदधम संगीत
दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों में एक साथ प्रकाशित
लिंक
http://10.51.82.15/epapermain.aspx?edcode=120&eddate=6/10/2011%2012:00:00%20AM&querypage=10
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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बुधवार, 8 जून 2011
ई तो ‘एब्सर्ड’ रामलीला है........
भ्रष्टाचार की लंका ढाने
विदूषकों के झुंड लड़े
रावण बैठा मौज करे
ये कैसी रामलीला रे.......
कहीं ट्विटर का ‘सुंदर’ कांड
कहीं डंडे का ‘युद्ध’कांड
‘प्रश्न’ वहीं के वहीं खड़े
रावण बैठा मौज करे
ये कैसी रामलीला रे....
सीताहरण नहीं लक्ष्मीहरण
लक्ष्मण रेखा भी कैसी?
छोटा चोर जेल जाए
बड़े चोर को ए.सी.
रावण बैठा मौज करे
ये कैसी रामलीला रे.....
कभी दुबई-मॉरिशस में
कभी स्वीस बैंक में ढूँढते हैं
अरे! लंका खड़ी है दिल्ली में
जहाँ सभी कुंभकरण से सोते हैं
रावण बैठा मौज करे
ये कैसी रामलीला रे.......
युद्ध भी कितना भीषण
जहाँ मीडिया ढूँढे विभीषण
वार्ताकार भी चार मिले
चारों रावण के मुखौटे
नौटंकी ये गजब चली
हर भांड राम का रोल करे
अंजनिपुत्र पश्चाताप में
हमारे राम खोय किस वन में?
रावण क्यों न मौज करे
ई तो ‘एब्सर्ड’ रामलीला है........
विदूषकों के झुंड लड़े
रावण बैठा मौज करे
ये कैसी रामलीला रे.......
कहीं ट्विटर का ‘सुंदर’ कांड
कहीं डंडे का ‘युद्ध’कांड
‘प्रश्न’ वहीं के वहीं खड़े
रावण बैठा मौज करे
ये कैसी रामलीला रे....
सीताहरण नहीं लक्ष्मीहरण
लक्ष्मण रेखा भी कैसी?
छोटा चोर जेल जाए
बड़े चोर को ए.सी.
रावण बैठा मौज करे
ये कैसी रामलीला रे.....
कभी दुबई-मॉरिशस में
कभी स्वीस बैंक में ढूँढते हैं
अरे! लंका खड़ी है दिल्ली में
जहाँ सभी कुंभकरण से सोते हैं
रावण बैठा मौज करे
ये कैसी रामलीला रे.......
युद्ध भी कितना भीषण
जहाँ मीडिया ढूँढे विभीषण
वार्ताकार भी चार मिले
चारों रावण के मुखौटे
नौटंकी ये गजब चली
हर भांड राम का रोल करे
अंजनिपुत्र पश्चाताप में
हमारे राम खोय किस वन में?
रावण क्यों न मौज करे
ई तो ‘एब्सर्ड’ रामलीला है........
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व्यंग्य
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
मंगलवार, 7 जून 2011
डरी सहमी सरकार का गलत फैसला
हठयोग पर भारी पड़ा राजयोग
मौन का साथ छोड़कर बाबा ने गलत किया
डॉ. महेश परिमल
एक डरी हुई सरकार से इससे बेहतर की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी। सरकार यही चाहती थी कि बाबा रामदेव की छवि उनके समर्थकों के सामने ही धूमिल हो जाए। एक तरफ वार्ता का ढकोसला दूसरी तरफ एक साजिश के तहत उन्हें बेइज्जत करना, क्या एक लोकतांत्रिक सरकार का यही कर्तव्य है? जिस बाबा रामदेव के लिए सरकार ने लाल जाजम बिछाया, उसे ही रात के अंधेरे में गिरफ्तार कर उनके आश्रम में भेज दिया। क्या यह सरकार को शोभा देता है? निश्चित रूप से सरकार अपने तमाम हथकंडों से बाबा का आंदोलन सफल होने देना नहीं चाहती थी। वह इसमें पूरी तरह से सफल रही। रही सही कसर उनके दिल्ली में घुसने पर प्रतिबंध लगाकर कर दी।
अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से सबके सामने है कि आखिर बाबा का यह आंदोलन क्यों विफल हुआ? इतना तो तय है कि सरकार जो चाहती थी, वह तो उसने कर लिया। पर बाबा जो चाहते थे, वह नहीं हो पाया। अपनी गलती को सरकार तो छिपा ले गई। अब सारा दोष वह निश्चित रूप से किसी और पर डाल देगी। लेकिन बाबा ने जिस तरह से मीडिया का उपयोग करते हुए लगातार अपना प्रलाप जारी रखा, वही उनके आंदोलन की विफलता का एक महत्वपूर्ण कारण है। जो ध्यान करते हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मौन में जो शक्ति है, उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। अपनी घोषणा के बाद या फिर मंत्रियों के मनाने के बाद यदि वे मौन की घोषणा करते, तो शायद हालात दूसरे होते। वे मीडिया के सामने यही कहते रहे कि मेरी माँगों पर सरकार गंभीरता से विचार कर रही है। उसका रुख सकारात्मक है। वार्ता में कोई अवरोध नहीं है। सरकार पर बाबा का यह भरोसा ही उन्हें ले डूबा। सहमति पत्र पर हस्ताक्षर के बाद सरकार ने अपना पासा फेंका।
एक और बात यह है कि बाबा के पास एक अच्छी सोच तो है, पर उसका पोषण करने वाले कहीं न कहीं राजनीति से ही जुड़े लोग हैं। अण्णा साहब के पास गैर राजनीतिज्ञों की पूरी एक टीम थी। सभी अपने-अपने क्षेत्र की प्रसिद्ध हस्तियाँ हैं। सरकार उनके आंदोलन में किसी प्रकार का अडंगा डालती, तो ये बुद्धिजीवी उसका विकल्प बता देते। एक सूझबूझ वाली टीम के साथ जिस तरह से अण्णा जुड़ें हैं, उस तरह से बाबा नहीं जुड़े। बाबा के साथ जो 5 लोग हैं, उनके तार कहीं न कहीं राजनीति से जुड़े हैं। फिर चाहे वे गोविंदाचार्य हों, या फिर महेश जेठमलानी। बाबा ने अपने आंदोलन की रूपरेखा रूपरेखा उन्होंने काफी पहले तैयार कर ली थी। इसमें 5 लोगों ने अहम भूमिका निभाई । पर्दे के पीछे रह कर इस आंदोलन को हकीकत बनाने वाले 5 पांच चेहरे हैं- गोविंदाचार्य, अजित डोभाल, एस गुरुमूर्ति, महेश जेठमलानी और वेद प्रताप वैदिक। ये पांचों इस वक्त बाबा की उस कोर टीम के हिस्सा हैं जिनसे राय-विचार कर बाबा लगातार सरकार को चुनौती दे रहे थे। अण्णा हजारे की टीम में स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, शांति भूषण जैसी हस्तियाँ हैं, जो समाज में महत्वपूर्ण सम्मान रखती हैं।
बाबा और अण्णा हजारे में यही एक बड़ा अंतर है कि बाबा के साथ उनके अनुयायी हैं, जो उनके योग के माध्यम से अपनी पीड़ाओं से मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं। इनकी अपनी कोई सोच नहीं है, अपने कोई विचार नहीं हैं। अगर इन्हें नशक्ति के रूप में स्वीकार किया जाए, तो इनका सही इस्तेमाल करना बाबा नहीं जान पाए। तमाम योग में सिद्धहस्त बाबा राजयोग को नहीं समझ पाए। बाबा के हठयोग पर राजयोग भारी पड़ गया। केवल मौन को दूर रखकर वे सबसे दूर हो गए। मौन उनके करीब होता, तो उनका आंदोलन भी सफल हो जाता। न बाबा बात करते, न सरकार कुछ कह पाती। इस बीच सरकार पर दबाव भी बन जाता।
बाबा की माँगें साधारण ही हैं। सोचिए कि बाबा रामदेव क्यों आमरण अनशन पर बैठे थे? वे चाहते हैं कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस लाने के लिए सरकार अध्यादेश जारी करे। उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर भ्रष्टाचारियों को फाँसी अथवा आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान करे। सरकारी पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए समर्थ और स्वायत्त लोकपाल गठित करे। मेडिकल, विज्ञान, तकनीक और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाएं हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में भी ली जाएँ, ताकि गांवों के नौजवानों को समान अवसर मिल सके। वे व्यवस्था परिवर्तन की मांग कर रहे हैं, जिसमें खासकर लोकसेवक डिलीवरी एक्ट बनाने की मांग शामिल है ताकि आम आदमी का काम समय से हो सके और फाइल को दबाकर अफसर भ्रष्टाचार नहीं कर सकें। इनमें कौन सी मांग देशहित के खिलाफ है?
तमाम हालात को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि आने वाले दिन सरकार के लिए मुश्किल भरे हो सकते हैं। समझ लो इस दिशा में सरकार ने पहला कदम उठा भी दिया है। यह सरकार भ्रष्टाचार के दलदल से जितना निकलने की कोशिश कर रही है, वह उसमें उतनी ही धँसती जा रही है। राष्ट्रमंडल खेलों से भ्रष्टाचार को जो सिलसिला शुरू हुआ, वह स्पेक्ट्रम कांड, हसन अली कांड से शुरू होकर बाबा पर अमानुषिक रूप से किया जाने वाला अत्याचार पर भी जाकर खत्म नहीं हुआ है। हालात यही रहे, तो सरकार इस तरह की कार्रवाई जारी रखेगी। क्योंकि एक डरी हुई सरकार वह सब कुछ कर सकती है, जो उसे नहीं करना चाहिए। भ्रष्टाचार से खुद को मुक्त करने के लिए सरकार ने कुछ प्रयास अवश्य किए हैं, जिसके कारण सुरेश कलमाड़ी, ए. राजा, कनिमोझी, हसन अली आदि कई बदनाम चेहरे सलाखों के पीछे हैं। पर इतने से कुछ नहीं होता। सरकार को इससे आगे बढ़कर कुछ करना होगा। अब सरकार उलझ गई है। खुद को बचाने के लिए वह जितने हाथ-पैर मारेगी, निश्चित रूप से यह प्रयास उसके खिलाफ ही होंगे।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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सोमवार, 6 जून 2011
खोटी नीयत सामने आ ही गई
रायपुर एवं बिलासपुर नवभारत के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित आलेख
लिंक
http://www.navabharat.org/raipur.asp
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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शुक्रवार, 3 जून 2011
बाबा रामदेव का उपवास सफल होना चाहिए?
डॉ. महेश परिमल
देश में फैले भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ बाबा रामदेव ने आमरण अनशन का बिगुल फूँक दिया है। इससे केंद्र सरकार हिल गई है। निश्चित रूप से यह सोचने वाली बात है कि सरकार को जो कुछ करना चाहिए, उसे अण्णा हजारे और रामदेव बाबा जैसे लोग बता रहे हैं। बाबा के इरादे जो कुछ भी हों, पर सच तो यह है कि उन्होंने एक ज्वलंत मुद्दे को सामने लाने का प्रयास किया है। यदि सरकार इस दिशा पर पहले ही ध्यान देती और उसकी नीयत साफ होती, तो शायद ऐसा कुछ नहीं होता। पर सरकार की नीयत में खोट है, इसलिए कुछ लोगों को सामने आने का मौका मिल रहा है। वैसे बाबा ने प्रधानमंत्री की अपील ठुकराकर यह साबित कर दिया है कि उनकी कोई हैसियत नहीं है। वे चाहकर भी कुछ ऐसा नहीं कर सकते, जिससे क्रांति आ जाए।
केंद्र सरकार ने चार हस्तियों को बाबा को मनाने के लिए भेजा। इससे ऐसा लगता है कि बाबा भी अण्णा हजारे की तरह ही लोगों की भीड़ जुटा सकते हैं और अपनी माँगें मनवा सकते हैं। लेकिन बाबा को यह अच्छी तरह से मालूम है कि किस तरह से सरकार आश्वासन देकर बाद में अपने वादे से मुकर जाती है। इसलिए उन्होंने यह घोषणा कर दी है कि आमरण अनशन का फैसला वे किसी भी सूरत में वापस नहीं लेंगे। उनके इस दृढ़ संकल्प से सरकार हिल गई है। सरकार भी यह अच्छी तरह से जानती है कि जिन दो मुद्दों को लेकर बाबा आगे बढ़ रहे हैं, वे मुद्दे देश के लिए कोढ़ साबित हो रहे हैं। केंद्र सरकार में बहुत से भ्रष्ट राजनेता हैं, जिनके काले धन विदेशी बैंकों में जमा हैं। यही नहीं भ्रष्टाचार न करने वाला कोई नेता ऐसा नहीं है, जो दावे के साथ कह दे कि उसने कभी भ्रष्टाचार नहीं किया। सरकार यह जानती-समझती है, इसलिए वे डरी हुई है। जिस तरह से अण्णा हजारे को जनता का समर्थन मिला, ठीक उसी तरह बाबा रामदेव को मिला, तो देश एक नई राह पर जाने से कोई रोक नहीं सकता।
बरसों से यह बात सामने आती रही है कि किस मंत्री का कितना धन विदेशों में जमा है। इस दिशा में कभी कोई ऐसे प्रयास नहीं हुए, जिससे लगे कि सरकार इस दिशा में सचमुच गंभीर है। सरकार को इस दिशा में गंभीर किया अण्णा हजारे ने। सरकार के लिए केवल अण्णा हजारे कतई महत्वपूर्ण नहीं थे, महत्वपूर्ण था उन्हें मिलने वाला जन समर्थन। इसी जन समर्थन से सरकार बनाने वाले विजयी होते हैं, आज वही जन सैलाब इन्हीं मंत्रियों और नेताओं के लिए आँख के किरकिरी बन गए हैं। यदि बाबा के साथ जन सैलाब उमड़ पड़ा, तो क्या होगा? यही चिंता सरकार को सता रही है।
बाबा के शंखनाद से यह तो तय हो गया है कि अब जो लोग सरकार की किसी भी कार्यप्रणाली पर अपने विचार नहीं रखते थे, सब चलता है, की तर्ज पर वे सरकार की मनमानियों को सह लेते थे, वे भी अब खुलकर बोलने लगे हैं। आम आदमी का इस तरह से खुलकर बोलना किसी भी सरकार के लिए सरदर्द हो सकता है, उन परिस्थितियों में जब सरकार स्वयं ही भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई हो। चार जून सरकार के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना बाबा के लिए। अब दोनों की कसौटी है। जनता का धर्य जवाब दे चुका है। बाबा ने इसे जानते समझते हुए यह कदम उठाया है। सरकार की परेशानी यह है कि उनके खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई भी नहीं कर सकती। क्योंकि उनके खिलाफ एक कदम भी प्रजा के गुस्से का कारण बन सकता है। भले ही बाबा असरकारी हैं, उनका किसी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी उन पर हाथ डालना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि उनके साथ जन समर्थन है।
जिस तरह से अण्णा हजारे को सरकार ने आश्वासन दिया था कि लोकपाल विधेयक को लेकर उनकी माँगें मानी जाएँगी, बाद में चर्चा में उनकी कई माँगों को नजरअंदाज किया गया। इससे साबित हो गया कि सरकार की नीयत में खोट है। अब जब बाबा काले धन और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता को लेकर आमरण अनशन की घोषणा कर चुके हैं, यही नहीं प्रधानमंत्री और रह्वाजनैतिक हस्तियों की अपील और अनुनय-विनय को भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं, तब सरकार के पास यही उसाय बचता है कि बाबा की माँगें मान ली जाएँ। बाबा की पूरी माँगें मानना सरकार के लिए संभव नहीं है। सरकार की अपनी कुछ विवशताएँ हैं। इसके चलते विवाद तो होने ही हैं। संभव है सरकार ही हिल जाए।
अब सबकी नजरें चार जून पर टिकी हैं,जब बाबा अपना आमरण-अनशन शुरू करेंगे। निश्चित रूप से इन्हें भी जन समर्थन मिलेगा। वैसे भी अपने योग से वे भीड़ जुटाने में सिद्धहस्त हो चुके हैं। अपने योग से वे अपनी क्षुधा को तो शांत कर लेंगे, पर उनके इस हठयोग को सरकार किस तरह से निपटेगी, यही देखना है।
डॉ. महेश परिमल
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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