डॉ. महेश परिमल
हमें गर्व होना चाहिए शहीद नानक चंद की विधवा गंगा देवी के जज्बे पर। जिसने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा है कि अफजल गुरु को उन्हें सौंप दे। ताकि सरकार में यदि हिम्मत नहीं है, तो वह उसे फाँसी दे देगी। गंगा देवी पर हमें इसलिए भी गर्व करना चाहिए कि उसने पति के मरणोपरांत मिलने वाला कीर्ति चक्र भी लौटा दिया। उनका कहना था कि अफजल को फांसी दिए जाने तक वे कोई सम्मान ग्रहण नहीं करेंगी। एक शहीद की विधवा को और क्या चाहिए। लोग न्याय की गुहार करते रहते हैं, उन्हें न्याय नहीं मिलता। पर एक शहीद की विधवा यदि प्रधानमंत्री से न्याय की गुहार करे, तो क्या उसे भी इस देश में न्याय नहीं मिलेगा? वर्ग भेद की राजनीति में उलझी देश की गठबंधन सरकार से किसी प्रकार की उम्मीद करना ही बेकार है। शहीद की विधवाओं की गुहार संसद तक पहुँचते-पहुँचते अनसुनी रह जाती है। जहाँ वोट की राजनीति होती हो, वहाँ कुछ बेहतर हो भी नहीं सकता।शहीद की विधवा ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा है ‘मनमोहन सिंह जी अगर आपकी सरकार में अफजल गुरु को फांसी देने की हिम्मत नहीं है, यदि आपको जल्लाद नहीं मिल रहे तो आप यह काम मुझे सौंप दें। मैं शहीद की पत्नी हूं, देश के खिलाफ आँख उठाने वाले को क्या सजा दी जाए, मुझे और मेरे परिवार को मालूम है।’ ‘मैं संसद के 13 नंबर गेट पर जहां मेरे पति शहीद हुए थे वहीं अफजल को फांसी दूंगी।’ राठधाना गाँव में अपने घर पर शहीद पति की प्रतिमा के सामने बैठी गंगा देवी ने कहा कि हमले के दस साल बाद भी अफजल और उसके सभी साथी सुरक्षित हैं। देश के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है?’ देश के हर नागरिक को यह सोचना चाहिए कि आखिर देश के दुश्मनों को देश के भीतर ही कौन शह दे रहा हे? क्यों पनप रहा है आतंकवाद? हमारे ही आँगन में कौन बो रहा है आतंकवाद की फसल? देश के दुश्मनों से सीमा पर लड़ना आसान है, पर देश के भीतर ही छिपे दुश्मनों से लड़ना बहुत मुश्किल है। एक घोषित आतंकी हमारी ही सुरक्षा में कबाब खाता रहे, उस पर करोड़ों रुपए खर्च होते रहें, हम यह सब आखिर सहन कैसे कर लेते हैं। केवल वोट की राजनीति के कारण देश में ही आतंकवादी सुरक्षित रहें, सीमा पर हमारे जवान असुरक्षित होकर भी लड़ते रहें, आखिर ये कहाँ का न्याय है? गड़बड़ी आखिर कहाँ है? इसे समझना आज हर भारतीय का कर्तव्य है।भारत में पिछले 20 सालों में तीन दर्जन से अधिक आतंकी हमले और उनमें 1600 से अधिक लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार एक भी आतंकी को सजा नहीं मिली है। चाहे 1993 का मुंबई बम धमाका हो या फिर 2001 का संसद पर हमला, पाकिस्तान में बैठे साजिश रचने वालों तक भारतीय एजेंसियों के हाथ नहीं पहुंच सके। वहीं हमले के लिए जिम्मेदार जिन आतंकियों को गिरफ्तार भी किया गया, उनके खिलाफ अदालती कार्रवाई का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। सुरक्षा एजेंसी से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि आतंक के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दिए बिना इसके खिलाफ लड़ाई बेमानी है। 1993 में मुंबई बम धमाकों को 26/11 के बाद भारत में अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला माना जाता है। 300 से अधिक लोगों की मौत और 700 से अधिक को घायल करने वाले एक के बाद एक 12 धमाकों ने देश की आर्थिक राजधानी को हिलाकर रख दिया था। लेकिन अभी तक इसके एक भी आरोपी को सजा नहीं हो पाई है। आतंकी हमले के 13 साल बाद 2006 में विशेष टाडा कोर्ट का फैसला आया भी, तो सजा पाने वाले दोषियों ने उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी, जहां अब तक सुनवाई चल रही है। वैसे हकीकत यह भी है कि हमले की जांच करने वाली सीबीआई अब तक मुख्य आरोपी दाऊद इब्राहिम समेत 35 दूसरे आरोपियों को गिरफ्तार तक नहीं कर पाई है। वहीं 2001 में संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फाँसी की सजा पर 2005 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुहर लगने के छह साल बाद भी अमल नहीं हो पाया है। जबकि 2000 में दिल्ली के लालकिले में घुसकर सेना के तीन जवानों की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर-ए-तोयबा के आतंकी मोहम्मद आरिफ की फाँसी की सजा पर अब तक अदालती कार्रवाई जारी है। 2005 में छह अन्य आरोपियों समेत आरिफ को दोषी मानते हुए ट्रायल कोर्ट ने उसे फाँसी की सजा सुनाई। 2007 में हाईकोर्ट ने अन्य आरोपियों को बरी करते हुए आरिफ के खिलाफ फाँसी की सजा बरकरार रखी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में मामला विचाराधीन है। इसी तरह 2002 में गुजरात स्थित अक्षरधाम मंदिर पर हमला कर 31 लोगों को मौत का घाट उतारने वाले लश्कर आतंकियों को फाँसी देने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 2005 में दीवाली के ठीक पहले धनतेरस पर दिल्ली के बाजारों, 2006 में बनारस के संकटमोचन मंदिर और 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम विस्फोट करने वाले आतंकियों को सजा मिलने में अभी सालों लग सकते हैं। जबकि इन तीन आतंकी हमले में 300 से अधिक लोग मारे गए थे। खुफिया विभाग (आईबी) के पूर्व प्रमुख व विवेकानंद फाउंडेशन के निदेशक एके डोभाल का मानना है कि आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित होने के बावजूद भारत आतंकियों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने में विफल रहा है।अजमल कसाब को जब फाँसी की सजा मुकर्रर हुई, उसके बाद संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फाँसी पर चढ़ाने के लिए दबाव बनने लगा। लेकिन इस बीच जो बयानबाजी हुई और फाइल इधर से उधर हुई, उससे यह स्पष्ट हो गया कि कई शक्तियाँ अफजल को बचाने में लगी हुई हैं। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अफजल को बचाने में कौन-कौन लगे हुए हैं? अब तो यह भी सिद्ध हो गया है कि जिन अफसरों ने अफजल की फाइल को अनदेखा किया, उन सभी को पदोन्नति मिली। इसका आशय यही है कि कई शक्तियाँ अफजल को बचाने में लगी हैं। एक फाइल चार साल तक 200 मीटर का फासला तय न कर पाए, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? इसको समझते हुए उधर अफजल यह कहा रहा है कि मैं अकेलेपन से बुरी तरह टूट गया हूं। मुझे जल्द से जल्द फाँसी की सजा दो। निश्चित रूप से यह भी उसकी एक चाल हो। पर इतना तो तय है कि अफजल पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने मंे केंद्र सरकार के पसीने छूट रहे हैं। देश के हमारे संविधान पर भी ऊँगली उठ रही है, सो अलग। आखिर क्यों हैं इतने लचर नियम कायदे और क्यों है इतनी लाचार हमारी राष्ट्रपति?कहने को तो हमारे राष्ट्रपति अथाह अधिकारों के स्वामी हैं। यहाँ पर स्वामिनी कहना अधिक उचित होगा। उनके पास यदि किसी की दया याचिका आती हे, तो वे स्वतंत्र रूप से कोई निर्णय नहीं ले सकते। पहले उस आवेदन को गृह मंत्रालय भेजा जाता है। वहाँ से टिप्पणी आने के बाद उस पर राष्ट्रपति की मुहर लगती है। अभी हमारे राष्ट्रपति के पास 20 दया याचिकाएँ पेंडिंग हैं। इनमें से 7 गृह मंत्रालय के पास हैं। ये सभी याचिकाएँ भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की तरफ से उन्हें विरासत में मिली हैं। अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उन्होंने मात्र एक ही याचिका पर निर्णय लिया था। उन्होंने बलात्कारी धनंजय चटर्जी की दया याचिका को ठुकरा दिया था। जिसे बाद में फाँसी दी गई। इसके पूर्व के. आर. नारायण ने अपने कार्यकाल में एक भी दया याचिका पर निर्णय नहीं लिया था। अब इन सभी याचिकाओं पर निर्णय लेने की जवाबदारी प्रतिभा पाटिल पर आ पड़ी है। अब यदि हमारी राष्ट्रपति यह सोचें कि उनके पहले के राष्ट्रपतियों ने जब इस पर विचार नहीं किया, तो उनके अकेले करने से क्या होगा? वैसे भी दया याचिकाओं पर राष्ट्रपति कोई स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकतीं। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने गृहमंत्रालय से प्राप्त एक दया याचिका को ठुकरा देने की सलाह देते हुए फाइल वापस भेज दी थी। वे चाहते थे कि इस अपराधी को फाँसी के बजाए उम्रकैद दी जाए। इसके बाद गृहमंत्रालय ने उस पर निर्णय लिया और उस पर राष्ट्रपति को अपनी मुहर लगानी पड़ी। इस तरह से देखा जाए, तो कई अधिकार प्राप्त हमारे राष्ट्रपति संविधान के मामले में स्वयं कुछ भी निर्णय लेने में अक्षम हैं।राष्ट्रपति की इसी अक्षमता का लाभ अफजल गुरु जैसे आतंकवादी उठा रहे हैं। अभी जो दया याचिकाएँ राष्ट्रपति के सामने हैं, उसमें से कई तो दो दशक पुरानी हैं। इन पर अभी तक फैसला नहीं हो पाया है। संविधान की इसी कमजोर नब्ज को पकड़ते हुए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर फारुख ने कह दिया कि पहले उन 20 दया याचिकाओं पर फैसला करो, फिर अफजल गुरु की याचिका पर फैसला करना। इसका मतलब साफ है कि न तो उन 20 याचिकाओं पर फैसला होगा न ही अफजल गुरु फाँसी होगी। यही बात स्पष्ट करती है कि अफजल गुरु पर किसका वरदहस्त है? उमर फारुख की इस टिप्पणी पर हमारे संविधान के विशेषज्ञों का कहना है कि फाँसी की सजा कोई होटल में रुम बुकिंग जैसी प्रक्रिया नहीं है, जिसमें जो पहले आएगा, वह पहले पाएगा।इसके अलावा इस मामले में सबसे बड़ी बाधा सरकार की वह सोच है, जिसके अनुसार यदि अफजल गुरु को फाँसी दे दी गई, तो जम्मू-कश्मीर में हिंसा भड़क उठेगी। क्योंकि अफजल कश्मीरी मुसलमान है। अफजल के कश्मीरी मुसलमान होने का लाभ कई लोग उठा रहे हैं। कई लोगों के लिए वह हीरो है। इसके पूर्व घाटी में मकबूल बट्ट को 1984 में फाँसी पर लटका दिया गया था। वह 1960 से ही कश्मीर की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था। उसे 1974 घाटी के एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या के आरोप में फाँसी की सजा सुनाई गई थी। अंतत: 11 फरवरी 1984 को उसे दिल्ली की तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गई। उसके शव को उसके परिजनों को नहीं दिया गया और जेल में ही उसे दफना दिया गया। उसकी फाँसी के बाद कश्मीर में अलगाववाद का आंदोलन और तेज हो गया। कश्मीर की प्रजा आज भी मकबूल बट्ट को अपना हीरो मानती है। उसकी पहचान शहीदे आजम के रूप में होती है। हर साल 11 फरवरी को श्रीनगर बंद रहता है। उधर कश्मीर के अलगाववादी आज भी अफजल को अपना हीरो मानते हैं। इस स्थिति में यदि अफजल को फांसी दे दी जाती है, तो कश्मीर घाटी एक बार फिर हिंसा की चपेट में आ सकती है। यही कारण है कि सरकार अफजल की फाँसी के मामले को लगातार टाल रही है।अभी देश को सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसी सख्ती की आवश्यकता है, जो अपने बल पर ही कई कामों को अंजाम देने में सक्षम होते थे। वीर शिवाजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, महाराजा रणजीत सिंह, महाराणा प्रताप, लोकमान्य तिलक, गोखले आदि ऐसे नाम हैं, जो अपनी दृढ़ता के कारण ही पहचाने जाते हैं। आज देश को ऐसी ही दृढ़ता की आवश्यकता है, जो देश को बचा सके। सुबूत इकट्ठा करना, उसे दुनिया को दिखाते रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो वह है कि सुबूत इकट्ठा कर उसे किसी को न बताना और सीधे दुश्मन के घर में घुसकर उसे खत्म कर देना। जिस इच्छाशक्ति की देश को आज आवश्यकता है, उसे प्राप्त करने में काफी वक्त लगेगा। तब तक शायद हम सब्र के बॉंध ही बनाते रहेंगे।
डॉ महेश परिमल
गुरुवार, 15 दिसंबर 2011
शहीद की विधवा के जज्बे को सलाम!
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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