क्या हो गया है हमारे ईश्वर को! लगता है उसे अच्छे इंसानों की याद सताने लगी है। अक्टूबर में हमने जगजीत सिंह को खो दिया, उसके बाद भूपेन हजारिका भी रुखसत हो गए और अब देव साहब। अरे भई अपनी फिल्म के बारे में लोगों की राय तो जान लेते। इसके पहले वे भी हमारा साथ छोड़ चले गए। देश की माटी से अटूट प्यार रखने वाले सदाबहार अभिनेता देव साहब आज हमारे बीच नहीं है, यह हम सोच भी नहीं सकते। पर इस पर हमें भरोसा करना ही होगा कि वे आज हमारे बीच नहीं हैँ। एक ऐसा अभिनेता, जिसे एक नहीं, दो नहीं, बल्कि तीसरी पीढ़ी भी दीवानी हो, ऐसा अभिनेतो भारतीय रजतपट पर अभी तक नहीं हुआ। यह खिताब आँख बंदकर देवानंद को दिया जा सकता है। हमेशा कुछ नया करने की चाहत ने ही उन्हें हमेशा सदाबहार बनाए रखा। एक उम्र के बाद इंसान नया सोचना तो क्या नया करना भी नहीं चाहता। उस स्थिति में देव साहब ने हमेशा कुछ नया ही करने का सोचा। उनकी कई फिल्में असफल रहीं, पर उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा। इस बात का खयाल अवश्य रखा कि जो फिल्में विफल रहीं, वैसी गलती आने वाली फिल्मों में न हो। हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया, उन्हीें पर फिल्माए गाने को उन्होंने जिंदगी भर निभाया। कई बार तो उनके लिए समय ही ठहर गया, पर वे नहीं ठहरे। सादे जीवन से किस तरह से उच्च आदर्शों के साथ अच्छे से जीया जा सकता है, यह कोई उनसे सीखे। छह दशक से अधिक समय तक रुपहले पर्दे पर जमे रहना कोई मामूली बात नहीं है।कभी अपनी एक फिल्म में उन्होंने एक गीत गुनगुनाया था मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया। और शायद यही गीत उनके जीवन को सबसे अच्छी तरह परिभाषित भी करता है. आज देवानंद हमारे बीच नहीं है, पर हाल में आई उनकी फिल्म चार्टशीट में भी वे अपने पूरे जोश खरोश के साथ दिखाई दिए। देव आनंद को अपने अभिनय के लिए दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। देव आनंद को सबसे पहला फिल्म फेयर पुरस्कार वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म काला पानी के लिए दिया गया। इसके बाद वर्ष 1965 में भी देव आनंद फिल्म गाइड के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। वर्ष 2001 में देव आनंद को भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण सम्मान प्राप्त हुआ। वर्ष 2002 में उनके द्वारा हिन्दी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।गुरुदासपुर की वे गलियाँ आज रो रहीं होंगी। बेशक उन्हीं गलियों से चेतन आनंद और विजय आनंद भी गुज़रे, लेकिन इन्होंने अपने जीवन को वैसा ही जीया, जैसा उन्हें मिला। पर देव साहब की बात ही कुछ और है। उन्होंने अपने जीवन का एक सूत्रवाक्य बना लिया था 'चरैवति चरैवति वे चलते रहे, हमेशा चलते रहे। कविवर रवींद्र नाथ टैगोर ने कहीं लिखा है 'जोदि तोमार डाक सुने केऊ ना आसबे, तो एकला चालो एकला चालो रे। देव साहब ने इन्हीं शब्दों को जीया। जीवन में कई विफलताएँ आई, लोगों के ताने सहे, पर वे इन सबकी परवाह न करते हुए हमेशा उसी काम में लगे रहे, जो उन्हें भाता था। अब तो कोई ऐसा इंसान दिखाई भी नहीं देता, जो उनकी तरह ऊर्जावान होकर अपने काम में मस्त रहता हो। उनकी फिल्में हमें शायद कुछ सुझा सके। जीवन की निरंतरता सिखा सके। वे आज हमारे बीच भले ही न हों, पर पूरी तीन पीढिय़ों की यादों में वे हमेशा बसे रहेंगे, यह तय है।
डॉ महेश परिमल
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